ज्योतिपुञ्ज की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की। चाल नहीं चलने पायेगी, षड्यंत्री-अज्ञान की॥
सब प्रकाश-पुत्रों ने मिलकर, आगे बढ़कर थाम लिया-मिले-जुले अपने कंधों पर, 'ज्योति पुञ्ज' का काम लिया॥
सभी लगा देंगे इसके हित, बाजी अपने प्राण की। ‘ज्योति पुँज’ की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की॥
स्वार्थ भाव को त्याग सभी अब बन बैठे हैं वैरागी। सबने अपनी तुच्छ कामना और अहंता है त्यागी॥
सब मिलकर के लाज रखेंगे, ज्योति पुँज की शान की। ‘ज्योति पुँज’ की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की॥
जिस मशाल को ऋषि-युग्म ने अपना स्नेह पिलाया है। तिल–तिलकर अपने तप द्वारा, जिसको लाल बनाया है॥
उसकी शान न घटने देंगे, शपथ हमें दिनमान की। ‘ज्योति पुँज’ की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की॥
कौन अभागा हाथ? स्वार्थवश, अरे! अलग हो पायेगा। पूरा ही कारवाँ, प्यार से मिल-जुलकर समझाएगा
साथ इसी के जुड़ी हुई है, बात सभी के मान की। ‘ज्योति पुँज’ की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की॥
इस मशाल को लेकर हम सब, आगे बढ़ते जायेंगे। गुरुवर का आदेश निभाने, हर तम से टकरायेंगे॥
फिर देखो! धज्जियाँ उड़ेंगी, तम के तने वितान की। ‘ज्योति पुँज’ की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की॥
फिर से आज शपथ लेते हैं, महाकाल के सैनानी। स्वार्थ सिद्धि में नहीं फँसेंगे, नहीं करेंगे मनमानी॥
वक्रदृष्टि हो गई अगर तो, राह नहीं फिर त्राण की। ‘ज्योति पुँज’ की ही प्रतिमा है, यह मशाल सद्ज्ञान की॥
मंगल विजय ‘विजय'
*समाप्त*