भगवान कृष्ण एक दिन कर्ण की उदारता की चर्चा कर रहे थे। अर्जुन ने कहा- धर्मराज युधिष्ठिर से बढ़कर वह क्या उदार होगा?श्री कृष्ण ने कहा- अच्छा परीक्षा करेंगे। एक दिन वे ब्राह्मण का वेश बनाकर युधिष्ठिर के पास आये और कहा- एक आवश्यक यज्ञ के लिए एक मन सूखे चन्दन की आवश्यकता है। युधिष्ठिर ने नौकर को लेने को भेजा, पर वर्षा की झड़ी लग रही थी। इसलिए सूखा चन्दन नहीं मिल रहा था, जो कटकर आता वह पानी में भीगकर गीला हो जाता। युधिष्ठिर सेर, दो सेर चन्दन दे सके, अधिक के लिए उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। अब वे कर्ण के पास पहुँचे और वहाँ भी एक मन सूखे चन्दन का सवाल किया। वह जानता था कि वर्षा में सूखा चन्दन नहीं मिलेगा। इसलिए उसने अपने घर के किवाड़-चौखट उतारकर फाड़ डाले और ब्राह्मण को सूखा चन्दन दे दिया।
भक्ति-भावना अंदर तक ही सीमित न रहे। वह परमार्थ हेतु सत्कर्मों के रूप में अभिव्यक्त हो तो ही वह सार्थक है। वृत्ति कृपण जैसी हो तो कुबेरों का खजाना भी व्यर्थ है। उदार के लिए, तो प्रतिकूल परिस्थिति में भी परमार्थ की आकुलता रहती है।