निराकार ने लिया साकार रूप

May 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

और फिर बाबा नानक विचारते हुए हसन अबदाल के जंगल में जा निकले। गर्मी बहुत थी। चिलचिलाती हुई धूप, चारों ओर सुनसान, पत्थर-ही-पत्थर रेत-ही रेत, झुलसी झाड़ियाँ, सूखे वृक्ष, दूर-दूर तक कोई भी जीव-प्राणी नजर तक नहीं आता था।

बाबा नानक अपने ध्यान में मस्त चले जा रहे थे कि उनके शिष्य मर्दाना को प्यास लगी, किन्तु पानी वहाँ कहाँ? बाबा नानक ने कहा- मरदाने! संतोष कर, अगले गाँव में पेट भर पानी पी लेना। पर मरदाने को तो तेज प्यास लगी थी, बाबा नानक यह जानकार चिंतित हुए। इस जंगल में तो दूर-दूर तक पानी नहीं था और मरदाना अड़ जाता तो सब के लिए कठिनाई पेश कर देता था। बाबा ने फिर समझाया- मरदाने! यहाँ पानी कही भी नहीं, तुम सब्र करो ईश्वर को याद करो। पर मरदाना तो वही

बैठ गया। एक कदम भी आगे नहीं चल सकता था। गुरुनानक मरदाने की जिद्द पर मुसकराते हुए हैरान थे। अंततः जब नानक ने उसे मानते हुए न देखा, तो वे ध्यानमग्न हो गए काफी देर बाद जब गुरुनानक की आंखें खुली - तो उन्होंने देखा की मरदाना मछली की तरह तड़फ रहा था। सतगुरु उसे देख कर हल्के से पुनः मुस्कराए और कहने लगे - भाई मरदाने! इस पहाड़ी पर एक कुटिया है, जिसमें वली कंधारी नाम का एक दरवेश रहता है। यदि तुम उसके पास जाओ तो तुम्हें पानी मिल सकता है इस इलाके में मात्र वही कुआं पानी से भरा है। अन्यत्र कही भी पानी नहीं है।

मरदाने को जोरों से प्यास लगी थी। नानक की बात सुनते ही वह तेजी से पहाड़ों की ओर बढ़ने लगा, वहाँ पहुँचा तो वली कंधारी ने पूछा, हे भले आदमी! तुम कहाँ से आये हो? मरदाने ने कहा - मैं नानक पीर का साथी हूँ। हम घूमते घूमते इधर आ निकले है मुझे तीव्र प्यास लगी हुई है और होठों पर पानी नहीं। बाबा नानक का सुनकर वली कंधारी क्रोधित हुआ और मरदाने को उसने वैसा-का-वैसा कुटिया से बहार निकल दिया। थका-हारा परेशान मरदाना नीचे आकर नानक से फरियाद करने लगा।

बाबा नानक ने उससे सारी कथा व्याख्या सुनी और मुस्करा कर बोले -मरदाने तुम बार फिर जाओ। नानक ने मरदाने को परामर्श दिया, इस बार तुम नम्रता से आस्थावान् होकर जाओ। कहना, मैं नानक दरवेश का साथी हूँ, मरदाने को प्यास बहुत सता रही थी। पानी अन्यत्र कही था नहीं। खीजता -कुढ़ता, शिकायत करता मरदाना पुनः वहां जा पहुँचा। किन्तु वली कंधारी ने फिर भी पानी नहीं दिया। मैं एक काफ़िर के साथी को पानी का घूँट भी नहीं दूँगा। वली कंधारी ने मरदाने को फिर ज्यों-का-त्यों लौटा दिया। जब मरदाना इस बार नीचे आया तो उसका बुरा हाल था उसके होठों पर पपड़ी जमी थी। मुँह पर हवाईयां उड़ रही थी। यो लगता था कि मरदाना घड़ी - पल का ही मेहमान है। बाबा नानक ने सारी बात सुनी और मरदाने को पुनः एक बार वली के पास जाने को कहा। आज्ञाकारी मरदाना चल पड़ा, किन्तु वह जानता था उसके प्राण इस बार रास्ते में ही निकल जायेंगे। जैसे-तैसे वह फिर से एक बार पहाड़ी की चोटी पर, वली कंधारी के चरणों में जा टिका। किन्तु क्रोध में जलते फकीर ने इस बार भी उसकी विनती ठुकरा दी। वहां गुस्से में कहने लगा - नानक अपने आपको पीर कहलाता है, तो अपने मुरीद को एक घुट पानी भी नहीं पिला सकता? वली कंधारी ने ऐसी लाखों खरी - खोटी मरदाने को सुनायी।

मरदाना इस बार जब नीचे पहुँचा, तब प्यास से निहाल वहां बाबा नानक के चरणों में बेहोश हो गया। गुरुनानक ने मरदाने की पीठ थपथपाई, उसे साहस दिया तो मरदाने ने आंखें खोली। बाबा ने उस सामने से एक पत्थर उखाड़ा तो नीचे से पानी का स्रोत बह निकला। चारों ओर पानी-ही पानी हो गया।उधर वली कंधारी को पानी की जरूरत पड़ी। कुएं में कुओं झाँका तो पाया की पानी की एक बूँद भी नहीं है। कंधारी को आश्चर्य हुआ। नीचे पहाड़ी के कदमों में स्रोत बह रहे थे। दूर-बहुत-दूर एक कीकर के नीचे कंधारी ने देखा तो बाबा नानक और मरदाना बैठे थे। क्रोधवश वली कंधारी ने चट्टान का एक टुकड़ा पूरी शक्ति से गिराया। एक पहाड़ी को अपनी और खिसकते आते देखकर मरदाना विक्षुब्ध हो उठा। बाबा नानक ने धीरज के साथ मरदाने से 'धन्न निरंकार' बोलने को कहा और जब पहाड़ी का टुकड़ा बाबा के सर तक आ गया, तब गुरुनानक ने पंजे के साथ हाथ देकर उसे रोक लिया और हसन अबदाल में इस स्थान का नाम पंजा साहिब हो गया। पहाड़ी के उस टुकड़े पर अभी तक बाबा नानक का पंजा लगा हुआ है।

पराधीन भारत में रहे किशोर वर्ष के गुरुमीत ने कई बार गुरुद्वारे में यह प्रसंग सुना था। अभी पिछले ही दिन कॉलेज में उसे यही साखी सुनायी गयी थी और आज उसने पंजा साहिब के बारे में यह अचरज भरी घटना सुनी। उसका गाँव पंजा साहिब से कोई अधिक दूर नहीं था। ज्यों ही इस घटना की खबर आयी, वह अपनी माँ के साथ पंजा साहिब की ओर चल पड़ा और जब वे पंजा साहिब पहुँचे, तो वहाँ लोगों ने गीली आँखों से इस कहानी को सुनाया।

दूर कही शहर में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों पर गोली चलाकर निहत्थों को मार गिराया था। मृतकों में युवक भी थे, वृद्ध भी थे और जो शेष रह गये उन्हें रेलगाड़ी में डालकर किसी दूसरे शहर जेल भेजा जा रहा था। कैदी भूखे-प्यासे थे और आज्ञा यह थी कि गाड़ी को रास्ते में कही न ठहराया जाये। जब पंजा साहिब यह खबर पहुँची, तो जनसमूह आक्रोश से भर उठा। बाबा नानक ने जहाँ स्वयं मरदाने की प्यास बुझाई थी, वही पंजा साहिब, वहाँ से भरी हुई प्यासे लोगों की गाड़ी निकल जाये, तड़पते भूखे-प्यासे देशभक्त निकल जाएँ, यह कैसे हो सकता है?

और फैसला हुआ गाड़ी को रोका जाये। स्टेशन−मास्टर से प्रार्थना की गयी, तार गये, किन्तु फिरंगी साहिब का हुक्म था कि गाड़ी रास्ते में कहीं नहीं रोकी जाएगी। गाड़ी में आजादी के परवाने देशभक्त हिन्दुस्तानी भूखे थे। उनके लिए पानी का कोई प्रबंध नहीं था। गाड़ी को पंजा साहिब नहीं रुकना था, पर वहां की जनता का निर्णय अटल था कि गाड़ी को जरूर रोकना है और नागरिकों ने स्टेशन पर खीर-पूड़ी के ढेर लगा दिए। किन्तु गाड़ी तो आँधी कि तरह आयेगी और तूफान की तरह निकल जाएगी इसे भला कैसे, किस तरह रोका जाये?

और गुरुमीत की माँ की सहेली ने उसे बताया कि उस जगह पटरी पर सबसे पहले वे लोग लेट गये। तदुपरान्त औरतें लेट गयी, फिर उनके बच्चे.... और तब गाड़ी आई, दूर से चीखती-चिल्लाती सीटियाँ मारती हुई। गाड़ी अभी दूर ही थी कि धीमी पड़ गयी, किन्तु रेल थी धीरे-धीरे ही ठहरती। प्रत्यक्षदर्शी महिला कह रही थी कि मैं देख रही थी कि पहिये उनकी छाती पर चढ़ गये थे, फिर उनके साथी की छाती पर... और देखने वाले देख न सके। उन्होंने आंखें बंद कर ली। जब आंखें खुली तो सिर पर गाड़ी खड़ी थी। कइयों की साथ-साथ धड़क रही, छातियों में 'धनं निरंकार' के स्वर फूट रहे थे और फिर सबके देखते-देखते लाशें टुकड़े-टुकड़े हो गई। उन्होंने अपनी आँखों से बह रही खून की नदी देखी। बहती-बहती कितनी ही दूर तक पक्के नाले के पुल तक चली गई थी। पंजा साहिब में एक बार फिर चमत्कार घटित हो गया अबकी बार भी सतगुरु की कृपा सक्रिय हुई थी, पर आत्मचेतना के रूप में नहीं लोकचेतना के रूप में। निरंकार ने साकार रूप लिया था। इस घटना ने जनचेतना को प्रबुद्ध कर दिया। बाबा नानक कहीं दूर मुस्कुरा रहे थे। उनके अन्तः स्पंदनों में यह संगीत ध्वनित हो रहा था कि अभी मेरे शिष्यों में भाव-संवेदना प्रवाहित हो रही है। मेरे शिष्य एक नहीं सैकड़ों मरदानो की भूख-प्यास को शाँत करने में समर्थ है। दिव्यलोक से सतगुरु नानक का आशीष प्रवाह झरने लगा। जनचेतना उससे सनत हो उठी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118