एक बार जिज्ञासु अग्निवेश ने आचार्य चरक से पूछा- संसार में जो अगणित रोग पाये जाते हैं, उनका कारण क्या है? आचार्य ने उत्तर दिया-व्यक्ति के पास जिस स्तर के पाप जमा होते हैं, उसी के अनुरूप शारीरिक एवं मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। व्यक्तिगत-व्याधियाँ ही प्रकृति के सामूहिक दंड ही मनुष्य के सामूहिक पतन के दुष्परिणाम होते हैं।
कर्मफल सिद्धाँत पर ही समस्त संसार का व्यापार चल रहा है। संपूर्ण सृष्टि इस मर्यादा से बंधी हुई है। जो समझदार हैं, वे इस शाश्वत तथ्य को समझते तथा कर्मों के फल को सहर्ष स्वीकार करते हैं।
भिक्षु कश्यप ने श्रावस्ती में योग-चमत्कार दिखाना आरंभ कर दिया, इससे उनका यश दूर-दूर तक फैल गया। वे भीड़ से दिन-रात घिरे रहते, उन्हें आत्मकल्याण की साधनों के लिए समय ही न मिलता। जब भगवान बुद्ध ने यह समाचार सुना तो वे बड़े दुखी हुए और उन्होंने समाचार भेजकर कहलाया- प्रशंसा के लिए अथवा ख्याति पाने के लिए योग-साधनों का दुरुपयोग न कर, दुखियारों की सेवा में लगा होता तो अनेकों का भला होता और तुम्हारा भी कल्याण होता।