एक बार ध्राँगध्रा के महाराज के सिपाही वीरपुर के पास से निकले। जलाराम उनको बुलाकर एक बर्तन में से दो लड्डू और एक मुट्ठी सेव प्रसाद देने लगे। जब लगभग १५० सैनिकों को प्रसाद देने पर भी वे बर्तन ज्यों-के-त्यों भरे नज़र आये, तो सिपाही आश्चर्यचकित हो गये। उनमें एक सिपाही घोड़ा दौड़ाकर महाराज के पास पहुँचा और इस घटना की खबर उनको सुनाई। राजा प्रभास पाटन की यात्रा करने निकले थे और उनके साथ भी उन १५० के अतिरिक्त २५० सिपाही और थे। आश्चर्य की बात सुनकर वे भी अपनी सेनासहित वीरपुर की ओर चले आये। वहाँ पर देखा तो वास्तव में भक्त जलाराम दोनों हाथों से प्रसाद बाँट रहे थे। उन्होंने महाराज को देखकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा-राजासाहब अभी जूनागढ़ दूर है, भगवान का प्रसाद तो लेते जाइये। राजा ने कहा- अभी पहुँच जायेंगे भक्तराज, मेरे साथ सैनिक बहुत है।
प्रसाद लिए बिना तो न जाने दूँगा। यह कहकर जलाराम ने सब सैनिकों को उसी बर्तन में से प्रसाद बाँटना आरंभ कर दिया। चमत्कार से प्रभावित होकर राजा ने कुछ देने की इच्छा प्रकट की तो भक्त ने कहा- आश्रम में कुछ बड़ी चक्कियों की आवश्यकता है। सुना है कि आपके राज्य में इसके लायक बढ़िया पत्थर मिलता है। इसलिए कुछ पत्थर भिजवा दे तो कृपा होगी। राजा ने कहा- अरे भक्त, यह क्या माँगा। धन अथवा जागीर माँगी होती तो बात थी।
जलाराम ने कहा- यहाँ तो साधु-संत है, राम का भजन करते है और वे ही जो कुछ देते है, वह सबको खिला देते है। महाराज ऐसा भाव देखकर बड़े प्रसन्न हुए और अपनी इच्छा से बहुत-सा धन भेंट चढ़कर चले गये। उन्होंने बहुत से बढ़िया पत्थर भी भिजवाये, जिनकी चक्कियां अब तक काम दे रही है।