(षट्चक्रों पर धारावाहिक श्रृंखला का चौथा पुष्प)
चक्रसंस्थान का चौथा मनका (अवरोही क्रम में) मणिपूरित है। मणिपूरित का अर्थ रत्नों से भरा हुआ होता है। इसे यह संबोधन इसलिए दिया गया, क्योंकि यहाँ प्राणऊर्जा प्रचुर परिमाण में पाई जाती है तथा यह उसका उत्पादन केंद्र है। इसे सूर्या चक्र भी कहते है, कारण कि यह सूर्य की तरह सम्पूर्ण शरीर में प्राणशक्ति का संचार करता है। तिब्बतीय साधना प्रणाली में इसको मणिपद्म कहकर अभिहित किया गया है, जिसका अर्थ है- मणियों का कमल।श्
यह ऊर्जा केंद्र जब शिथिल हो जाता है, तो व्यक्ति निष्क्रिय एवं निस्तेज प्रतीत होता है, उसमें शक्तिहीनता स्पष्ट रूप से झलकने लगती है। वह अवसाद एवं व्याधिग्रस्त-सा दिखलाई पड़ता है। उत्साह एवं उल्लास की कमी, उत्तरदायित्वों के प्रति लापरवाही, कार्यों में असफलता आदि इस चक्र के सुप्तावस्था में पड़े होने का प्रमुख लक्षण है। इसलिए इसका जागरण साधकों के साथ-साथ सर्वसाधारण के लिए भी अति महत्वपूर्ण है। इसकी उपस्थिति नाभि के ठीक पीछे मेरुदंड में है। इसका नाभिक्षेत्र में किया जाता है, अतएव उसको इसका क्षेत्रम् कहते हैं। कायिक दृष्टि से सोलर प्लेक्सस को इसका गोचर स्वरूप माना जाता है, जो प्रायः पाचन एवं ताप-नियंत्रक के लिए जिम्मेदार है। यह दस दलों वाला कमल है। इसका रंग नीला या पीला होता है कुछ तंत्र-ग्रंथों में इसे धूम्रवर्णी भी बताया गया है कमल की प्रत्येक पंखुड़ी में डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं, आदि वर्ण अंकित होते हैं। इसका यन्त्र लाल त्रिकोण है, जो सूर्य की तरह चमकदार है रंश् इसका बीजमंत्र है तथा वाहन मेष (भेड़) है। रुद्रश् इसके देवता हैं तथा देवी श्लाकिनीश् हैं। इसका तत्त्व श्अग्निश् है, तन्मात्रा- श्रुप, ज्ञानेन्द्रिय आँखें तथा कर्मेंद्रिय पैर हैं। लोक स्वः तथा वायु-समान है, जिसका सम्बन्ध पाचन तथा पोषण से है मणिपूरित तथा स्वाधिष्ठान चक्र ये प्राणमय कोश के अंतर्गत है। साधना ग्रंथों में ऐसा मिलता है कि बिंदु- विसर्ग स्थित चन्द्रमा से मणिपूरित में अमृत बरसता है, जो यहाँ स्थित सूर्य का आहार बन जाता है। इससे शरीर में क्षयप्रक्रिया आरम्भ होती है, जिसकी अंतिम परिणति वार्धक्य, अशक्ति, रोग तथा मरण है। इस प्रक्रिया की दिशा को कुछ योगाभ्यासों द्वारा पलटा जा सकता है और मणिपूरित में उत्पन्न ऊर्जा को मस्तिष्क में भेजा जा सकता है। ऐसी स्थिति में उसका उपयोग और उपभोग भोग जैसे तुच्छ प्रयोजनों में नहीं, योग में, आनंद और ईश्वरप्राप्ति में होता है। साधनाक्षेत्र के निष्पातों का कथन है कि जप-तप द्वारा जब इस चक्र की सम्पूर्ण शुद्धि हो जाती है, तो फिर काया व्याधिरहित और ओजपूर्ण बन जाती है।
मणिपूरित चक्र को चेतना जगत के उच्चतर आयाम का प्रवेश-द्वार कह सकते हैं। इससे पूर्व के दो स्तर अर्थात् मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र पशु जीवन की उच्च भूमिका से सम्बंधित हैं, इसलिए इनके अनेक तंत्रग्रंथों में इनका उल्लेख तक नहीं किया गया है। बौद्ध मत में कुण्डलिनी का यथार्थ जागरण मणिपूरित चक्र से ही हुआ माना जाता है और यहीं से उच्च मानवीय चेतनात्मक स्तर का प्रारंभ होता है, कारण कि इस भूमिका के उपरांत वह फिर निम्नगामी नहीं होती। संभव है वह आरम्भ के दो मणिपूरित तक अनेक बार पहुँची हो, पर उसके सुप्त होने के कारण वह पुनः अधोगामी हो गई हो; किन्तु एक बार जब यह चक्र जागृत हो जाता है, तो कुण्डलिनी के फिर से निम्नगामी होने की संभावनाएँ समाप्त हो जाती है।
इस चक्र का जागरण योगाभ्यासियों के साथ-साथ सांसारिक व्यक्तियों में भी हो सकता है। जब यह ऐसे किसी व्यक्ति में सक्रिय होता है, तो उसके लक्षण शुद्ध -जीवन, पवित्र-आचरण ईश्वर विश्वास, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, परोपकारिता और सेवा जैसे उच्च आदर्शों के रूप में सामने आते हैं। साधकों में इसकी आंतरिक प्रतीति विभिन्न प्रकार की चेतनात्मक अनुभूतियों के रूप में होती है। चक्रों में वास्तव में ओर कुछ नहीं, कुछ विशिष्ट केंद्र-बिन्दुओं पर ऊर्जा का विकास है। इसे प्रयासपूर्ण संपन्न करना पड़ता है। इसके लिए कितनी ही प्रकार की क्रिया-प्रक्रिया अपनाई जाती है। इन्हीं में से एक है- स्वरयोग या श्वास विज्ञान! इसके माध्यम से शरीर में पाँच प्रकार के प्राणों को कुछ विशेष प्रकार से समायोजित किया जाता है। इस समायोजन से कुण्डलिनी के उत्थान में सहायता मिलती है। उल्लेखनीय है कि नाभि-क्षेत्र प्राण और अपानवायु की क्रियास्थल है। प्राणवायु नाभि से गले के मध्य ऊपर-नीचे तथा अपानवायु पेरिनियम से नाभि के बीच ऊपर-नीचे प्रवाहित होती रहती है। सामान्य श्वास के साथ प्राण का प्रवाह नाभि से ग्रीवा तक होता है। रेचक के समय वह ग्रीवा से नाभि तक तथा अपानवायु मणिपूरित से मूलाधार तक नीचे की ओर जाती है। इस तरह प्राण एवं अपानवायु अनवरत रूप से क्रियाशील रहती है तथा हर एक पूरक एवं रेचक के साथ इसकी दिशाएँ बदलती रहती है।
स्वरयोग का उद्देश्य इनकी दिशाओं पर नियंत्रण स्थापित करना होता है। इसके द्वारा इनका गतिप्रवाह उल्टा जा सकता है। सामान्य स्थिति में प्रश्वास के समय अपान का प्रवाह मूलाधार की ओर होता है। कुछ विशेष अभ्यासों के द्वारा जब जब इसकी दिशा ऊर्ध्वगामी बनाकर मणिपूरित की ओर मोड़ी जाती है, तो प्राण एवं अपान का मिलन नाभिकेंद्र पर एक विस्फोट के रूप में होता है। यह विस्फोट ठीक वैसा ही है, जैसा दो विरोधी शक्तियों का पारस्परिक संयोग। इस शक्ति-संयोग से बड़े परिमाण में ऊष्मा एवं ऊर्जा उत्पन्न होती है, जिससे मणिपूरित चक्र जागृत हो उठता है। फलस्वरूप प्राण-प्रवाह एक बार फिर से पुनर्व्यवस्थित होता है, परिणामस्वरूप कुण्डलिनी उत्थित होकर मणिपूरित में प्रतिष्ठित हो जाती है।
चक्र-संस्थान के सात चक्र (जिसमें अंतिम शून्य चक्र या सहस्रार है) सात लोकों के समान हैं। चेतनात्मक विकास क्रम में जब कुण्डलिनी इन-इन केन्द्रों से होकर गुजरती है, तो साधक को उन-उन लोकों से सम्बंधित कितनी ही रहस्यमयी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। मणिपूरित स्वः लोक से सम्बंधित है, अतएव जब इसका जागरण होता है, तो साधक के समक्ष इसका गूढ़ ज्ञान स्वयमेव प्रतिभासित हो उठता है। इस स्तर पर चेतना के अनंत विस्तार का बोध होता है। उक्त बोध के साथ-साथ साधक के आचार, विचार और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। उसकी आस्थाएँ, मान्यताएँ, विचारणाएं बदल जातीं है वह राग-द्वेष से ऊँचा उठ जाता है। उसकी प्रवृत्तियाँ सृजनात्मक हो जातीं हैं। परमार्थ-प्रयोजनों के प्रति उसके पूर्ववर्ती रुझान में स्पष्ट बदलाव दृष्टिगोचर होता है। इस भूमिका में आरूढ़ साधक न सिर्फ स्वयं सन्मार्ग पर चलता है, वरन् अन्य अनेकों को इसके लिए प्रेरित-उत्साहित करता है। इस स्तर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें व्यक्ति का अंतस् और बाह्य एक हो जाता है। उसकी कथनी और करनी में समानता आ जाती है। वह मिथ्याभाषण से परहेज करता, सत्य का सहारा लेता और ईमानदारी को अपनाता है। दोष-दर्शन उसका स्वभाव नहीं। वह दूसरों की त्रुटियों को भी अपने उदात्त चिंतन के अनुरूप व्याख्या-विवेचना कर लेता और उसके प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाता है। इसके विपरीत जब कुण्डलिनी शक्ति और स्वाधिष्ठान जैसे पशु-स्तरीय भूमिकाओं में अधिष्ठान करती है, तो व्यक्ति औसत स्तर के लोगों जैसी सांसारिक उलझनों में उलझा रहता है। उसका चिंतन और व्यवहार ओछे स्तर के व्यक्तियों जैसा हेय और हीन होता है।मानसिक और भावात्मक समस्याओं से वह पग-पग पर दो-चार होता रहता है, किन्तु जैसे ही इन भूमिकाओं से ऊँचा उठकर साधक मणिपूरित की वास्तविक मानवी भूमिका में अधिष्ठित होता है, समाज और संसार की परिभाषा परिवर्तित हो जाती है जो मन खीझ और कुढ़न से पहले परेशान रहता था, वही अब उत्फुल्लता के आनंद से ओत-प्रोत रहने लगता है।
इस चक्र के जागरण से साधक में अनेकानेक प्रकार की अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास होता है, जिनमें संहार एवं पालन सामर्थ्य, भय-निवारण भौतिक शरीर का पूर्णज्ञान, ऐश्वर्यप्राप्ति एवं आत्मरक्षा आदि प्रमुख हैं।
इस शक्ति-संस्थान को उद्दीप्त करने के लिए योगशास्त्रों में जिन साधना-उपचारों का वर्णन है, उनमें प्राणयोग के अतिरिक्त उड्डियान बंध एवं चक्र ध्यान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त जप, तप, आसन भी कुछ हद तक मदद करते है। पर अकेले इनके द्वारा चक्रों का जागरण समयसाध्य एवं श्रमसाध्य प्रक्रिया है। अतः सुयोग्य मार्गदर्शक ऐसे साधना-अभ्यासों पर विशेष बल देते है, जो सीधे उन्हें प्रभावित करते और थोड़े समय और श्रम में फलवती बनाते हो।
इस स्तर की चेतना हमें मणियों की तरह धवल, उज्ज्वल और निर्मल बनने की प्रेरणा देती है। जिसका अन्दर-बहार एक हो गया, समझा जाना चाहिए कि वह इस भूमिका में अवस्थान कर चुका है।