आपका स्वास्थ्य आयुर्वेद के मतानुसार-२

May 1999

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दिनचर्या के कुछ और महत्वपूर्ण उपक्रम

आयुर्वेद के स्वस्थ वृत्त प्रकरण में सर्वांगपूर्ण दृष्टि रखते हुए दैनंदिन जीवन के प्रत्येक पक्ष पर बड़ी विज्ञान-सम्मत विवेचना की गयी है। विगत अंक में इसकी भूमिका पर प्रकाश डालते हुए रोजमर्रा के जीवन की छोटी-छोटी की निरोग जीवन हेतु व्याख्या की गयी थी। इसमें प्रातः उठने से लेकर उषापान, दंतधावन, आत्मबोध की साधना जैसे पक्षों का विवरण था। इस अंक में इसी क्रम को आगे बढ़ाते है। इसमें अभ्यंग (तेल मालिश), क्षौरकर्म (दाढ़ी बनाना), व्यायाम, प्रातः भ्रमण एवं स्नान से लेकर वस्त्रधारण तक की चर्चा है। किसी को लग सकता है कि उनके पीछे क्या वैज्ञानिकता हो सकती है, पर जब आयुर्वेद के मर्मज्ञ ऋषिगणों का चिंतन आर्षवचनों के परिप्रेक्ष्य में पढ़ते है तो ज्ञात होता है कि कितनी दूरदर्शिता से दिव्यद्रष्टा होने के नाते वे यह सब डेलीरूटीन (दिनचर्या) को व्यवस्थित बनाने के लिए लिख गये है।

अभ्यंग-तेल मालिश

अथ जातान्न पानेच्छो मरुतध्नैः सुगन्धिभिः। यथर्तुसंर्स्पश सुखैस्तैलैरभ्यंग माचरेत।

अन्नपान कि इच्छा करने वाला पुरुष यदि यह चाहता है कि मन्दाग्नि और अजीर्ण न हो तो ऋतु के अनुसार सुख देने वाले शीतकाल में उष्ण तथा

उष्णकाल में शीत वायुनाशक सुगन्धित तेलों से शरीर कि मालिश करें।

अभ्यंगमाचरेंनित्यं स जराश्रमवाताहा। दृष्टिप्रसाद पुष्टयामु स्वप्न सुत्वक्चदाढ़र्य कृत। शिरः श्रवणपादेषु तं विशेषेण शिलयेत।

प्रतिदिन तेल मालिश करने से वायुविकार, बुढ़ापा, थकावट नहीं होती है। दृष्टि कि स्वच्छता, आयु कि वृद्धि, निद्रा, सुन्दर त्वचा और शरीर दृढ़ हो जाता है। सिर, कान तथा पैरों में विशेष मालिश करनी चाहिए। ऋषि आगे कहते है-

सार्षपं गन्धतैलं यत्तैलं पुष्पवासितं। अन्यद्रव्ययुतं तैलं न दुष्यति कदाचन॥

सरसों का तेल, सुगन्धित तेल, पुष्पवासित और अन्य द्रव्यों से युक्त तेल कभी वर्जित नहीं होता। तेलों में तिल का या सरसों का तेल मालिश करने के लिए अच्छा माना गया है।

स्नेहभ्यन्गा।था कुम्भ्श्चर्म स्नेह्विदर्मनात। भाव्त्युपाँगो दक्षश्च दृढः क्लेशसहो यथा॥

तथा शरीर मभ्यन्गादृढं सुत्वक प्रजायते। प्रशान्तमारुताबाधं क्लेशव्यायामसंग्रहम॥

र्स्पशने चाधिको वायुः र्स्पशनंच त्वमाश्र तिम। त्वच्यश्च परमोभ्यंगस्तस्मात्तं शिल्येन्नरः॥

न चाभिघाताभिहतं गात्रमाभ्यंगसेविनः। विकारं भजतेर्त्यथ बलकर्मणि व क्वचित॥

सुर्स्पशोपचितान्गाश्च बलवान प्रियदर्शनः। भवत्यभ्यंग नित्यत्वान्नरोल्पोजर एव च।

अर्थात् यह कि- जिस प्रकार स्नेह की मालिश से घड़ा, स्नेह की मालिश से

चमड़ा, स्नेह तिक्तियो से युक्त गाड़ी का पहिया मजबूत आपत्ति सहने वाला है, उसी प्रकार शरीर में तेल अभ्यंग करने से वह सुन्दर चमड़ी वाला और मजबूत बनता है, वायुविकार शाँत रहते है तथा श्रम और क्लेश को सहने की क्षमता बनी रहती है।

नित्य मालिश करने से मनुष्य कोमल स्पर्श, पुष्ट अंग वाला और बुढ़ापे में उसके लक्षणों की कमी होकर शरीर सुन्दर हो जाता है। तेल मालिश से आयु बढ़ती है तथा शरीर की काँति बढ़ती है। तेल का महत्व घृत से कम किसी भी स्थिति में नहीं है।

घृतादष्ट गुणं तैलं मर्दने न तुभक्षणे।

तेल में घृत से आठ गुणा शक्ति है, अंतर केवल इतना है कि घृत खाने पर गुणकारी है और तेल मालिश करने पर। मालिश करने कि विधि आयुर्वेद में इस प्रकार बताई गई है। सबसे पहले तेल नाभि में लगाना चाहिए। उसके बाद हाथों और पैरों के नाखूनों में। मालिश पैरों के तलवों की करने के बाद दोनों पैरों की पिंडलियों, जंघाओं, फिर दोनों भुजाओं, गर्दन, पीठ, पेट और बाद में सीने कि मालिश करनी चाहिए। पैरों, भुजाओं और पीठ की मालिश नीचे से ऊपर की ओर और पेट तथा छाती की मालिश हृदय से ऊपर की ओर करनी चाहिए। गर्दन की मालिश ऊपर से नीचे की ओर करने से लाभ होता है। ग्रीष्मकाल में शीतल छाया में तथा शीतकाल में धूप उपलब्ध हो सके, तो धूप में ही करनी चाहिए। शीतकाल में मालिश करते समय तेज शीतल वायु का ध्यान रखकर उक्त स्थिति में कमरे के अंदर मालिश करनी चाहिए। कानों में तेल डालने से वायु के रोग नहीं होते। पैर के तलुओं की मालिश करने से नेत्र-ज्योति बढ़ती है। प्रतिदिन न हो सके, तो अवकाश के दिन अवश्य ही मालिश करनी चाहिए। वैसे मालिश करने में अधिक समय नहीं लगता। नहाने से कुछ समय पहले करके फिर और क्षौरकर्म के पश्चात स्नान किया जा सकता है। ज्वर-कास आदि रुग्णावस्था में मालिश नहीं करनी चाहिए तथा भोजन के बाद कम-से-कम तीन घंटे पूरे होने तक मालिश नहीं करनी चाहिए।

क्षौरकर्म-शेविंग

व्यायाम के समान ही नियमित रूप से क्षौरकर्म समग्र शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं दिनचर्या का एक प्रमुख अंग बन गया है।

पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रुपविराजनम। केशश्मश्रूनखादीनाँ कल्पनं संप्रसाधनं॥

पापोपशमनं केशनखरोमापमार्जनम। हर्षलाघवसौभाग्यकरमुत्साहवर्धनम॥

चरक ने इसे पुष्टिकर, वृष्य, आयुष्य, शुचिकर तथा सौंदर्यवर्धक कर्म कहा है। इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में भी उदाहरण आता है कि पापों को शमन करने वाला, हर्षोत्पादक, सौभाग्यकर, हल्कापन लाने वाला एवं उत्साहवर्धक यह कर्म है। अतः नियमित रूप से क्षौरकर्म करना चाहिए। प्रतिदिन दाढ़ी बनाने से शरीर में स्फूर्ति आती है। जो लोग दाढ़ी रखते है, उन्हें नियमित सफाई पर ध्यान रखना चाहिए। महीने में एक बार बाल कटाने चाहिए। संभव हो सके, तो तीन सप्ताह में ही कटावे। सप्ताह में एक बार नाखून काटना आवश्यक है। दाढ़ी बनाने एवं नाखून काटने का स्वयं अभ्यास करना चाहिए। नाई से केवल केश कटाने चाहिए। उसके उस्तरे, ब्रश आदि से संक्रामक रोगों की संभावना बनी रहती है। क्षौरकर्म के पश्चात स्नान करना ऋषिगणों ने एक अनिवार्य कर्म बताया है।

व्यायाम

नियमित व्यायाम आयुर्वेद की दृष्टि से सबके लिए अनिवार्य है।

शरीर चेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी। देह व्यायाम संख्याता मात्रया ताँ समाचरेत॥

शरीर की चेष्टा, देह को स्थिर करने एवं उनका बल बढ़ाने वाली प्रक्रिया को व्यायाम कहते है।

जीवन रक्षा के लिए जिस प्रकार भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार व्यायाम को हम स्वास्थ्य-संजीवनी कह सकते है। चाभी के बिना घड़ी नहीं चलती, इसी प्रकार व्यायाम के बिना शरीर भी नहीं चलता। व्यायाम कामधेनु तथा कल्पवृक्ष के समान है। महर्षि चरक के अनुसार-

लाघवं कर्मसाम थ्यं स्थैर्य दुःख सहिष्णुता। दोष क्षयोग्निवृधिश्च व्ययामादुपजापते॥

व्यायाम से शरीर में हल्कापन, कार्य करने की शक्ति, स्थिरता तथा कष्ट सहने की शक्ति बढ़ती है। शरीर के विकारों का नाश होता है एवं जठराग्नि प्रदीप्त होती है। भावप्रकाश के अनुसार-

व्यायामदृढगात्रस्य व्याधिर्नास्ति कदाचन। विरुद्धं व विदग्धं व भुक्तं शीघ्रं विपच्यते॥

अर्थात् व्यायाम के द्वारा शरीर सुदृढ़ होकर कोई रोग उत्पन्न नहीं होने देता। शरीर में रोगों से लड़ने की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ जाती है। आहार में लिया गया विरुद्ध अन्न ( अच्छी प्रकार न पचने वाला ) भी शीघ्र पच जाता है मोटापा दूर करने के लिए व्यायाम के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। व्यायाम करने वाले को बुढ़ापा नहीं सताता। शरीर की माँस-पेशियाँ दृढ़ एवं सुडौल हो जाती है। नाड़ियों को नवजीवन प्राप्त होता है। फेफड़े दृढ़ होते है, रक्त की शुद्धि होती है तथा मनुष्य दीर्घायु को प्राप्त करता है। व्यायाम सदैव खुली हवा में करना चाहिए। विद्यार्थियों के लिए प्रातः दौड़ना और प्रज्ञायोग के व्यायाम अधिक लाभकारी बताये गये है। प्रत्येक ऋतु में अपने बल की आधी शक्ति से व्यायाम करना चाहिए। इसके विपरीत अधिक व्यायाम करना हानिकारक है। विशेषकर आज के युग में जबकि एरोबिक व्यायाम के नाम पर हेल्थक्लबों में शारीरिक फिटनेस का बुखार सब पर चढ़ा हुआ है। आयुर्वेद के अति व्यायाम को बलार्द्ध की उत्पत्ति की बात कहता है।

हृदिस्थाने स्थितो वयुर्यदा वक्रं प्रप।ते। व्यायामं कुर्वंतो जन्तोः स्ताद्वलार्द्धस्य लक्षणं॥

कक्षा ललाट नामासु हस्त्पादा दिसन्धिपू। प्रस्वेदानमुख शोषाच्च बलार्धताद्धि निर्दिशेत॥

अर्थात्-व्यायाम करते हुए हृदय की वायु जब मुख में प्राप्त होने लगे (हाँफने लगे) तो अर्धबल का लक्षण है। काँख, ललाट, हाथ, नाक, पैर आदि की संधियों में पसीना आने लगे, मुँह सूखने लगे तो बलार्द्ध कहना चाहिए। ऋषि कहते हैं-

श् स्त्रीणारुचिच्छर्दिरक्तपित्तभ्रमक्लमः। कासशोषज्वरश्वसा अतिव्यायाम संभवः॥

अर्थात् अधिक व्यायाम से क्षय, प्यास, अरुचि, वमन, रक्त, पित्त, चक्कर, सुस्ती, खाँसी, रोग ज्वर और श्वास रोग हो जाते हैं।

व्यायाम क्या सभी को करना चाहिए? किसे नहीं करना चाहिए इस सम्बन्ध में आयुर्वेद कहता है-

रक्तपित्ती कृशः शोषी श्वासकासक्षतातुरः। भुक्तवनस्त्रीषु च क्षीणों भ्रमार्तश्च विवर्जयेत॥

रक्त-पित्त का रोगी, कृश, शोष श्वास-कृच्छ खाँसी और उरः क्षत से पीड़ित, तुरंत भोजन किया हुआ, भोगी तथा चक्कर से पीड़ित मनुष्य को व्यायाम नहीं करना चाहिए।

योगाभ्यास शब्द को एकयुग्म की तरह से आयुर्वेद प्रयुक्त करता है। इसका अर्थ- आध्यात्मिक उन्नति का पथ-प्रशस्त करने वाली प्रक्रिया। युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव द्वारा निर्देशित प्रज्ञायोग में यौगिक व्यायाम का दोहरा लाभ है। एक ओर आसनों से शरीर बलिष्ठ और रोगरहित होता है तथा दूसरी ओर आत्मिक उन्नति भी होती है। प्रज्ञा का जागरण होता है। कुछ समय तक नियमित यौगिक व्यायाम का अभ्यास करने से मस्तिष्क की धारणशक्ति बढ़ जाती है। स्नायु तथा माँसपेशियों में बल आ जाता है। कब्ज, बहुमूत्र रोग आदि दूर होते है शरीर रोगमुक्त होकर यौवन काँति, ओज की वृद्धि और दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

प्रातः भ्रमण

दिनचर्या के क्रम में प्रातः भ्रमण को बड़ा महत्व दिया गया है। प्रातः काल का समय शारीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों के संवर्धन के लिए अत्यधिक उपयोगी है। प्रातःकालीन वातावरण उल्लास से भरा होता है। इसी समय पृथ्वी से मंद-मंद गंध, जो कि स्वास्थ्यवर्धक भी है, निकलती है। शीतल समीर शरीर को स्फूर्ति प्रदान करता है। इस अमृतमय शीतल-सुगंध समीर के स्पर्श से शरीर में बल, तेज़ व स्फूर्ति का संचार होता है, जो दिनभर ऊर्जा प्रदान करता है।

प्रातःभ्रमण करते समय गर्दन सीधी, रीढ़ की हड्डी सीधी, सीना तना हुआ, दोनों हाथ पूरी तरह हिलते रहना चाहिए। ग्रीष्म और वर्षाऋतु में शरीर पर कम-से-कम वस्त्र होने चाहिए। मुँह बंद, नाक ही से श्वास लेनी चाहिए। टहलते समय, सदैव गहरी-गहरी श्वास लेते रहना चाहिए। संभव हो तो तेज गति से दौड़ना चाहिए, इससे गहरी श्वास स्वतः चलने लगती है। टहलते समय भावना यह होनी चाहिए कि मेरे अंदर ओज, तेज़ और शक्ति का संचार हो रहा है, शरीर में संचित विकार निकल रहे है। युवाओं को दौड़ने का,वृद्ध को टहलने का क्रम अपनाना चाहिए। महात्मा गाँधी प्रतिदिन प्रार्थना के बाद टहलते थे जो कि नियमित क्रम था। महर्षि दयानंद प्रतिदिन दौड़ लगाया करते थे। प्रतिदिन भ्रमण करने वालों को कब्ज नहीं रहता तथा खुलकर भूख लगती है। जिन्हें वासनात्मक विकार अधिक आते है, उन्हें दौड़ने का नियमित क्रम अपना लेने से ऐसे विकारों का शमन होता है। टहलने का स्थान पवित्र हो तथा शुद्ध वायु हो। बाग बगीचे व पार्क को चुना जा सकता है।

जिन्हें दौड़ने का स्थान न मिले उन्हें खुला द्वार रखकर कमरे में ही अपनी जगह पर दौड़ने का कदम ताल की तरह अभ्यास करना चाहिए। यह क्रम पन्द्रह मिनट से आधे घंटे चलाया जा सकता है।

स्नान

प्रतिदिन स्नान वैदिक दिनचर्या का एक अंग माना है। स्नान करने से शरीर शुद्ध हो जाता है रोम, कूप खुल जाते है, शरीर का आलस्य तथा निद्रा दूर होकर चित्त शाँत होता है, मन में प्रसन्नता होने से उपासना, ध्यान, पढ़ाई आदि में मन लगता है। स्वाध्याय की प्रति रुचि जगती है। पाचक अग्नि तीव्र होकर क्षुधा को बढ़ाती है। वेद में जल को अमृत और जीवन का नाम दिया है।

आप इद वा उ भेषजिरापो अमिव्चातनिः। आपो विश्वस्य भेषजीस्तासत्वा मुन्चंतु क्षेत्रियात।

जल ही औषधि है, जल ही रोगों का शत्रु है।अतः सभी रोगों का नाश करता है। जल में आरोग्यता प्रदान करने की शक्ति है, जल कल्याण करने वाले है। वेदों में एक स्थान पर यहाँ तक कहा है - ष्भिशग्यो भिशक्त्रा आपः

जल औषधियों में भी परम औषधि है। जल के इस महत्त्व को समझकर जल चिकित्सा द्वारा रोगों की चिकित्सा की जाने लगी है। पाश्चात्य विद्वान भी जल के महत्त्व को अनुभव करने लगे है। जर्मनी के प्रसिद्ध डॉक्टर लुई कूवे तो केवल स्नानक्रिया से ही मनुष्य के सभी रोगों को दूर किया करते थे।

प्रतिदिन स्नान करने से बल, पुष्टि तथा स्वास्थ्य का स्वन्वार्द्धन होता है। शरीर में स्वच्छता और स्फूर्ति बनी रहती है। महर्षि चरक ने स्नान के निम्न लाभ बताये है।

पवित्रं व्रश्य्मयुश्यम श्रम स्वदेमलापहम। शरिर्बल्संधानाम स्नान्मोज्स्क्रमपरम।

स्नान करने से शरीर पवित्र होता है। यह आयुवर्द्धक है, थकावट,पसीना और मैल को दूर करता है, शारीरिक बल बढ़ाकर ओज उत्पन्न करता है। सुश्रुत के अनुसार -

स्नानामदाहश्रम्हरम स्वेद कंदुत्र्शापहम। हद्दम मल्हरम श्रेष्ठं सर्वेन्द्रियविशोधानेम॥

तन्द्रपपोप्शाम्नाम तुष्टिदम पुँसत्व वर्धनम। रक्त्प्रसदंम चापि स्नान्म्ग्नेश्च दीपनम॥

स्नान दाह, थकावट, पसीना, खुजली और प्यास को नाश करने वाला, हृदय को प्रसन्न करने वाला, मैलनाशक तथा श्रेष्ठ इन्द्री शोधक है।

तन्द्रा पाप को नष्ट करने वाला है। पौरुषवर्धक, रक्त को साफ करने वाला एवं अग्नि को प्रदीप्त करने वाला है। अधिक गरम पानी से स्नान नहीं करना चाहिए। गरमजल से नेत्रों की जोती क्षीण होती है। ठंडे जल से स्नान करने से रक्त पित्त रोग शाँत पड़ता है तथा आरोग्यता एवं बल की प्राप्त होती है। सर्वप्रथम जल सिर पर डालना चाहिए। सिर नीचा करके दो -तीन लोटे जल डालना चाहिए। ऐसा करने से मस्तिष्क की गर्मी पैरों से निकल जाती है, सिर को भिगोकर अन्य अंगों को भिगोना चाहिए। गीले खद्दर आदि वस्त्र की सहायता से शरीर को खूब रगड़ना चाहिए, इससे रोमकूप खुल जाते हैं, साबुन की स्थान पर बेसन हल्दी, सरसों के तेल का उबटन आदि सप्ताह में एक या दो बार लगाया जाये तो शरीर की अच्छी सफाई हो जाती है। स्नान के बाद शरीर को अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए।

ज्वर-अतिसार कान के रोग, नेत्ररोग, जुकाम, अजीर्ण की स्थिति में तथा भोजन के बाद स्नान नहीं करना चाहिए। यह प्रतिबन्ध सामान्य स्थिति आने पर शरीर की मालिश एवं गीले तौलिये से पोंछने तक सीमित रखा जा सकता है। लक्षण ठीक होने लगे तो स्नान औषधि की तरह उपयोगी होता है।

वस्त्रधारण

काम्ययशस्य्मयुश्य्लाक्ष्मिनाम प्रहर्षणं। श्रीमात्परिशाद्म शस्तं निम्लार्म्बधरानाम॥

अर्थात् निर्मल वस्त्र आयु को बढ़ाने वाला दरिद्रतानाशक, प्रसन्न करने वाला और श्रेष्ठ लोगों के मध्य बैठने योग्य बनाता है। सोने, बाहर निकलने तथा देवपूजन के लिए वस्त्र अलग अलग होने चाहिए। इसी प्रकार ऋतुओं की अनुसार भी वस्त्र धारण कर सके, तो स्वास्थ्य की लिए सर्वोत्तम है। ग्रीष्म काल में सूती तथा वर्षा ऋतु में स्वेतवस्त्र धारण करना उपयुक्त है। शीतकाल में मनुष्यों को रेशमी, ऊनी, लाल तथा कई रंगों वाला कपड़ा पहनना चाहिए। कषाय वस्त्र मेधा के लिए हितकारी, शीतल, पित्तनाशक होता है, अतः यह ग्रीष्मकाल में पहनना चाहिए। सफेद वस्त्र सुखदाई, शीत और धूप को रोकने वाला और न अधिक उष्ण न अधिक शीतल होता है इसे वर्षा ऋतु में धारण करना चाहिए। किसी दूसरे का धारण किया हुआ, पुराना मैला, व अत्यंत गहरे चटकीले रंगों वाला कपड़ा नहीं पहनना चाहिए।

सफेद वस्त्र पहनने से व्यक्तित्व वजनदार बनता है। भड़कीले चटक भटक वाले वस्त्रों को पहनने से व्यक्तित्व में हल्कापन आता है। कपड़े, स्वयं ही धोने का अभ्यास करना चाहिए। इससे शरीर का व्यायाम होता है, साथ ही शुद्धता की दृष्टि से भी सही है।


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