गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्त्रीय

May 1999

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अपने जीवन काल में ही परमपूज्य गुरुदेव ने गीता विश्वकोश पर कार्य आरम्भ कर दिया था। अपने अस्सी वर्ष के जीवनकाल में वजन से भी पाँच गुना अधिक साहित्य लिखने वाले परमपूज्य गुरुदेव की आकांक्षा यह थी कि कार्य सतत् चलता रहे एवं श्रीमद्भागवतगीता को योगानुकुल परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का पुरुषार्थ संपन्न हो। ब्रह्मवर्चस द्वारा यह कार्य जारी है। उसी कड़ी में शाँतिकुँज में पिछले दिनों-गीता गुरुसत्ता द्वारा किये गए सूत्रों में परिप्रेक्ष्य में विषय पर अक्टूबर १८ से जनवरी ११ तक व्याख्यानमाला चली। बीच में २ माह के अंतराल के विराम के बाद वह अब पुनः आरम्भ हुई है। इसमें सदियों से जन-जन के लिए प्रेरणा का स्रोत रही गीता के महात्म्य से लेकर प्रथम दस अध्यायों पर प्रकाश डाला गया है। इस लेख माला के माध्यम से हम गुरुसत्ता के चिंतन एवं श्रीमद्भागवतगीता का मर्म इन दो विषयों को गुंथकर व्याख्यापरक शैली में प्रतिमाह इसे प्रस्तुत करेंगे। यह क्रम अठारह अध्याय की टीका समाप्त होने तक चलता रहेगा। इससे आज के युगसंधि काल में युगगीता का हम सबके लिए क्या मार्गदर्शन है, कैसे विभिन्न उदाहरणों के द्वारा गीता कि गूढ़ विवेचनाओं को आत्मसात् का जीवन में उतारा जा सकता है, इस पर व्यवहारिक आध्यात्म की भाषा में सन्देश पाठकों को प्राप्त होगा। प्रथम कड़ी में हम गीता माहात्म्य प्रसंग ले रहे है।

श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में जो माहात्म्यपरक वंदना आती है, वही से इसका शुभारम्भ होता है। भगवान् श्री कृष्ण देवयान व्यास के मुख से निकला स्तुति का वाक्य है-

गीता सुगीता कर्तव्य किमन्येः शाश्त्रविश्त्रीय। या स्वयं पदमनाभस्य मुख-पधाद्वीनी स्रतता॥

अर्थात् जिसका गायन किया जा सके, ऐसा सुन्दर काव्य है गीता गायन व मनन करने के बाद हमें अन्य शास्त्रों के विस्तार में जाने की क्या आवश्यकता है। यह तो स्वयं पद्मनाभ भगवान विष्णु के मुखारविंद से निकली है, ऐसे में इसका महात्म्य जितना बताया जाये कम है। जब हम इस पद को समझने का प्रयास करते है, तो ज्ञात होता है कि यह मात्र गीता का पाठ नहीं- अर्थ एवं भावसहित उसे अन्तः करण में धारण कर लेना- मनन करना है गीता एक दर्शन है, जीवन संजीवनी है। इसे पौराणिक ढंग से मात्र श्लोकों के पाठ तक सीमित ना रख कर इसे भगवान की वाणी समझते हुए आत्मसात् करने का प्रयास किया जाना चाहिए, यह दैनंदिन जीवन में कार्य करने की शैली में अभिव्यक्त होना चाहिए, तभी गीता पाठ का महत्त्व है। इसी श्रीमद्भगवद्गीता महात्म्य प्रकरण में आगे आता है-

र्ष्सवोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सुधिभोक्ता दुग्ध गीतामृतं महत॥

अर्थात् समस्त उपनिषद् गायों के सामान है। उन गौमाताओं को दुहने का कार्य भगवान् कृष्ण- गोपालनंदन ने किया है। पार्थ अर्जुन( प्रथा के पुत्र होने के नाते) बछड़े के सामान इस ज्ञानरूपी दग्धामृत को पीने वाले के रूप में इसमें विद्यमान है। सारे उपनिषदों का निचोड़ गीता में है। योगीराज के रूप में स्वयं भगवान ने उस अमृत को इस काव्य के अठारह अध्यायों के सात सौ दस श्लोकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यही इस ग्रन्थ के अति महत्वपूर्ण एवं वैशिष्ट्यपूर्ण स्थान का परिचायक है। अदालत में शपथ ली जाती है तो गीता की। इस कारण गीता को हिन्दूधर्म का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना गया है। मुस्लिम कुरान की, ईसाई बाइबिल की शपथ लेते है, तो उन्हीं के समक्ष स्थान हिन्दू धर्म में गीता को दिया गया है। सभी ज्ञानीजनों ने गीता को ही हिन्दूधर्म का प्रतिनिधि ग्रन्थ मान कर कहा कि कसम गीता की ली जानी चाहिए। इसी से ग्रन्थ के महात्म्य का परिचय मिलता है। वेदों- उपनिषदों सबका सार-निचोड़ यदि कही एक स्थान पर है, तो वह गीता में है। प्रस्थान-त्रयी के अंतर्गत ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के बाद श्रीमद्भगवद्गीता को लिया गया है। तीनों ही ग्रन्थ भारतीय अध्यात्म के आधारभूत ग्रन्थ है एवं इस पथ पर अरुण होने वाले के लिए विशेष स्थान रखते है।

भगवान श्री कृष्ण के रूप में एवं द्वैपायन व्यास के रूप में चौबीस अवतारों में से दो अवतार द्वापर योग में हुए। दोनों ही गीता से जुड़े हुए है। श्री कृष्ण ने गीता कही -श्रीव्यास ने उसे काव्यात्मक रूप दिया-उसे लिखा। दोनों ही विष्णु के अवतार है। श्री व्यास जी द्वारा ही महाभारत ग्रन्थ भी लिखा गया है, जिसका एक अंग गीता जी को माना जाता है। महाभारत में अट्ठारह पूर्व है, जिनमें पूर्वार्ध में ६ पूर्व है एवं उत्तरार्ध में बारह पूर्व। इस वर्णन में सात अक्षौहिणी सेना एक तरफ थी, ग्यारह अक्षौहिणी सेना दूसरी तरफ एवं दोनों के बीच महासमर का महाकाव्य है, महाभारत इसी में कही गयी है। गीता ऋषि-मुनियों ने जितना कुछ तत्वज्ञान दिया है आरण्यकों-गिरिगुहा-कंदराओं में दिए हैं, किन्तु गीता जैसा तत्वज्ञान युद्ध के मैदान में दो सेनाओं के बीच खड़े होकर दिया गया है। यही इस ग्रन्थ की विशिष्टता है। गीता में भी महाभारत के अट्ठारह अध्याय है, जिन्हें छह -छह अध्याय के तीन खंडों में बाटा जा सकता है। पहले छह अध्याय कर्मयोग पर आधारित है, सातवें से बारहवें तक के अध्याय में भक्तियोग पर बड़ा मार्मिक विवेचना है तथा अन्तिम छह अध्याय ज्ञानयोग की पराकाष्ठा तक ले जाकर अर्जुन को स्वधर्म की, युगधर्म की महत्ता बताते हुए उसके समर्पण पर समाप्त होते है। यों कर्म-भक्ति-ज्ञान की त्रिवेणी पूरी गीता में स्थान-स्थान पर गुथी देखी जा सकती है, पर पूरे अध्याय का रुझान जिस दिशा में है, वह इसी विभाजनक्रम के अनुसार निर्वाह कर कहा गया है।

ग्रन्थ में ग्रंथकार की महिमा जुड़ने से उसकी विशिष्टता स्थापित होती है ग्रन्थकार वह होता है, जो जन्म देता है ग्रन्थ को। माँ आत्मसात् करती है- सारी शक्ति को एवं उसे अपने बालक के रूप में, एक अद्भुत कृति के रूप में जन्म के समय जागती को देती है। गीता में जो कुछ है, वह भगवान् कृष्ण ने योगस्थः हो आत्मसात् कर अर्जुन को कहा है। इसलिये हमें भगवान् कृष्ण के साथ गीता को जोड़ कर- माँ के साथ उसकी रचना को जोड़कर समझना होगा, तभी हम श्रीमद्भगवद्गीता का मर्म आत्मघात कर सकेंगे। विनोबा गीता को गीताई कहा करते थे। महाराष्ट्र में माँ को आई कहते है-अर्थात् -गीता माँ। हर कष्ट-हर दुःख के लिए गीताई की शरण में जाओ, यह विनोबा का कथन था। गाँधी जी कहते थे कि गीता मेरी माँ के समान है, जब मुझे समस्याएं सताती है, मैं अपनी माँ कि गोद में चला जाता हूँ, मुझे सारे हल मिल जाते है। इसलिए यहाँ बार-बार गीता के साथ रचना को जन्म देने वाले उनके ग्रंथकार वक्ता योगीराज श्रीकृष्ण को समझने की बात कही जा रही है उन्हें समझे बिना गीता नहीं समझी जा सकती।

ग्रंथकार योग के उपदेषता श्रीकृष्ण जगद्गुरु है उनके बारे में कहा जाता है-

वसुदेवसुत देव कंसचार्णुमर्दनम। देवकीपरमानन्दम कृष्ण वन्दे जगद्गुरु॥

श्री कृष्ण सारे जगद के गुरु हैं। यह इसलिए कि वे युग कि समस्याओं का हल करने का एक विराट संकल्प लेकर आये थे। ये समस्याएं अनेक तरह की थी- शास्त्रीय, जातिभाव, धर्मगत, प्रकृति, जगद सम्बन्धी- इन सभी के लिए उन्होंने कहा- संभवामि युगे-युगे धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ। हर युग में अवतार की आवश्यकता पड़ती है। भगवान कृष्ण यही कार्य करने के लिए अपने युग में जगद्गुरु बनकर आये। यह शब्द ओर किसी अवतार के साथ प्रयुक्त नहीं हुआ है, मात्र श्री कृष्ण के लिए, जो महायोगी शब्द से भी, योगीराज शब्द से भी संबोधित किये गए है। यही श्रीकृष्ण की गीता के साथ जुड़कर विशिष्टता झलकती है।

परमपूज्य गुरुदेव ने अगस्त, ११६१ की अखंड ज्योति में अवतारों की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- अवतार की प्रक्रिया एक ही है- जनमानस में अवांछनीयता के प्रति विद्रोह यही अवतार का वास्तविक स्वरूप है। आगे उन्होंने लिखा है-ईश्वरीय शक्तियां ही एक विचारप्रवाह एवं कार्यप्रवाह के रूप में अवतरित होती है एवं तत्कालीन समाज की समस्याओं का समाधान करती है। जगद्गुरु स्तर की अवतारीचेतना लेकर परम पूज्य गुरुदेव भी इस धरती पर आये। उन्होंने केवल ज्ञान-कर्म-भक्ति-नीति का ही उपदेश नहीं दिया, उपासना के अनेकानेक आयाम खोले- उसे युग धर्म से जोड़कर आराधना का, विश्वब्रह्मांड की सेवासाधना का विराट रूप दे दिया। विचार क्राँति के माध्यम से आसुरी चिंतन को निरस्त करने हेतु एक व्यापक ज्ञानयज्ञ उन्होंने रचा। सबसे बड़ी बात गायत्री व यज्ञ को एक सीमित दायरे से निकलकर उसे जनसुलभ बना दिया। यह अवतारी स्तर की जगद्गुरु स्तर की चेतना ही कर सकती है। पूज्यवर कहते है -हर अवतार ने अपने समय की विकृतियों के समाधान का नेतृत्व अवश्य किया, पर उनके पीछे वस्तुतः अपार जनशक्ति थी। जनशक्ति ही वह चंडी है जो असुरता का समग्र वध करने में समर्थ है। यहाँ उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द असुरता का समग्र वध पर ध्यान देना जरूरी है। समग्र नहीं करेंगे, आँशिक वध करेंगे, तो असुरता पुनः जीवित हो हावी होने लगेगी इसलिए असुरता आमूलचूल नष्ट हो जानी चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने भी लालमशाल के प्रतीक के नीचे एक विराट जनमेदिनी खड़ी की एवं उसके द्वारा समग्र क्राँति की रूपरेखा स्पष्ट कर नवयुग की सम्भावना को विचार युद्ध रूपी महाभारत के माध्यम से साकार किये जाने की बात कही है। अगस्त, १९६९ की अखंड ज्योति का पूरा अंक विचार क्राँति अंक है। उसमें वे लिखते है-इन दिनों पार्थ सारथी की बेचैनी स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। अर्जुन को संतृप्त और विकल देख कर उसे कितनी बेचैनी है। यहाँ हम यदि इन वाक्यों को समझ सके, तो पार्थ सारथी-पार्थ के सारथी श्रीकृष्ण परमपूज्य गुरुदेव है एवं अर्जुन हम सभी प्रज्ञापरिजन, जिन्हें विकल-संतृप्त क्षुद्रस्तर का जीवन जीते देख उन्हें कितनी व्यथा हो रही है, यह समझा जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में हमें गुरुदेव और गीता के उनके सन्देश को समझना चाहिए।

जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने यह जो गीता कही है-उसे भगवद्गीता कहा गया है। इसलिए सारी गीता में जब उनके बोलने का प्रकरण आता है- श्री भगवान उवाच। कही भी श्री कृष्ण-वासुदेव ऐसा उल्लेख नहीं है। यही सन्देश है, जो महाभारत के महासमर में योगस्थः होकर भगवान के भाव से परमात्मचेतना में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने अर्जुन को दिया। इसलिए इसे भगवद्गीता कहा गया है। यों भगवान् श्री कृष्ण ने अनुगीता, पाँडवगीता व उद्धवगीता नाम से नहीं संबोधित हुए। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि महाभारत युद्ध में गीता उपदेश से मेरे विकल चित्त को बड़ी शाँति मिली, अब चूँकि युद्ध समाप्त हो गया है-मैं उस समय युद्धभूमि में होने के कारण पूरी तरह समझ नहीं पाया था, पुनः उस उपदेश को सुनना चाहता हूँ। तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को अनुगीता सुनाई। पाँडवगीता में पाँडवों को स्वर्गारोहण के पूर्व उपदेश दिया गया एवं उद्धव गीता जो श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्द का एक भाग है, श्री कृष्ण द्वारा उद्धव को सुनाई गयी। उन तीनों में ही श्री कृष्ण का भाव सुनाने वाले का है। किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता में परमात्मचेतना का है अतः वह और अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बन गया है।

परमपूज्य गुरुदेव ने भी जीवन भर लिखा, जो भी कुछ अखंड ज्योति के माध्यम से हमें कह गए, वह योगस्थः होकर परमात्मचेतना में प्रतिष्ठित होकर लिखे इसलिए उनके लिखे प्रत्येक वाक्य जो वाङ्मय में है, अखंड ज्योति में है। आज के युग की गीता के सामान है। गुरुदेव कहते भी थे कि हम नहीं लिखते -हमारे ऊपर भगवान्-दैवी चेतना उतरती है एवं वही लिखती है।

ऊपर कहा गया कि 'कृष्ण वन्दे जगद्गुरुम्' आज जब इतने जगत गुरु है -महामंडलेश्वर है, तब श्री कृष्ण को वह दर्जा देने की क्या जरूरत है, जो आज सामान्य-सा हो गया है। हर कोई स्वानामधन्य जगद गुरु बन बैठा है। जगत गुरु वस्तुतः वही बन सकता है, जो जगत की समस्याओं का समाधान करे, अपने समय की समस्याओं का हल जो आचरण-तप-क्रिया से अपनी आध्यात्मिक शक्ति से प्रस्तुत करे, औरों के लिए नमूना बने- वही जगद्गुरु संबोधन पा सकता है। श्री कृष्ण ने बाल्यकाल में बकासुर-पूतना वध से लेकर गोवर्धन खड़ाकर, ग्वाल-बालों की रक्षा-संदीपनि मुनियों के पुत्रों की मुक्ति दिलाने से लेकर कंस -चाणूर का मर्दन किया। जीवन भर यही लीलाएँ करते रहे। समाज में अवाञ्छनीय तत्व न बढ़ने पाए, उनसे रक्षा की जानी चाहिए, यही उनका लक्ष्य रहा। उनके स्तर का महापुरुष ही था, जो राजसुयज्ञ में अपने मनपसंद के काम में अतिथियों के चरण धोने-जूठी पत्तल का कार्य अपने कंधों पर लेकर अहंकार को गलाने का शिक्षण दे गया। ऐसे में अग्रपूजा का प्रकरण आता है, तो भीष्म पितामह, वासुदेव, श्री कृष्ण का ही नाम लेते हैं। कर्मयोगी श्री कृष्ण ही जगदपुरुष बन सकते है, हर कोई नहीं।

भगवान श्री कृष्ण कि एक दूसरी विशेषता जो गीता में झलकती है-वह है उनका भक्त वत्सल होना। भगवान बार-बार गीता में कहते है-

ष्मामेकं शरणं वज्र ष्न में भक्तः प्रणश्यति एवं मध्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्धभक्तः स में प्रियः।

मेरे भक्त की मैं ही रक्षा करता हूँ। महाभारत युद्ध के बाद की बात है युधिष्ठिर प्रतीक्षा करते रहे। बाहर आने पर पूछा- भगवान आप तो स्वयं परमात्मा हैं, आपको ध्यान करने की आवश्यकता? वे बोले-मैं अपने भक्त भीष्मपितामह का ध्यान कर रहा था वे इस समय शर-शैया पर पड़े हैं। विवश होकर नीति से बंधे होने के कारण उन्होंने अर्जुन-भीष्म भी विवशता की स्थिति में लड़े थे, किन्तु अन्दर से उनकी अनुरक्ति श्रीकृष्ण के परमात्मभाव के प्रति थी। वे भी शर-शैया पर लेटे उन्हीं का ध्यान कर अपना कष्ट दूर कर रहे थे। कितनी विलक्षण बात है भक्त भगवान ध्यान कर रहे हैं एवं भगवान् भक्त का। जो अपनी भावनाएँ भगवान को देता है, भगवान उस भक्त का खुद दास बन जाता है और सतत् उनको स्मरण करता रहता है, उनकी रक्षा करता रहता है। परमपूज्य गुरुदेव भी प्रेम के महासागर थे। जिस कक्ष में आज पूज्य गुरुदेव का निवास है, उनके पीछे गौशाला है। जब भी गाय को और बछड़े को अलग अलग बाड़े में देखते थे और यह पाते थे कि माँ व्याकुल है उसे पास नहीं आने दिया जा रहा, तो वेदना से उनकी आँखों में आँसू आ जाते थे। अपनी अखण्ड ज्योति में वे लिखते हैं कि बछड़े से बिछुड़ी गाय की उदासी, म्लान और व्यथा-वेदना जिन्होंने देखी हैं, उन्हें यह अनुमान लगाने की कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि गाय से अधिक भावनासंपन्न और मुहब्बत भरे प्राणी, इस मानव की क्या दशा हो सकती है। वीतराग, परमहंस, स्थितप्रज्ञ, समदर्शी होने का हमने कभी दावा नहीं किया। हमारी विशेषता रही है तो वह है - ममता, आत्मीयता स्नेह और सद्भावना का अंश दूसरों से कुछ अधिक होना। यही बढ़ा हुआ अंश हमें रुला देता है पोषण हृदयों और परमहंसों को ऐसी व्यथा में सहेज बने रहने का लाभ भी मिल जाता है, किन्तु काबू में जिसका दिल न हो वह गरीब क्या करे। यह प्रेम -आत्मीयता भक्तवत्सल परम पूज्य गुरुदेव को भी कृष्ण के समक्ष स्थापित करती है।

महाभारत के पश्चात पाँडवों को तत्वज्ञान का, राजधर्म का उपदेश दिलाने के लिए श्रीकृष्ण पाँडवों के साथ शर-शैया पर घायल लेटे भीष्मपितामह के पास पहुँचे। भीष्म बोले -आपसे अच्छा उपदेशक कौन हो सकता है प्रभु? आप मुझे श्रेय देना चाहते है। यह में समझ रहा हूँ किन्तु शरीर घायल है मन स्थिर नहीं है। भगवान कृष्ण ने भीष्म के सिर पर हाथ फिराकर कहा कि अब आपको योगस्थः कर दिया है जरा भी वेदना नहीं होगी। भीष्म ने जो उपदेश दिया, इसके बाद वह पूरा पर्व महाभारत का शांतिपर्व कहलाता है, ऐसी कृपा करते है, भक्तवत्सल भगवान अपने शिष्य पर। भगवान कृष्ण के जीवन के विस्तार अनंत है, अतिव्यापक है। प्राफेट द किंगमेकर नाम से स्वामी श्री राम -कृष्णानंद महाराज (स्वामी विवेकानंद के साथी -शशिमहाराज ) ने एक पुस्तक लिखी है, जिसमें कृष्ण के जीवन के अनेक पक्षों का विवरण है राजाओं को सिंहासन पर आरूढ़ करने वाला स्वयं कभी राजा न बनने वाला अवतार श्रीकृष्ण का ही है। भगवान गीता में कहते है - जन्मकर्म च दिव्यम मेरे जन्म व कर्म दोनों ही अति पावन व अलौकिक है यह सारे पक्ष उनकी बाललीला से लेकर अधमोद्धारक रूप तक, भक्तवत्सल वाले यशोदा गोपियों व ग्वाल -बाल से प्रेम वाले रूप तक दिखाई पड़ते है कुछ ऐसा ही विलक्षण परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में भी मिलता है।

भगवान कृष्ण ने जहाँ जहाँ गुण देखे है, उनका सम्मान किया है, उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहे कर्ण की दुर्योधन के प्रति मित्रता देखकर उसकी प्रशंसा की, युद्ध के मैदान में कर्ण का युद्ध -कौशल देखकर भी उसकी तारीफ की, यह विशेषता भगवान स्तर की सत्ता में ही हो सकती है। भगवान महाभारत में सारथी बने, सारथी का अर्थ है - अपने मन की डोर भगवान के हाथों सौंप दे। इनका एक नाम है ऋषिकेश ऋषिक व अर्थात् इंद्रियों, ईश अर्थात् स्वामी-इन्द्रियों का, अंतः करण का स्वामी। यदि हम इस रूप में उन्हें प्रतिष्ठित कर ले, उन्हें जीवन -नैया का सारथी बना ले तो कही कोई कठिनाई नहीं होगी, किन्तु इसके लिए हमें अर्जुन बनना पड़ेगा। रिजु-न शब्द से अर्जुन शब्द बना है अर्थात् जो टेढ़ा नहीं सीधा सरल है -संदेह है तो स्पष्ट कहता है, नहीं समझ में आता तो कह बैठता है कि मैं शिष्यभाव से आपकी शरण में आया हूँ, मुझे कर्तव्य समझाइये।

(शिष्यस्तेअहं शाधि माँ त्वम प्रपन्नम )

जब यह भाव मन में आकर व्यवहार में उतरने लगता है, तो भगवान का गीता सन्देश आरम्भ हो जाता है। शरणागति समर्पण यही गीता का मर्म है। अहंकार का, कर्मों के फल का, कर्म-आशक्ति का समर्पण त्याग ही बार बार भगवान ने अर्जुन को समझाया है व हम सबके लिए आत्मसात् करने योग्य है। जब तक हम भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व को नहीं समझते, हम उनके इस अश्वासन को आत्मसात् नहीं कर सकते कि वे बार -बार आयेंगे (संभवामि युगे -युगे )। आज का महाभारत इस युग के महाभारत से भी बड़ा है। तब देश देशांतर के, भारतवर्ष के लोग इसमें सम्मिलित थे। आज दो विश्वयुद्ध हो चुकने के बाद तीसरे की कगार पर सारा विश्व खड़ा है। श्री कृष्ण इसलिए आज भी सामयिक है, गीता आज भी युगानुकूल है। परमपूज्य गुरुदेव के दिए हुए सूत्र जीवन-सम्बन्धी निर्देश श्रीमद्भागवतगीता के ही पार वर्धित संस्करण है। हमें इसलिए गीता विश्वकोष की विराट व्याख्या के पूर्व भगवान श्री कृष्ण रेन परम पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व एवं कर्तव्य को जीवन के हर पक्ष को समझना होगा। यदि हम अर्जुन बन सके, तो गीता हमारे रोम रोम में श्वास श्वास में से बोलेगी।


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