महाप्रभु चैतन्य (Kahani)

May 1999

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आरती का पुनीत समय था। शंख और घंटे की आवाज से भगवान जगन्नाथ का मंदिर गूँज रहा था। महाप्रभु चैतन्य गरुड़-स्तंभ के पास खड़े भगवान की आरती को बड़ी तन्मयता से गा रहे थे। मंदिर में भक्तों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। बाद में आने वालों को मूर्ति के दर्शन नहीं हो पा रहे थे। एक उड़िया स्त्री जब दर्शन करने में असमर्थ रही तो झट गरुड़-स्तंभ पर चढ़ गई और एक पैर महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी।

महाप्रभु ने तो इस बात को सहन कर भी लिया, परन्तु उनका शिष्य गोविन्द भला क्यों सहन करता? वह उस स्त्री को डाँटने लगा, पर महाप्रभु ने ऐसा करने से मना किया। क्यों बाधक बनते हो, भगवान के दर्शन कर लेने दो। इस माता को दर्शन की जो प्यास भगवान ने दी है, यदि मुझे भी प्राप्त होती तो मैं धन्य हो जाता। इसकी तन्मयता तो देखो कि इसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि पैर किसके कंधे पर है?

महाप्रभु का इतना कहना था कि वह धम्म से नीचे आ गिरी और उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगी। महाप्रभु ने अपने चरण हटाते हुए कहा- अरे! तुम यह क्या कर रही हो मुझे तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्ति-भाव मैं भी प्राप्त कर सकूँ। उक्त वृद्ध को उन्होंने पैरों में से उठाकर खड़ा किया और स्वयं पैर छूने लगे। उन्हें पैर छूते देखकर आसपास के लोगों ने जो उन्हें पहचान गये थे, महाप्रभु से कहा- यह क्या करते हो महाराज! इस नीच बुढ़िया के पैर छू रहे हो

क्या हुआ भाइयों- चैतन्य बोले- अपने से अच्छे और श्रेष्ठ लोगों को आदर-सम्मान देने में कोई बुराई थोड़े ही है। वैसे भी यह वृद्धा मुझसे आयु में बड़ी है। मैं इनके पैर छू रहा हूँ तो कौन-सा पाप कर रहा हूँ। यह तो लक्ष्मी का ही अवतार है।

महाप्रभु चैतन्य के जीवन में आध्यात्मिकता का वास्तविक स्वरूप-लोकसेवा का लक्षण पूरी तरह प्रकट हुआ था। उन्होंने अपना सारा जीवन दुखी-दरिद्रों तथा गिरे हुओं को ऊँचा उठाने में लगाया।

भक्तिभाव से गदगद वाणी सुनकर आसपास एकत्र लोग धन्य-धन्य कह उठे।


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