अखंड ज्योति के पृष्ठों से झाँकता युगदृष्टा का चिंतन

May 1999

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एकरस, एकनिष्ठ भाव से अपने मार्ग पर चलते हुए एक लम्बी मंजिल हम पूरी कर चुके। विराम का अवसर आया तो यह उत्कंठा तीव्र हो चली कि हमारा परिवार घटियास्तर का जीवन यापन करने का कलंक न ओढ़े रहे। प्रकारांतर से यह लांछन अपने ऊपर भी आता है। हम किस बूते पर अपना सिर गर्व से ऊँचा कर सकेंगे और किस मुख से यह कह सकेंगे कि अपने पीछे कुछ ऐसा छोड़कर आए, जिसे देखकर लोग उसके संचालक का अनुमान लगा सके। ईश्वर की महान कृतियों को देखकर ही उसकी गरिमा का अनुमान लगाया जाता है। हमारा कर्तव्य पोला था या ठोस, यह अनुमान उन लोगों को परख करके लगाया जाएगा, जो हमारे श्रद्धालु एवं अनुयायी कहे जाते है। यदि वे वाचालता भर के प्रशंसक और दंडवत-प्रणाम भर के श्रद्धालु रहे तो माना जाएगा कि सब पोला रहा। असलियत कर्म में सन्निहित है। वास्तविकता की परख क्रिया से होती है। यदि अपने परिवार की क्रियापद्धति का स्तर दूसरे अन्य नरपशुओं जैसा बना रहा, तो हमें स्वयं अपने श्रम और विश्वास की निरर्थकता पर कष्ट होगा और लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना पड़ेगा। यह अवसर न आए, इसलिए हम इन दिनों बहुत जोर देकर अपने उद्बोधन का स्वर तीखा करते चले जा रहे है और गतिविधियों में गर्मी ला रहे है ताकि यदि कुछ सजीव लोग अपने साथियों में हो रहे हो, तो आगे आए और मृत-मूर्छित अपनी माँद में जाकर चुपचाप पड़ जाए। 'बात बहुत-काम कुछ नहीं' वाली विडम्बना का तो अब अंत होना ही चाहिए।

युगनिर्माण आन्दोलन एक संस्था नहीं, दिशा है। अनेक काम लेकर इस प्रयोजन के लिए अनेक संगठनों तथा प्रक्रियाओं का उदय होगा। भावी परिवर्तन का श्रेय युगनिर्माण आन्दोलन को मिले, यह आवश्यक नहीं। अनेक नाम रूप हो सकते है और होंगे। इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मूल प्रयोजन विवेकशीलता की प्रतिष्ठापना और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन से है, सो हर देश, हर समाज, हर धर्म और क्षेत्र में इन तत्वों का समावेश करने के लिए अभिनव नेतृत्व का उदय होना आवश्यक है।

सार्वजनिक क्षेत्र में धन, पद और यश के लोभी सिंह की खाल ओढ़े श्रृंगाल भर विचरण कर रहे हैं। सच्ची लगन के थोड़े- से भी कर्मवीर क्षेत्र में रहे होते तो विश्व का कायाकल्प हो सकना कठिन रह जाता। इसी अभाव की पूर्ति करने के लिए हम अपने भीतर प्रचंड दावानल उत्पन्न करेंगे, जिनकी ऊष्मा से जंगल-के-जंगल वृक्ष-के-वृक्ष जलते दिखाई पड़े और लोकनिर्माण के जिन साहसी सैनिकों का आज अभाव दिखाई दे रहा है, उसकी कमी भी पूरी की जा सके। अगले दिन बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति के त्रिवेणी किस तरह उद्भूत होती है, उसे लोग आश्चर्य भरी आँखों से देखेंगे। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना है, जो असंभव को संभव बना दे, नरक को स्वर्ग में परिणित कर दे, हमारे ज्वलंत जीवन कर्म का अंतिम चमत्कार होगा। अब तक के जिन छिटपुट कामों को देखकर लोग हमें सिद्धपुरुष कहने लगे है, उन्हें अगले दिनों के परोक्ष कर्तृत्व का लेखा-जोखा यदि सूझ पड़े तो वे इससे भी आगे बढ़कर न जाने क्या-क्या कह सकते है।

हमारे दिमाग में गाँधी जी के सत्याग्रह, मजदूरों का घेराव और कम्युनिस्टों की सांस्कृतिक क्रान्ति के कड़वे-मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी समग्र योजना है, जिससे अराजकता भी न फैले और अवांछनीय तत्वों को बदलने के लिए विवश किया जा सके। उसके लिए जहाँ स्थानीय, व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों के क्रम चलेंगे, वहाँ स्वयंसेवकों की एक विशाल युगसेना का गठन भी करना होगा, जो बड़े-से -बड़ा त्याग-बलिदान करके अनौचित्य से करारी टक्कर ले सके। भावी महाभारत इसी प्रकार का होगा। यह सेनाओं से नहीं, महामानवों, लोकसेवियों के द्वारा लड़ा जाएगा। सतयुग आने से पूर्व ऐसा महाभारत अनिवार्य है। अवतारों की श्रृंखला सृजन के साथ-साथ संघर्ष की योजना भी साथ लाई है, युगनिर्माण की लालमशाल का निष्कलंक अवतार अगले दिनों इसी भूमिका का सम्पादन करे, तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युगनिर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जाएगी। निस्संदेह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि-व्यवस्था काम कर रही है। हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है और न निरस्त। हमारे चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं, हजार-लाख गुना विकसित होगा।


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