उन दिनों जूनागढ़ के राजा राव महिपाल सिंह थे। वे जितने साहसी थे उतने ही प्रजावत्सल। उनकी न्यायप्रियता एवं कुशल प्रशासन की ख्याति अन्य राज्यों में भी फैल चुकी थी। परन्तु समय परिवर्तनशील है। समय की यह परिवर्तनशीलता जूनागढ़ राज्य पर भी आ पहुँची और पाटन के राजा ने वहाँ आक्रमण कर किया। राव महिपाल सिंह अपने सैनिकों के साथ शत्रुसेना का सामना करने की लिए युद्ध भूमि में पहुँचे। शत्रुसेना संख्या में अधिक थी। वीरता का परिचय दिया, पर शत्रुसेना पर विजय न प्राप्त कर सके।
राजा महिपाल सिंह ही अपनी सेना के प्रधान नायक थे। उनके मरते ही सैनिकों का जोश समाप्त हो गया। बिना राजा के सेना लड़ती भी कैसे! उनका मनोबल कौन बढ़ाता? बिना नायक के वे टिक नहीं सके और भाग खड़े हुए।
शत्रुसेना विजय की पताका फहराती राव के राजमहल में गयी, वहाँ अल्पवयस्क राजकुमार नौघण और महारानी महामाया चिंतातुर बैठे थे। अकस्मात् मंत्री धर्मदेव को अपने कर्तव्य की पुकार सुनाई दी। उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर राजकुमार और महारानी को गुप्तमार्ग द्वारा महल से बाहर निकला और अपने साथ वह उन्हें लेकर गिरनार के जंगल में पहुँच गया। गिरनार के जंगलों में बसे एक छोटे से गाँव विजयपुर में उसने दोनों को एक अहीर के मकान में छिपा दिया।
अहीर का नाम रामनाथ था। वह गायो का दूध बेचकर गुजारा करता था। उसने मंत्री की चिंता दूर करते हुए प्राणपण से राजकुमार नौघण और महारानी की रक्षा करने का वचन दिया। महामंत्री निश्चिन्त होकर वहाँ से चले गए। लेकिन दुर्योग से बीच में ही वह शत्रुसेना के हाथों में फस गए। सैनिक उन्हें अपने सेनापति के पास ले गए। सेनापति ने उनसे पूछा -बताओ राजकुमार नौघण और महारानी कहाँ पर है?
महामंत्री ने बताने से इंकार कर दिया। शत्रुसेना के सेनापति ने उन्हें प्रलोभन दिए और न बताने पर मार डालने की धमकी दी, परन्तु महामंत्री अपने कर्तव्य से तनिक भी विचलित नहीं हुए। अंत में सेनापति ने उन्हें तलवार से मौत के घाट उतार दिया। महामंत्री ने हँसते हँसते मौत का आलिंगन किया, पर अपने कर्तव्य पथ से नहीं हटे।
अब जूनागढ़ पर शत्रुसेना का अधिकार हो गया था। एक दिन जूनागढ़ के सेनापति को ज्ञात हुआ कि राजकुमार नौघण और महारानी महामाया गिरनार के जंगलों में स्थित एक गाँव में किसी अहीर के यहाँ छिपे है। वह तुरंत अपने सैनिकों के साथ वहाँ गया और गाँव को घेर लिया। सेनापति ने अहीर रामनाथ को राजकुमार और महारानी को अपने सुपुर्द करने को कहा।
अहीर रामनाथ ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। सेनापति ने आदेश दिया कि अहीर को पकड़कर खम्भे से बाँध दो और उनके घर के कोने कोने को छानकर राजकुमार का पता लगाओ। रामनाथ को तुरंत अपने धर्म और वचन का स्मरण हो आया। उसके दिमाग में एक बात कंध गयी। उसने अपनी पत्नी को बुलाया और नेत्रों की भाषा में उससे कुछ कहा। जब उसे विश्वास को गया की पत्नी सब कुछ समझ गयी है और उनके मन में अपने धर्म के पति गहरे भाव है, तो उसने दहाड़ते हुए स्पष्ट शब्दों में पत्नी को आदेश दिया कि - जा देख क्या रही है राजकुमार नौघण को शीघ्र यहाँ ले आओ। चतुर अहीर की पत्नी ने न केवल पति का वास्तविक संकेत समझ लिया था अपितु, भीतर राजभक्ति की लहरे भी हिलोरे लेने लगी थी। उसने अपने इकलौते पुत्र को राजकुमार के वस्त्र पहनाकर सेनापति के समक्ष उपस्थित किया।
बलिदानी माता- पिता का बेटा भी बलिदान की भावना से ओत−प्रोत था। सेनापति के पूछने पर दस वर्षीय अहीर पुत्र ने अपना परिचय राजकुमार नौघण के रूप में दिया। निर्दयी सेनापति ने उसी क्षण माता-पिता के सामने उस वीर बालक का वध कर डाला, खून का घुट पीकर भी माता -पिता शाँत बने रहे।
किसी के नेत्रों से एक भी आँसू नहीं गिरा। ऐसा हो जाने पर सेनापति को उन पर संदेह हो सकता था।
सेनापति व उसके सैनिक अपना दुष्कर्म पूराकर चले गए, तो अहीर व उसकी पत्नी के धैर्य का बाँध टूट गया। वे दहाड़े मारकर रोने लगे। छाती से चिपटाया पुत्र का शव वे किसी भी रूप में दूर नहीं कर पा रहे थे, परन्तु वे उस बात से गर्वित थे कि उन्होंने अपने देश के राजकुमार की सत्यधर्म से रक्षा की। अहीर की पत्नी ने पन्नाधाय का उदाहरण दुहरा दिया।