संतुलन का उत्कर्ष शाँति है। असंतुलन अस्थिरता पैदा करता है। वह चाहे किसी भी स्तर पर हो, वहाँ अव्यवस्था और अराजकता ही पनपेगी। समाज भी इसका अपवाद नहीं। इन दिनों समाज में उथल-पुथल मची है, उसके पीछे कौन-सा तत्व कारणभूत है? समाजविज्ञानी इसके अनेक कारणों में से एक कारण उस अधूरेपन में ढूँढ़ते है, जिसे एकांगी व्यक्तित्व कहा गया है। उनका मानना है कि व्यक्तित्व का यदि एकपक्षीय विकास हुआ, तो वह विभिन्न प्रकार की समस्याएं ही पैदा न करेगा वरन् स्वयं अपनी और समाज की प्रगति भी बाधित करेगा। इस प्रकार अस्थिरता, अवगति और अशाँति का ताँडवनृत्य चतुर्दिक् अपना ही विस्तार करता दिखलाई पड़ेगा। इस पहलू पर तनिक गहराई से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि स्त्री-पुरुष जैसे दिखाई पड़ते है, वे वास्तव में ऐसे ही नहीं है। पुरुष अपना अर्धांश ही प्रकट करता है, उसके भीतर की सम्पूर्ण स्त्री अप्रकट स्तर की बनी रहती है उसी प्रकार नारी के अंदर एक समग्र नर विद्यमान होता है। सामान्यतौर पर उसका वह पक्ष अभिव्यक्त नहीं हो पाता और प्रच्छन्न बना रहता है। इस खंडित विकास के कारण अनेकानेक प्रकार की विद्रूपताएं समाज में सिर उठाने लगती और जो नहीं होने चाहिए, वह सब होने लगता है। उदाहरण के लिए, जब कोई हत्यारा किसी की हत्या करता है, तो वह कुकृत्य करते समय मृतक की पीड़ा और परिजनों की अपार वेदना की अनुभूति नहीं कर पाता। यदि इसका बोध एक क्षण के लिए भी उसे हो जाये, तो कदाचित ऐसे पातक की कल्पना मात्र से उसका हृदय हाहाकार कर उठे। ऐसी प्रतीति कितनों को हो पाती है? यह बताने की आवश्यकता नहीं। अंतर की सरसता और संवेदना का अभाव ही इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है।
मूर्धन्य मनीषी सी. एम. जोड ने अपनी पुस्तक श्दी मैनकईंडश् में लिखा है कि शुरू से ही मनुष्य की संवेदना को यदि उभारा गया होता, तो जगत के युद्धों का इतिहास स्नेह-सौजन्य के अध्याय के रूप में उल्लेखित होता; पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जो काम स्नेह-सहकार से संभव हो सकता था, उसके लिए बात-बात पर हथियार उठाये जाते और रक्त की नदियाँ बहायी जाती हैं। इससे पुरुष प्रकृति का अतिवादी पक्ष हुआ। दूसरी ओर नारियों में संवेदना तो होती है; लेकिन साहस का अभाव होता है। ऐसे में पराक्रमपूर्ण कार्य करने में वह असक्षम साबित होती है और अंतरंग के मात्र एकपक्षीय पहलू का दामन थामे रहने के कारण निर्बल कहलाती है। यह भी उसका यथार्थ निरूपण नहीं है, उसमें अधूरापन है या यों कहना चाहिए कि यह उसका अपूर्ण विकास है।
हर बात के दो पहलू होते हैं। जहाँ गर्मी होगी, वहाँ निश्चित रूप से ठंडक भी मौजूद होगी। सच्चाई तो यह है कि गर्मी का बोध ही अपने अन्दर शीत का ज्ञान छिपाए बैठा है। अन्धकार कि अनुपस्थिति का नाम ही प्रकाश है। इसका यह मतलब नहीं है कि अँधेरे कि सत्ता है ही नहीं, वरन् यह है कि वह उसके साथ-साथ विद्यमान है। बुराई की पहचान अच्छाई के कारण ही हो पाती है। इसी प्रकार काला-गोरा लंबा-नाटा धन-ऋण प्रिय-अप्रिय सुख-दुख हर्ष-विलाप गरीब-अमीर श्रेष्ठ-निकृष्ट आदि प्रकृति और पदार्थ में पाये जाने वाले द्विधा स्वभाव या गुण हैं। इन युग्मों के कारण ही प्रकृति, पदार्थ, समाज, संसार संतुलित तथा नियंत्रित रह पाते हैं। स्त्री-पुरुष समाज की दो विपरीत सत्ताएँ हैं। दोनों की उपस्थिति के कारण ही समाज का संतुलित विकास संभव है। इनमें से एक यदि साहस, वीरता, पुरुषार्थ परायणता, श्रमशीलता का परिचायक है, तो दूसरी दया, ममता, करुणा, उदारता, सहिष्णुता, प्रेम की प्रतिमूर्ति है। दोनों को मिलाकर ही सुमार्ग समाज बनता है। ईश्वर ने उन दोनों को संतुलित करने के लिए उनमें पृथक-पृथक नर-नारी तत्वों का समावेश किया है, ताकि कोई एक तत्त्व व्यक्तित्व पर हावी होने की कोशिश करे, तो उसमें मौजूद उसका विरोधी तत्त्व उसकी नकेल कसे और नियंत्रित करे। इस प्रकार नर तत्व समाविष्ट है। वैसे ही स्त्रियों में कोमलता और दयालुता जैसे सत्रैन पहलू को संतुलित करने के लिए पुरुष तत्व विद्यमान होता है, ताकि व्यक्ति किसी प्रकार एकांगी न होने पाए।
आज यह प्रवृत्ति आम है कि जब कोई नारी पुरुषोचित कार्य करती, साहस और वीरता दिखाती है, तो उसे महिमामण्डित किया जाता, इनाम-इकराम दिए जाते है। इसके विपरीत जब कोई पुरुष दया करुणा, अहिंसा की बातें करता है, तो उस पर उपालंभ बरसाया जाता है, व्यंग किया जाता है और कभी-कभी तो ऐसी वस्तुएँ भेंट की जाती है, जो नारीत्व की-नारी दुर्बलता की पर्याय होती, इसके माध्यम से यह कहने का प्रयास किया जाता कि स्त्रियोचित गुण पुरुषों को शोभा नहीं देते। यह तो कायरों और डरपोकों के आभूषण हैं। इसे नारी जाति का सरासर अपमान कहना चाहिए। जब नर-नारी दोनों समाज के दो घटक है और यदि नर के गुणों का नारी में प्रकटीकरण को गौरवशाली माना जाता है, तो फिर नर में नारी विभूतियों का प्राकट्य क्यों हेय और हीन माना जाना चाहिए? वह स्थिति भी सम्मानीय है उसका अनादर नहीं होना चाहिए, किन्तु आज सर्वत्र उल्टा ही हो रहा है। लोग नारी में पुरुषोचित गुण की प्रशंसा करते हैं, जबकि इसके विपरीत स्थिति को असहनीय मानते है यह समाज में पुरुष-वर्चस्व का प्रतीक है। सामाजिक असंतुलन का एक बड़ा कारण यह भी है, चाहे वह ऊंच-नीच के रूप में हो अथवा गरीब-अमीर क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, लिंगवाद, सभी के पीछे पुरुष मानसिकता का बढ़ा-चढ़ा योगदान है इससे विसंगतियाँ पनपती है और विपन्नताएं उपजती हैं।
अब समय की माँग यह है कि दोनों में समन्वय हो और उस समन्वित इकाई से एक समग्र व्यक्तित्व का निर्माण हो। नर एक समय में नर हो, तो दूसरे समय वह सम्पूर्ण नारी-गुण प्रदर्शित करे। उसमें पुरुषोचित साहस-पुरुषार्थ का भी माद्दा हो और नारीसुलभ दया-करुणा की निर्झरिणी भी अंतस् में बहे, ताकि जब जिस तत्त्व की आवश्यकता पड़े, उसका तत्काल उपयोग किया जा सके। जहाँ दुष्टता-दमन की जरूरत पड़े, वहाँ शौर्य-पराक्रम दिखाए जाएँ और जब दुखों के भारी बोझ से सामने वाले का मनोबल क्षत-विक्षत हो रहा हो, तब स्नेह-संवेदना की मरहम-पट्टी लगायी जाए।
यही बात स्त्रियों के साथ भी लागू होती है। वह केवल कोमल हृदय, स्नेह-सलिला होने को ही चरितार्थ न करे। उसमें अदम्य साहस भी होना चाहिए, अपनी ओर उठने वाली बुरी नज़र को दुस्साहस का दंड व सही दिशा में मोड़ने के लिए कम-से-कम विवश तो करे। भले ही उसमें नारी हृदय की सजलता हो, तो पुरुष जैसा पराक्रम भी। कहा जाता है कि साँप भले ही न काटे, वह विषैला चाहे हो अथवा नहीं; पर केवल उसका फुफकारना ही आत्मरक्षा के लिए पर्याप्त है यह नारियों पर भी लागू होता है।
इस प्रकार का समग्र बनकर ही समाज को आगे बढ़ाया जा सकता है अन्यथा एकांगी व्यक्तित्व या तो शोषण-उत्पीड़न का शिकार बनेगा अथवा शोषक-उत्पीड़क का शिकार की भूमिका निभाएगा। यह दोनों ही स्थितियाँ अस्वीकार्य हैं। मनुष्य अब तक दोनों इकाइयों को पृथक-पृथक शरीर और सत्ता के रूप में जीता रहा है। अब उनका विलय-विसर्जन एक में होना चाहिए। यह एकत्व और एकीकरण ही नारी के संदर्भ में बरती जाने वाली असमानता और अन्याय को दूर कर समाज को स्थायित्व प्रदान करेगा एवं नारी को अधिक सम्मानित तथा प्रतिष्ठित करेगा।
इसके लिए उपाय क्या हो? कैसे अखंड बना जाए और अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को- उसके दोनों तत्वों को समग्र रूप से विकसित किया जाए? मनः शास्त्रियों का मत है कि बचपन से ही यदि अन्तराल के कोमल तत्वों को जगाने के लिए तत्पर हुआ जाए, तो कोई कारण नहीं कि तरुणाई तक बालक की संवेदना को सुविकसित नहीं किया जा सके। जीजाबाई ने शौर्यपूर्ण कथा-कहानियाँ सुनाकर शिवाजी में वीरता का संचार किया था, फिर मर्मस्पर्शी प्रसंगों के माध्यम से बालक के मन को करुणापूर्ण साँचे में न ढाला जा सके, ऐसी बात नहीं। बालिकाओं को भी अति आरम्भ से ही वीररस की कविता-कहानियाँ सुनाकर उनमें प्रखर पराक्रम विकसित किया जा सकना संभव है। भारतीय संस्कृति में तो संस्कारों की महत्ता पर विशेष बल दिया गया है और उसके द्वारा वांछित व्यक्तित्व गढ़ सकना शक्य बताया गया है। विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि जब मनुष्य नर-नारियों के दोनों अंशों का सम्मिलित स्वरूप है, तो उनकी अभिव्यक्ति की भी पूरी-पूरी संभावना उसमें मौजूद है। अब यह अभिभावकों पर निर्भर है कि वे संतति के समग्र विकास में कितना योगदान करते हैं।