धर्म किए- धन न घटे

May 1999

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विक्रम संवत् १६८७ में भयानक दुष्काल पड़ा था। जनता अन्न के एक एक दाने के लिए तरसने लगी थी। बीर जी सेठ, संत प्यारेदाश के आश्रम पर गए और विनयपूर्वक संत के चरणों में नमन कर कुछ हितोपदेश की आशा में मौन बैठ गए। संत ने कहा सेठ! एक दिन तुम्हारी माया का तो नाश होगा ही और काया किसी की भी अमर नहीं रही; सिर्फ सत्कर्म ही अमर रहता है। इस समय स्वार्थ को हटाओ यह पूँजी तुम्हारी नहीं, उस मालिक की दी हुई है यही समय है, इसे परमार्थ में खर्चे करो। अवसर चुकोगे तो फिर पछताना पड़ेगा।

सेठ पर संत के वचनों का अत्यंत प्रभाव पड़ा सेठ ने कहा, बाबा आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। मैं अपनी तमाम पूँजी भूख से तड़पकर मरते हुए लोगों को जीवित रखने के प्रयत्न में अन्नदान में लगा दूँगा। संत का आशीर्वाद ले सेठ अपने घर आये और पैसा जनसेवा में लगाने लगे।

वैसे तो औरंगजेब के अंत समय में अकाल लगातार पड़ते ही गए थे, किन्तु १८ का अकाल तो सबसे अधिक भयानक था। स्वयं शाहजहाँ की तवारीख नवेश के लाहौरी ने इसका जो बयान किया है, बहुत ही दर्दनाक है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोगों की दशा करुणा के अंतिम छोर तक पहुँच गयी थी। रोटी के एक टुकड़े के लिए जीवन भर गुलाम रहने के लिए लोग तैयार हो जाते थे। रोटी के सामने इज्जत-आबरू की कोई कीमत नहीं रही। सड़क व रास्ते मुर्दों के शरीरों से बंद हो गए थे। कुछ ही भाग्यशाली ऐसे थे जिनके पाँवों में कुछ शक्ति शेष बची थी और वे एनी प्रान्तों की ओर रोटी पाने चले गए। सेठ वीर जी को संत के वचन याद थे कि धर्म करने से धन कभी नहीं घटता। सेठ ने अपनी पूँजी की जरा भी परवाह नहीं की,जनता को जीवित रखने में उनका विपुल खजाना खाली हो गया था। अपना घर इस तरह धनहीन होते देख सेठ के कुटुंबीजन विरोध करने लगे। सेठ ने किसी की परवाह न करते हुए अपना काम चालू रखा। धन की सारी तिजोरियाँ खाली हो गयी। सेठ को भी धन का नशा उतर गया किन्तु धन का व्यय सत्कार्य में करने से पश्चाताप बिलकुल नहीं हुआ। उनका हृदय तो आनंद से भरा हुआ था, भले तिजोरियाँ खाली हो गयी थी।

अकाल बीत चुका था। वर्षा हुई, लोग - बाग खेती में लगे। सुकल का समय आ गया,किन्तु वीर जी सेठ के घर में सुकल नहीं आया। इसके बावजूद सेठ के मन में परमसंतोष था। संतोषी सदा सुखी। एक दिन प्रभात के समय सेठ बीर जी जब आसन पर बैठे, प्रभु के ध्यान में मग्न थे,उसी समय दरवाजे पर किसी ने उनके नाम कि पुकार लगाई। सेठ ने आकर दरवाजा खोला। सामने ही एक बनजारे ने सिर झुकाया। बनजारे ने कहा सेठ जी मेरा नाम रघुवर है, मैं आपके ही पास आया हूँ। प्रभात का समय है, यदि आपके ध्यान -पूजा में बाधा पड़ी हो तो क्षमा करे।

सेठ ने कहा, भाई बनजारे इस घर को तुम अपना ही घर समझो। कहो मेरे लिए क्या हुक्म है?

बंजारे ने कहा, मुझे बहुत लम्बा दूर जाना है इसलिए मेरी ये गठरियां कृपया अपने पास रख लीजिए। जब में वापस आऊँगा तो इन्हें ले लूँगा। अच्छा मैं चलता हूँ।

सेठ ने कहा, बंजारे भाई मैं गरीब हो चुका हूँ मेरे यहाँ पर माल रखना ठीक नहीं है। बंजारे ने बात अनसुनी करते हुए पोटे उतारकर सेठ के भवन में रखवा दी। सेठ तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो धर्म - संकट में पड़ गया। बंजारे द्वारा अनकहे विदा लेने पर थोड़ी देर बाद जब सेठ का चित्त स्थिर हुआ, तो गठरियां गिनवाते हुए उनकी नजर एक गठरी पर पड़ी, जिस पर लिखा था, सेठ जी! माया का मोह छोड़कर आपने जनसेवा में अपनी पूरी पूँजी लगा दी। भूख से तड़प तड़प कर मरते हुए लोगों के मुँह में निवाला देखकर मैं बहुत खुश हुआ हूँ। सेठ जी तुम मुझे पहचान न सके मैं वही हूँ जिसका तुम अभी ध्यान कर रहे थे। बंजारा बनकर तुम्हारे द्वार पर आया और अपार धन - संपत्ति से भरी गठरियां जो तुम्हारे यहाँ पर रखी गयी है,वे सब तुम्हारी है। तुम्हारी दान में दी हुई वस्तुएँ ही तुम्हें लौटा रहा हूँ। इन्हें स्वीकार करे। बंजारे का यह पत्र पढ़ते ही सेठ के नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। वे बंजारे के पीछे भागे भी किन्तु निराशा ही हाथ लगी। भगवान तो अपना काम कर चुके थे। सुप्रसिद्ध कवि दुलाराम ने लोकचरित्र प्रकाश नामक ग्रन्थ में इस घटना का उल्लेख करते हुए अंतिम पद में लिखा है -

धर्म किये धन न घटे,यही संतन की दें! तुला को ही सत्य को,देखा वीरजी अपने नैन॥

सिद्ध हो गया कि ब्रह्माण्ड कि उत्पत्ति नाद से है। पौराणिक आख्यानों में सृष्टि की उत्पत्ति शब्द - शक्ति हुई बतायी गयी है और कहा गया है कि सृष्टि के अंत में समस्त भौतिक शक्तियां पुनः उसी में लय हो जाती है। इस सत्य की ओर विज्ञान के चरण अब क्रमशः बढ़ते चले जा रहे है और वह इस स्थिति में पहुँच चुका है, जब दावे के साथ यह कह सकते है कि आर्षवाक्य में जो मिथक और गल्प अब तक आलंकारिक उल्लेख मात्र माने जाते थे, उसमें सच्चाई का एक बड़ा अंश विद्यमान है।

शब्द अथवा ध्वनि का सूक्ष्म रूप श्नाद है। यह सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है इसे अनाहत श् नाद कहते है। यह तो अब विज्ञान भी स्वीकारता है कि शब्द - शक्ति का सर्वथा रूप नहीं होता। हम जो कुछ भी कहते है -बोलते है, वह तरंग रूप में सर्वदा मौजूद रहता है। यदि किसी प्रकार उन तरंगों को पकड़ पाना संभव हो सके, तो उन्हें पुनः - पुनः सुना जा सकता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने यह आशा व्यक्त की है कि महाभारत युद्ध के दौरान भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गए गीता के उपदेश को भी कर्णगोचर कर पाना शक्य है।

यह ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत ( ला ऑफ कंजर्वेशन ऑफ एनर्जी ) पर आधारित निष्कर्ष हुआ। इससे आगे बढ़कर विज्ञान अब यह कहता है कि सम्पूर्ण विश्व ही तरंगयुक्त है। इस बिंदु पर दार्शनिक और वैज्ञानिक अवधारणा परस्पर मेल खाती है। दर्शन, सृष्टि में नाद की सर्वव्यापकता बतलाता है। विज्ञान इसे ही अपनी शब्दावली में तरंग कहता है। दोनों दो नहीं, तत्त्व एक ही है यहाँ पदार्थ की प्रकृति तरंगयुक्त कैसे है - इस पर तनिक चर्चा कर लेना अनुपयुक्त न होगा। विज्ञान क्या कहता है कि पदार्थ कणों का समुच्चय है। ये कण अणु और परमाणु कहलाते है। परमाणु पदार्थ का सूक्ष्मतम कण है। इसकी संरचना सौरमंडल की तरह है। इसके केंद्र में एक न्यूक्लियस (केन्द्रक ) होता है, जिसके गिर्द बंद परिपथ में अनेक ऋणावेशित कण या इलेक्ट्रान अनवरत रूप से घूमते रहते है और क्वांटम फील्ड पैदा करते है। यह एक परमाणु की संरचना हुई पदार्थ में इस प्रकार के अगणित परमाणु होते है। सब मिलकर एक बृहत् क्वाँटम फील्ड का निर्माण करते है यह क्वाँटम फील्ड वस्तुतः ओर कुछ नहीं तरंग या कम्पन्न का ही दूसरा नाम है। क्वाँटम सिद्धाँत को गढ़ा ही इस लिए गया है, ताकि पदार्थ की सही सही व्याख्या की जा सके। वह एक साथ तरंग और कण कैसे हो सकता है? यह सामान्य बुद्धि की समझ में आसानी से नहीं आता। उक्त सिद्धाँत पदार्थ के द्वैत स्वभावों में संगति को बैठता और कहता है कि पदार्थ की मूल सत्ता क्वाँटम या कम्पन्न है। आकृति अथवा कण एवं गति (या तरंग ) उस एक सत्य की दो अभिव्यक्ति है। पदार्थ के इन दो पक्षों की विस्तृत व्याख्या मूर्धन्य अमेरिकी वैज्ञानिक एवं संगीत चिकित्सक जान विलु ने अपनी पुस्तक म्यूजिक एंड साउंड इन दी हीलिंग आर्ट्स में किया है।

अब नाद से ब्रह्माण्डव्यापी पदार्थों का उद्भव कैसे हुआ -इस पर विचार करे। इसे समझने के लिए श्साइमैटिस्कश् या तरंग विज्ञान का प्रथम प्रयोग संगीतज्ञ एवं प्रख्यात भौतिकशास्त्री अनस्ट चादनी ने किया। अपने प्रयोगों के आधार पर उन्होंने लिखा नाम था - दिस्कवरिज कंसरनिग दी थ्योरी ऑफ म्यूजिक। सम्पूर्ण पुस्तक का सार निष्कर्ष इतना ही था कि ध्वनि तरंगों में विभिन्न प्रकार कि ज्यामितीय आकृतियों की निर्माण -क्षमता होती है। उन्होंने अपने प्रयोगों में भिन्न -भिन्न तरंगों द्वारा पृथक - पृथक आकृतियाँ बनाकर दिखाई। यह आकृतियाँ बाद में श्चडनी फिगर्स या चडनी की आकृतियों के नाम से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने इसके लिए वायलिन का प्रयोग किया और आकृतियों का निर्माण का बालुका कणों पर किया। इससे आगे का कार्य फ्राँसीसी गणितज्ञ जुल्स लिसजू ने किया। उन्होंने देखा कि जब अगणित तरंगें 90 डिग्री के कोण पर परस्पर मिलती है तो एक विशेष डिजाइन कि रचना करती है। यह विशिष्ट संरचना ही लिसजू ने भी प्रदर्शित किया कि कम्पायमान तरल किस प्रकार गुरुत्वाकर्षणीय असर को निरस्त करता है और तिर्यक करने पर भी नहीं गिरता एवं आकृतियाँ गढ़ता रहता है।

अनुसन्धान का सबसे अद्भुत एवं आश्चर्यजनक पहलू वह था, जिसमें हैंस जेनी ने संस्कृत एवं हिब्रू जैसी प्राचीन भाषाओं पर प्रयोग किया। जब उनकी स्वर वाणी के बारी-बारी से उच्चारण किए गए, तो पलट कर स्थित बालुका कणों ने मिलकर वैसे ही आकार गढ़े जैसे कागज पर वे लिखे जाते थे। दूसरी अदुनातन भाषाओं के साथ यह विशेषता नहीं दिखलाई पड़ी। इससे यह कहा जा सकता है कि उक्त भाषाएँ स्वर या ध्वनि विज्ञान की गलत उदाहरण है एवं उनमें उच्चारण शास्त्र, ध्वनिविज्ञान तथा आकृति - विज्ञान का अद्भुत समन्वय हुआ है।

इसी प्रकार विज्ञान ने यह तो सिद्ध कर दिया कि ध्वनि तरंगों में आकृति निर्माण की रचना होती है। पर वह द्विआयामीय है, उसमें सिर्फ लम्बाई और चौड़ाई होती है जबकि मोटाई या ऊँचाई का तीसरा आयाम पूर्णतः अनुपस्थित होता है। सामान्य पदार्थ प्रायः तीन आयामी होती है। इस तीसरे आयाम की सर्जन समर्थ साधारण तरंगों में नहीं पाई जाती। उसके लिए नाद स्टार की सूक्ष्मता चाहिए जो तरंग और नाद में प्रकृति की दृष्टि से कोई अंतर नहीं, फिर भी उन्हें स्थूल और सूक्ष्म के दो वर्गों में विभाजित तो किया जा सकता है इसे यों समझे। मिर्च स्थूल पदार्थ है। उसे जो कोई खाता है, तो उसका स्वाद या प्रभाव केवल उसी तक सीमित हो कर रह जाता है, किन्तु जब उसी मिर्च को अग्नि के माध्यम से सूक्ष्मीकरण किया जाता है तो उसका प्रभाव इतना व्यापक होता है कि उस वातावरण में जो कोई भी आता है, वही छींकने खाँसने लगता है। यह सूक्ष्म की शक्ति है तरंग और नाद में इसी स्तर का अंतर है।यह तो सर्वविदित है कि पदार्थ की सूक्ष्मता जैसे-जैसे बढ़ती है, तदनुसार उसकी क्षमता में भी उत्तरोत्तर विकास होता है। तरंग जब नाद में रूपांतरित होती है, तो उसमें एक आकर्षण - शक्ति पैदा हो जाती है। इस शक्ति के द्वारा वह क्वाँटम कणों को अपनी और खींचता है। कणों का समुच्चय बाद में प्रकट होता है यह पदार्थ -रचना सम्बन्धी विज्ञान होता है।

अब यह प्रश्न है कि विश्व में इतने प्रकार के पदार्थों का प्रादुर्भाव कैसे हुआ? इस सम्बन्ध में विज्ञानी क्वाँटम कणों की सघनता और विरलता को करणभूति मानते हैं। जैसे की चडनी और लिसजू के प्रयोगों से स्पष्ट है आवृत्ति अथवा तरंग- दैर्ध्य में या दोनों में परिवर्तन से आकृतियों में भी बदलाव आता है, वैसे ही क्वाँटम कणों के किसी समूह की पहले वाली आवृत्ति बदल जाती है। इस परिवर्तित आवृत्ति के कारण जो स्थूल अभिव्यक्त होगी, वह पहले से भिन्न होगी अर्थात् दोनों दो प्रकार के पदार्थ होंगे ऐसे ही कण जुड़ने अथवा उससे पृथक होने के कारण आवृत्ति में जो अंतर आएगा, वह हर बार एक नवीन अभिव्यक्ति को जन्म देगा। इस प्रकार नये-नये पदार्थ पैदा होते चले जाएँगे।

विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि क्वाँटम कण कोई वास्तविक कण नहीं, ऐसी सत्ता है, जिनकी मात्रा नहीं होती। वे जिस क्वाँटम फील्ड या क्षेत्र का निर्माण करते हैं, वह वस्तुतः कंपन या तरंग है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है की पदार्थ का मूल स्वरूप तरंगयुक्त है। यहाँ वैज्ञानिक और शास्त्रीय मान्यताएँ मिलकर एक हो जाती है। विज्ञान यह भी कहता है कि सभी पदार्थों के इलेक्ट्रान, प्रोटान या क्वाँटम कण मूलतः एक ही है। उनमें किसी प्रकार का पार्थक्य या विभेद नहीं होता। यह तो उनका समूह या संख्या है, जो पदार्थों को उनकी विशिष्टता या गुण प्रदान करते हैं। यह भी परोक्ष रूप में उस शाखीय अवधारण को ही पुष्ट करता है कि सृष्टि का मूल तत्व नाद है विज्ञान उसे अपनी भाषा में क्वांटम तरंग कहता है।

नाद या तरंग किस प्रकार दृश्य अभिव्यक्तियाँ ग्रहण करते हैं- इसे मरणोत्तर जीवन की घटनाओं द्वारा भी जाना समझा जा सकता है। अनेक बार ऐसी घटनाएँ देखने-सुनने में आती हैं। जो व्यक्ति वर्षों पूर्व कर चुके वही अपने स्नेही-स्वजनों के समक्ष किन्हीं विशिष्ट प्रयोजनों के लिए प्रकट-प्रत्यक्ष होते और फिर तिरोहित हो जाते हैं। यह कोई भ्रम या मिथ्या नहीं यथार्थ है। वास्तव में चेतना की प्रकृति तरंगमय है वह चाहे तो गोचा स्वरूप ग्रहण कर सकता है। इसी प्रकार कई बार किन्हीं प्राचीन स्थलों में जाने पर वहाँ का जीवंत दृश्य उसी रूप में अचानक उपस्थित हो जाता है, जैसा सैकड़ों वर्ष पूर्व था। अनेक अवसरों पर इसे आँखों का धोखा कह दिया जाता है। सही गलत का पता तो तब चलता है, जब गहन जाँच-पड़ताल में वह सत्य साबित होता है इसलिए विज्ञान का यह कहना ठीक ही है कि पदार्थ या घटनाएँ अपनी स्थूल सत्ता खोने के बाद भी अस्तित्व में बनी रहती हैं उनका यह अस्तित्व और कुछ नहीं, तरंग या नाद ही है

इस प्रकार विज्ञान ने उस शास्त्रीय मान्यता को सच साबित कर दिया है, जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति शब्द अथवा नाद से हुई बताई गई है। आगे यदि वह दूसरी दार्शनिक मान्यताओं को भी अपनी कसौटी पर कसकर खरा सिद्ध कर दे, तो इसे आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए, कारण कि दोनों एक ही सत्य के दो अन्वेषक हैं।


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