अपूर्णता को पूर्णता में बदलने की याचना (Kahani)

May 1999

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एक मनुष्य किसी महात्मा के पास पहुँचा और कहने लगा-जीवन अल्पकाल है। इस थोड़े से समय में क्या-क्या करे? बाल्यकाल में ज्ञान नहीं रहता। बुढ़ापा उससे भी बुरा होता है। रात-दिन नींद नहीं लगती है। रोगों का उपद्रव अलग बना रहता है युवावस्था में कुटुम्ब का भरण-पोषण किये बिना नहीं चलता तब भला ज्ञान कैसे मिले? लोक-सेवा कब की जाये? इस जिंदगी में तो समय मिलता दिखता ही नहीं। ऐसा कह और खिन्न होकर रोने लगा।

उसे रोता देख कर महात्मा भी रोने लगा, उस आदमी ने पूछा-आप क्यों रोते है? महात्मा ने कहा-क्या करूं बच्चा! खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। मैं भूख से मर रहा हूँ। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के अंश में तीन गुण है गुणों के एक अंश में आकाश है। आकाश में थोड़ी सी वायु है और वायु में बहुत सी आग है। आग के एक भाग में पानी है। पानी का शताँश पृथ्वी है। पृथ्वी के आधे हिस्सों में पर्वतों का कब्ज़ा है। नदियों और जंगलों को जहाँ देखो वहां बिखरे पड़े है। मेरे लिए भगवान ने जमीन का एक नन्हा-सा टुकड़ा भी नहीं छोड़ा। थोड़ी-सी जमीन भी थी, सो उस पर और लोग अधिकार जमाये हुए बैठे है। तब बताओ मैं भूखा नहीं मरूँगा? उस मनुष्य ने कहा- यह सब होते हुए भी तुम जिन्दा तो हो ना? फिर क्यों रोते हो? महात्मा तुरंत बोल उठे- तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, जीवन समाप्त हो रहा है, इसकी रट लगाकर क्यों हाय-हाय करते हो, अब आगे से समय न मिलने का बहाना न करना। जो कुछ भी है उसका तो उपयोग करो।

साधनों कि न्यूनता की दुहाई देना, ईश्वर के राजकुमार को तो कदापि शोभा नहीं देता। अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने की याचना यदि आत्मिक क्षेत्र के विषय में हो तो वह मानवोचित भी है, गरिमा पूर्ण भी। पर यदि वह साधन प्रचुर मात्र में हो तब उसकी ऐसी शिकायत दुर्भाग्य पूर्ण ही है।


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