मन में सेवा−पुरुषार्थ का भाव(Kahani)

October 2001

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तितली और मधुमक्खी दोनों एक फूल पर आकर बैठती। दोनों झगड़ने लगीं कि फूल पर मेरा अधिकार है।

फैसला फूल ने सुनाया। उसने मधुमक्खी के पक्ष में निर्णय दिया और कहा, “बैठने का श्रम सार्थक करती है और दूसरों के लिए शहद निकालती है। इसलिए इसी का अधिकार है।”

राजा पर्यंक सिंहासन दूसरों को सौंपकर ब्रह्म की खोज में चल पड़े। सत्संग किए और ध्यान मगन में लगे रहे। सुना−समझा तो बहुत, पर गले न उतरा और अतृप्ति निराशा की ओर बढ़ती गई।

खिन्न मन पर्याक तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। एक दिन बहुत थके थे, भूखे भी। किसी किसान के खलिहान में जा पहुँचे और थके−माँदे पेड़ की छाया में सुस्ताने लगे।

किसान थके− माँदे पथिक को देखकर काम छोड़कर उसके समीप पहुँचा।किसान समझ गया कि वह थका हुअा और भूखा है। उसने चावल निकाला, हाँडी में डाला और आग पर रखते हुए कहा, “उठो इसे पकाओ, पक जाए, तब कहना।”

राजा से मंत्र−मुग्ध की तरह वैसा ही किया। भात पक गया, तो किसान को बुलाया। दोनों ने भरपेट खाया। किसान काम में लग गया और राजा को गहरी नींद आ गई।

स्वप्न में देखा कि एक दिव्य पुरुष सामने खड़े हैं और कह रहे हैं, “मैं कर्म हूँ, मेरा आश्रय लिए बिना किसी को शाँति नहीं मिलती। तुम परमार्थ−पुरुषार्थ में लगो और लक्ष्य तक पहुँचो।”

नींद खुलने पर राजा ने अपनी कार्यपद्धति बदली। अब वे ज्ञानवर्षा कम करते और सेवा−पुरुषार्थ में अधिक संलग्न रहते।


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