मेंहदी पीसने वाले के हाथ स्वतः हो जाते हैं लाल

October 2001

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वह युवक था, पर उसमें युवकों जैसी उद्दंडता उच्छृंखलता न थी। उसमें तो प्रामाणिकता, परोपकारवृत्ति, सत्यनिष्ठा कूट−कूटकर भरी थी। लेकिन अपने अगणित सद्गुणों के बावजूद उसके पास वैभव न था। बचपन भी उसका गरीबी में बीता था और अभी भी उसकी जिंदगी गरीबी में ही कैद थी। उसके घर−परिवार में भी कोई नहीं था। अतः उसे अकेलापन बहुत सालता−सताता। अपनी गरीबी और अकेलेपन को मिटाने के लिए उसने कुलदेवी की आराधना की। देवी प्रसन्न हुई। उन्होंने इसे दर्शन देते हुए कहा, “बेटा! तेरी समस्याओं का समाधान महर्षि आर्जव करेंगे। वे महान् ज्ञानी पुरुष और दिव्यात्मा हैं। वह यहाँ से चार योजन दूर रहते हैं, तुम उनके पास चले जाओ।”

आशा से ओतप्रोत वह नवयुवक वहाँ से चल दिया। वाहन के लिए उसके पास धन नहीं था। फिर भी मन की उमंग और साहस के बलबूते वह चल पड़ा। अभी एक योजन ही वह चल पाया था कि थकान ने घेर लिया। पास में ही एक गाँव था। वहाँ उसने विश्राम करने का निश्चय किया। इस गाँव के जिस घर में वह पहुँचा, उसमें वृद्धा के साथ एक अति सुँदरी नवयुवती भी थी। स्नान−भोजन के बाद युवक वृद्धा के पास बैठकर घर−परिवार की चर्चा करने लगा। बातों−ही−बातें में युवक ने अपनी यात्रा का उद्देश्य और महर्षि आर्जव की महिमा भी कह सुनाई।

ये बातें सुनकर वृद्धा की आँखें भी चमक उठीं। उसने युवक से कहा—मेरी भी एक समस्या है। हो सके तो उसका समाधान भी महर्षि से पूछ लेना। यह कहकर उसने पुत्री की ओर इशारा करते हुए बताया कि मेरी इस बेटी का हठ है कि यह उसी नवयुवक से विवाह करेगी, जो सवा लाख रुपये का हीरा इसे लाकर देगा। तुम महर्षि से पूछना कि इसकी यह इच्छा कब पूरी होगी। युवक ने वृद्धा को पक्का आश्वासन दिया और अगले दिन आगे चल पड़ा। थकान ने उसको उस दिन भी एक योजन से अधिक आगे नहीं बढ़ने दिया। पास में कहीं गाँव नहीं था और उसे आश्रय की खोज थी। तभी उसे एक झोपड़ी दिखाई दी। वह वहाँ पहुँचा। एक संन्यासी वहाँ बैठे थे। युवक के आग्रह पर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक निवास की अनुमति दे दी। कुछ समय में ही उन दोनों में प्रगाढ़ आत्मीयता, अंतरंगता हो गई। दोनों ने ही हृदय की बातें कहीं। उस युवक की यात्रा के उद्देश्य को सुनकर संन्यासी ने भी अपनी एक समस्या उसके समक्ष प्रस्तुत कर दी। उन्होंने कहा, तीस वर्ष से मैं साधना कर रहा हूँ, पर अब तक मन सध नहीं पाया है। इससे मैं बहुत विकल हूँ। महर्षि आर्जव से तुम कोई समाधान अवश्य पूछना और मुझे बताना।

सरल हृदय नवयुवक ने संन्यासी को भी वचन दे दिया और प्रातःकाल वहाँ से आगे प्रस्थान कर गया। तीसरे दिन पुनः एक योजन चला। एक गाँव में पहुँचकर उसने एक माली के यहाँ विश्राम किया। नवयुवक बहुत मिलनसार था, अतः उसने अपने व्यवहार से माली के हृदय को भी जीत लिया। पारस्परिक वार्त्तालाप में महर्षि आर्जव के पास जाने के उद्देश्य का पता माली को भी लग गया।

उसने भी व्यथा भरे शब्दों में कहा, मरणासन्न स्थिति में मेरे पिताजी ने एक आदेश दिया था कि मकान के उत्तर कोने में चंपक का वृक्ष अवश्य लगाना। इसके बाद वे कुछ भी कह नहीं सके थे और उन्होंने आँखें मूँद लीं। तब से अब तक मैं सदैव परिश्रम कर रहा हूँ पर चंपक का वृक्ष लगा ही नहीं पा रहा हूँ। मुझे इसकी बहुत पीड़ा है। महर्षि आर्जव से मेरी इस पहेली का समाधान पूछना।

युवक ने माली को भी विश्वास दिलाया कि वह उसकी समस्या का समाधान अवश्य पूछकर बताएगा। इसके साथ ही अगले दिन प्रातः वह आगे बढ़ गया। एक योजन चलने के बाद महर्षि आर्जव की झोंपड़ी उसे मिल गई। महर्षि आर्जव के चेहरे पर अद्भुत आभा थी। चारों ओर आत्मतेज और ब्रह्मवर्चस् का पराग बिखरा हुआ था। युवक ने श्रद्धा से अपना मस्तक झुकाया। महर्षि ने आशीर्वाद दिया तथा आने का उद्देश्य पूछा। युवक ने निवेदित किया, “आप महान् हैं, आपका ज्ञान अगाध है, जो भी व्यक्ति आपके चरणों में अपनी समस्या प्रस्तुत करता है, वह समाधान पाता है। मेरी भी कई समस्याएँ हैं। मैं उनके समाधान की साध लेकर आया हूँ। कृपया आप अनुग्रह करें।”

महर्षि आर्जव ने गौर से नवयुवक को देखा और कुछ क्षणों के बाद पूछा, “तेरे कितने प्रश्न हैं? मैं तीन सवालों से अधिक का उत्तर नहीं दूँगा।”

वह युवक कुछ झिझका। उसने साहस बटोरकर कहा, “मुझे तो केवल चार प्रश्न पूछने हैं। एक मेरा है तथा तीन औरों के हैं, जिनका मैंने मार्ग में आतिथ्य ग्रहण किया था। मेरे पर विशेष अनुग्रह करें। मैं आपसे चारों प्रश्नों का उत्तर पाकर धन्य हो जाऊँगा। यदि एक भी प्रश्न बाकी रहा, तो मैं कठिनाई में फँस जाऊँगा।”

महर्षि ने पुनः कहा, “मैं तीन से अधिक सवालों का जवाब नहीं दूँगा। तुम जिन तीन प्रश्नों को चाहो, उन्हें पूछ लो।”

युवक उलझ गया। उसे अपनी समस्या पीड़ित कर रही थी। उसे वह किसी भी प्रकार छोड़ना नहीं चाहता था। बुढ़िया, संन्यासी व माली को दिए गए अपने वचन भी उसे याद थे। वह उन्हें भी अपनी समस्या के समान ही समझता था। बहुत कुछ सोचने के बाद उसने अपनी समस्या को छोड़ने का दृढ़ संकल्प लिया। महर्षि को जब उसने अपने मनोगत विचार कहे, तो उन्हें भी आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। उन्होंने तत्काल तीनों प्रश्नों के उत्तर दे दिए।

युवक उत्तर पाकर वहाँ से तत्काल लौट पड़ा। एक योजन मार्ग तय कर सबसे पहले वह माली के घर पहुँचा। माली ने उसका भरपूर आतिथ्य किया। युवक ने बताया कि महर्षि ने कहा है कि आपके पिता बहुत चतुर थे। जब वह मरणासन्न हुए तो वह आपको कुछ बातें कहना चाहते थे। पर उस समय वहाँ कुछ अन्य व्यक्ति भी बैठे थे। उनके समक्ष वह सब कुछ कहना नहीं चाहते थे, पर उन्होंने महत्वपूर्ण संकेत दे दिया। जिस उत्तर कोने में चंपक का वृक्ष लगाने का आदेश दिया है, वहाँ कुछ गहराई में प्रचुर मात्रा में धन गड़ा हुआ है। आप ऊपर से खोदते हैं। उतनी मिट्टी में वृक्ष लग नहीं सकता। गहराई में जड़ें जा नहीं सकतीं। बहुत गहरा खोदो, काफी मात्रा में धन मिलेगा।

माली ने तत्काल खुदाई की। चार स्वर्णकलश निकले। प्रत्येक में दस−दस सहस्र स्वर्णमुद्राएँ थीं। माली के हर्ष का पारावार नहीं रहा। युवक की ओर अभिमुख होते हुए उसने कहा, “यदि तुम न आते तो मुझे यह धन नहीं मिल सकता था। इस धन पर अब मेरा अधिकार नहीं, सिर्फ तुम्हारा ही अधिकार है। इसे तुम अपने घर ले जाओ।”

अनचाहा अपार धन मिल रहा था। फिर भी वह नवयुवक नहीं ललचाया। उसने इस प्रस्ताव को स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया और इस कथन को दूसरी बार न दुहराने की प्रार्थना करने लगा। किंतु माली भी उपकारी के प्रति समर्पण में दृढ़ था। उसने उस युवक की एक न सुनी।

अंततः समझौते के रूप में उसे बीस हजार स्वर्णमुद्राएं स्वीकार करनी पड़ीं।

एक दिन रुककर युवक आगे बढ़ा। बीस हजार स्वर्ण मुद्राएँ उसके साथ थीं। एक योजन मार्ग और तय करने पर उसी संन्यासी की कुटिया मिली, जो तीस वर्ष से लगातार साधना कर रहे थे, किंतु उनका मन नहीं सध पा रहा था। इस युवक को वापस आया हुआ देखकर वह फूले नहीं समाए। बोले, “आओ भाई! मेरी जटिल पहेली का क्या समाधान लेकर आए हो? मैं उसे जानने के लिए व्याकुल हूँ।”

युवक ने प्रतिप्रश्न किया, “संन्यासी बनने से पूर्व क्या आप किसी करोड़पति जौहरी के पुत्र थे।”

संन्यासी ने उदासीनता से कहा, “इससे भला तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुम तो मेरी पहेली का समाधान बतलाओ।”

युवक ने विलंब नहीं किया। उसने कहा, “महर्षि ने बतलाया है कि आप संन्यासी तो बने, पर वैराग्य से मन पूरा नहीं भींगा, कुछ कमजोरी रह गई थी। आपके मन में संशय था कि किसी कारण से यदि साधना में सफल नहीं हो पाया, तो फिर भविष्य का क्या होगा। यह सोचकर आपने सवा लाख रुपये मूल्य का एक हीरा अपने पास छुपा लिया था। वह हीरा ही आपके मन को व्यग्र कर रहा है तथा साधना में लीन नहीं होने दे रहा हैं।”

महर्षि आर्जव का सत्य कथन सुनकर संन्यासी की भावना में आध्यात्मिक ज्वार आया। अंतः निरीक्षण से चेतना सजग हुई। हीरे की ममता टूटी। उन्होंने तत्काल उसे युवक को दे दिया। युवक ने उस हीरे को लिया और अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा।

तीसरे दिन वह वृद्धा के घर पहुँचा। वृद्धा ने उसका भरपूर आतिथ्य किया और पूछा, “महर्षि आर्जव ने मेरी लाड़ली के लिए क्या संकेत दिया है? कहीं तुम मेरे प्रश्न के बारे में पूछना ही तो नहीं भूल गए?” युवक ने विनम्रता से कहा, “माँ! मैं तुम्हारा आदेश भला कैसे भूल सकता था। महर्षि की कृपा से ही यह सवा लाख रुपये के मूल्य का हीरा मैं ले आया हूँ। आप इसे अपने पास रखें। जिस युवक को आप अपनी कन्या के योग्य समझें। उसी के हाथों से हीरा अपनी पुत्री को दिला दें।” यह कहते हुए उसने वृद्धा को वह हीरा दिखा दिया। हीरे की चमक और युवक की निस्पृहता से वृत्त अभिभूत हो गई।

वह युवक को एक पल रुकने का संकेत देकर तत्काल अंदर चली गई। उसके पाँव जमीन पर नहीं टिक पा रहे थे। अंदर से वह अपनी अति रूपवती बेटी को लेकर आई और कहने लगी, “पुत्र यह हीरा तुम्हीं अपने हाथों से मेरी पुत्री को सौंप दो।” वृद्धा के अति आग्रह को देखकर तुरंत नवयुवक ने सवा लाख मूल्य का बेशकीमती हीरा निकाला और उस कन्या की हथेली पर रख दिया। देखते ही कन्या उसके मूल्य को पहचान गई। ग्रहीत प्रतिज्ञा के अनुसार उसने भी अपने को समर्पित करने में विलंब नहीं किया। वृद्धा भी इस दृश्य को देखकर हर्ष से रोमाँचित हो गई और उसने भी आगे बढ़कर अपने दामाद का हार्दिक स्वागत−सत्कार किया। वह कभी हीरे को देखती, कभी अपनी बेटी को और कभी इस सुशील−सुदर्शन और सर्वथा योग्य इस नवयुवक को। उसने अपने को धन्य समझते हुए बेटी को अपनी ससुराल विदा किया।

अपने घर पहुँचकर युवक ने अपनी पत्नी के साथ कुलदेवी का पूजन किया। उस रात जब वह अपने पलँग पर सोया तो स्वप्न में देखा कि देवी माँ उसके सुखद जीवन के लिए आशीष देते हुए कह रही है, “पुत्र परोपकार में ही सच्चा कल्याण हैं। जो सदा ही दूसरों के हित चिंतन में लगे रहते हैं उनकी अपनी समस्या का समाधान स्वतः ही हो जाता है। लोककल्याण में ही आत्मकल्याण की पहेली का हल छुपा हुआ है।”


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