भागीरथी पुरुषार्थ की बेला है यह

May 1999

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कोठे में अन्न के भण्डार भर जाने की संभावना का सार्थक अनुमान लगाने की लिए कुछ प्रयत्नों, घटनाओं, प्रवाहों और साधनों को देखते हुए वस्तु स्थित का अनुमान लगाया जा सकता है। किसान समुदाय यदि खेत जोतने में, खाद डालने में, सिंचाई का प्रबंध करने में, जुटा हो तो लाभदायक उपलब्धियों का अनुमान लगाया जा सकता है। बीज बोये जाने और अंकुर उगने पर रखवाली की चौकसी चल पड़े, खरपतवारों को उखाड़ने से लेकर निरे - गुड़ाई का सिलसिला ठीक प्रकार चलता रहे तो समझना चाहिए कि अपवाद रूप में ही दुर्भाग्य बाधक हो सकता है, अन्यथा धन-धान्य से कोठे भरने में कोई व्यवधान रह नहीं गया।

विद्वान बनने के लिए लम्बा अध्ययन करना पड़ता है। पहलवान बनने की लिए मुद्दतों अखाड़े गाड़ने पड़ते है। इक्कीसवीं सदी की मणिमुक्तकों वाली फसल उगने के लिए ऋषि गुणों को, हिमालयवासी सत्ताव को बड़ी महत्वपूर्ण तैयारी - कठोर ताप की प्रक्रिया संपन्न करनी पड़ी है। राम वनवास के चौदह वर्षों में से बारह वर्ष ताप -साधना में और दो वर्ष युद्ध संघर्ष में लगे थे। पाँडवों को वनवास में आरंभिक बारह वर्ष महान प्रयोजन की तैयारी में लगाने पड़े थे। युग संधि की बारह वर्षीय अवधि इसी प्रकार की रही है। ९ से आरंभ हुई यह संक्रमण की अवधि जिसके प्रायः दस वर्ष बीत चुके है जिसमें प्रज्ञावान व सत्ताधारियों को लोभ, मोह और अहंकार की महत्वाकांक्षायें एक कोने पर रखनी पड़ी है और औसत नागरिक स्तर का निर्वाह करते हुए,परिवार को सुसंस्कारित, स्वावलम्बी बनाने भर की जिम्मेदारी निबाहते हुए अपने समय, श्रम,चिंतन और साधनों का अधिकांश भाग उस बीजारोपण में लगाना पड़ा है, जो अगले दिनों सतयुग की फसल के रूप में फलता-फूलता दिखाई पड़ेगा। अगली शताब्दी में ऐसा परिवर्तन कर दिखायेगा जिससे ना भूत ना भविष्यति की संज्ञा सके। पिछले सतयुग में आध्यात्म की ही वरिष्ठता थी। विज्ञान का उन दिनों इस स्तर तक उभर और प्रचलन नहीं हुआ था। पर अब तो बुद्धिवाद, विज्ञान की प्रमुखता है, कमी केवल एक ही है- इसके साथ अध्यात्म का समावेश नहीं हो सकता। तीनों के मिल जाने पर तो जल, थल, आकाश के बने हुए समन्वय की तरह पूर्णता की स्थिति बन जाएगी। अगला सतयुग पिछले सभी सत्युगों की तुलना में अधिक समर्थ, अधिक संपन्न और अधिक ज्ञान-विज्ञान से इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिये।

इक्कीसवीं का फलता-फूलता कल्प-वृक्ष देखने के लिए मात्र प्रतीक्षा करनी ही काफी नहीं होगी, उसके लिए प्राण चेतना से भरे-पुरे लोगों को आगे बढ़कर मार्ग दर्शन करना होगा। चुम्बक अपनी आकर्षण-शक्ति से सजातीय लौहकर्णों को खींचकर समीप एकत्रित कर लेते है। खोदने, बनने और बढ़ने के पीछे यही सिद्धाँत काम करता है। सेनायें इसी प्रकार एकजुट एवं प्रशिक्षित होती है। महान संस्थाओं के संगठन भी इसी आधार पर खड़े होते है उनके मूल में ऐसे व्यक्तित्व रहे होते है, जो अपनी प्रमाणिकता और सेवा-भावना से लोकश्रद्धा अपने साथ समन्वित कर सके। हनुमान के आगे चलते ही रीछ-वानरों का विशाल समुदाय उनके पीछे-पीछे प्राण हथेली पर रख कर चल पड़ा था। कृष्ण-कन्हैया की विवशता से ग्वाल-बालों का एक बड़ा समुदाय प्रगार्ण निष्ठा सहित साथ में जुट गया था। गोवर्धन उठाने में वही काम आया। दुर्योधन की असीम सेना थी। पाँडव पाँच थे, पर उनके न्यायोचित पक्ष का समर्थन करने के लिए असंख्यों ने स्वेच्छा से सहयोग देकर मोर्चा संभाला था। ईसा के अनुयायियों की कमी नहीं थी। बुद्ध के आवाहन पर लाखों भिक्षु-भिक्षुणियाँ विश्व के कोने-कोने में धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए चल पड़े थे। गाँधी जी के सत्याग्रह में सम्मिलित होने वालों की कमी नहीं थी। विनोबा का भूदान आन्दोलन अपने समय में इतना सुविस्तृत हुआ कि उस उपक्रम को एक कीर्तिमान ही कहा जाने लगा था।

इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल कि परिकल्पना को साकार करने के लिए आगामी डेढ़ -दो वर्षों में नव सृजन के निमित्त जुटने वाले को बहुत कुछ करने की आवश्यकता पड़ेगी। जीवन के इन दो वर्षों को एक प्रकार से विश्वकल्याण के निमित्त समर्पित मानते हुए स्वयं को विसर्जित करना होगा। मन को डावांडोल न करके एकचित्त से एकनिष्ठ होकर एक लक्ष्य के साथ तन्मय हो चला जाये तो निशाना ठीक तरह साधने में कोई अड़चन रह नहीं जाती। लक्ष्य के प्रति समर्पित लोगों ने ही संसार में बड़े-बड़े काम किये है। महामानवों की चिस्मरणये कृतियों के पीछे उनकी प्रगाढ़ निष्ठा ही काम करती रही है। जो मात्र कौतुक-कौतूहल के लिए बाल क्रीड़ा करते रहते है, बंदरों की तरह डालियों पर उछलते-मचलते रहते है, उनसे ऐसा कोई काम नहीं बन पाता जिसे चिस्मरणये कहा जा सके और उनका अनुसरण करने के लिए अनेकों का मनन मचलने लगे।

युगसंधि की इस बेला में सबसे महत्त्व कार्य है-विचार क्राँति के लिए योजनाबद्ध रूप से विभूतियों का व्यापक सुनियोजन। इन दिनों लोकचित्त में असाधारण रूप से विकृतियों की भरमार हुई है। कुसंस्कारों की ओर बढ़ता आकर्षण आज सहज स्वभाव के रूप में बहुलता के साथ पाया जाता है। इसके साथ-साथ तथाकथित ऐसे बुद्धिमान को दावानल की तरह फूट पड़ने और फैल पड़ने का अवसर मिला है कि लोग अनीति का ढीठता के साथ समर्थन करने लगे है। डरने, झेंपने, सकुचाने के स्थान पर वे कुकर्म का, तर्कों का अम्बार लगाते हुए समर्थन करते है स्वल्प बुद्धि वालों का उससे सहज प्रभावित हो जाना स्वाभाविक है। मनुष्य का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है कि तत्कालीन लाभ के लिए जो उपाय अपनाकर दूसरों को लाभ उठाते हुए देखा जाता है तो उसे अपनाने की सहज प्रवृत्ति अपना ली जाती है। बड़ों को जो करते देखा जाता है उसकी नकल छोटे भी करते हुए गर्व अनुभव करते है।

प्रायः इन दिनों यही सार्वजनिक प्रचलन है। इससे ऊपर वालों की छूत नीचे वालों तक पहुँच जाती है। रामलीला देखने वाले बच्चे उस मेले से ही राक्षसों और बंदरों के मुखौटे खरीद लाते है और चाव से पहनकर कूदते, छलाँग लगाते रहते है। प्रचलन की भावशक्ति असाधारण है। प्रथा परम्पराएँ इसी आधार पर पनपती है। कुरीतियों और मूढ़ मान्यताओं के भूत इसी प्रकार लोगों के सर पर सवार होते है। मनः स्थिति में भर चला प्रदूषण ही परिस्थितियों, क्रिया–कलापों और घटनाओं को हेय स्तर का बनाता चला जा रहा है। इस प्रवाह को उलट कर शालीनता का, सज्जनता का, विवेकशीलता अपनाये जाने का प्रवाह बहाना अत्यंत कठिन है। इसको भागीरथी द्वारा गंगावतरण किये जाने वाले महान कार्य के समतुल्य ठहराया जा सकता है। दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों में बदलने वाले उपचार का नाम ही है -'विचार क्राँति'। इसे यों भी कह सकते है-चिन्तन में सत्प्रवृत्तियों का इतना गहरा समावेश, जो चरित्र में आदर्शवादिता के प्रति अगाध निष्ठा उत्पन्न कर सके, उलटे को उलट कर सीधा करना इसी को कहते है।

इन दिनों विचार क्राँति के माध्यम से आदमी के चिंतन में आमूलचूल परिवर्तन, यही अवतारी चेतना के प्रकट होने का प्रबलतम संकेत है। जिन-जिन के अन्दर यह रुझान तेजी से बढ़ता दिखाई देगा -उनके अन्दर अवतारी चेतना प्रवेश उतनी ही तेजी से होगा। विचार परिवर्तन एवं इसमें निमित्त अपना सब कुछ सर्वस्व लगा देना ही इस समय का युगधर्म है।


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