लोकसेवियों को दिशाबोध-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत

July 1999

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युगतीर्थ शाँतिकुँज के माध्यम से नवसृजन अभियान को अधिक गतिशील एवं प्रभावी बनाने के क्रम में पूज्य गुरुदेव द्वारा कार्यकर्ताओं को अपने व्यक्तित्व में आवश्यक गुणों के विकास हेतु प्रेरणा दी गयी थी। उसी क्रम में उन्होंने यह निर्देश पत्रक जारी किया था।

प्रज्ञा परिजनों को आत्म कल्याण और लोकमंगल का दुहरा उत्तरदायित्व सँभालना है, इसमें उन्हें अपना व्यक्तित्व अपेक्षाकृत अधिक पवित्र, प्रखर एवं व्यवस्थित बनाना है, इसके लिए कुछ विशेष सद्गुणों को बढ़ाने के लिए अनवरत प्रयत्न करना चाहिए। जो समझना, अपनाना और बढ़ाना है वह इस प्रकार है-

(1) लक्ष्य और चिंतन

जीवन को ईश्वरप्रदत्त सर्वोपरि उपहार समझे और उसका उद्देश्य सृष्टा के विश्व-उद्यान को अधिकाधिक समुन्नत- सुसंस्कृत बनाना मानें। इस प्रयास में आत्मकल्याण और विश्व-कल्याण के दोनों उद्देश्य पूरे होते है।

बड़प्पन की महत्त्वाकाँक्षाओं को घटाएँ। महानता-प्राप्ति की उत्कंठा उभारें। वासना-तृष्णा के लोभ-मोह भवबंधनों में न जकड़े। सदुद्देश्यों के आकाश में सत्प्रवृत्तियों के पंख पसारे और जीवन-मुक्तों की तरह परमलक्ष्य की उपलब्धि के लिए उड़ चलें। पीछे मुड़कर न देखें। वर्तमान की सँभाले, भविष्य की सोचें।

ज्ञानयोगी की तरह सोचें कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें भक्तियोगी की तरह पुरुषार्थ करें, भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें और उसे पतन-पराभव के निराकरण में नियोजित रखें।

प्रातः उठते ही एक दिन का जन्म, सोते ही एक रात का मरण सोचें और अवसर के श्रेष्ठतम सदुपयोग का भाव-भरा निर्धारण करें। महाप्रज्ञा के अवतरण में सहकर्मी बनें। प्रज्ञा अभियान में सम्मिलित रहें। हर दिन गायत्री मंत्र की न्यूनतम तीन माला का जप तथा सविता की ध्यान- धारण श्रद्धापूर्वक चलाएँ, उसमें व्यतिरेक न करें।

(2) श्रमशीलता

समय ही जीवन है। जिसने समय का जितना सदुपयोग किया वह उतना ही जी लिया इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक-एक क्षण को सुनियोजित विधि-व्यवस्था में श्रम निरत रखें। आलस्य-प्रमाद को पक्के शत्रु समझें और उन्हें पास न फटकने दें। इस संबंध में अपनी अभ्यस्त आदत को स्वयं सुधारें। पैनी नजर से देखो कि काम उदास मन से उपेक्षापूर्वक, मंदगति से तो नहीं हो रहा है? समुचित तत्परता और स्फूर्ति बरती गयी या नहीं? समय श्रम और परिपूर्ण मनोयोग से ही काम का स्वरूप निखरता और प्रयोजन पूर्ण होता है।

किसी काम को छोटा न मानें। हाथ में आए काम को ठीक समय पर सही रीति से, समूची योग्यता लगाकर करने को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर चलें। खाली समय होने पर दूसरों द्वारा बताए जाने की प्रतीक्षा न करके स्वयं अपने लिए काम की तलाश करें। निजी या समीपवर्ती क्षेत्र से अव्यवस्था हटाने के रूप में वह कहीं भी प्रचुर मात्रा में मिल सकता है। प्रगति का एक ही मापदण्ड है- किसने अपने कार्यों में कितना उत्साह दिखाया और उछलकर आगे आया।

(3) सुव्यवस्था

सौंदर्य उपासक बनें। स्वच्छता, सादगी और सुरुचि का समावेश ही सौंदर्य है। अपने शरीर, वस्त्र बिस्तर, निवास एवं कार्यक्षेत्र पर इस संदर्भ में पैनी दृष्टि रखें कि कहीं गंदगी कुरूपता अस्त-व्यस्तता तो दिखाई नहीं पड़ रही है। जहाँ दीखे वहाँ फिर कभी के लिए टालने की अपेक्षा तुरंत सुधारने का प्रयत्न करें।

निजी कार्य क्षेत्र को सुंदर सुव्यवस्थित बनाने के अतिरिक्त साथियों को भी अपना मानें और उस परिकर को भी अधिक सुव्यवस्थित बनाने की बात सोचें। जो समझ में न आए, उसे विनय एवं सद्भावना पूर्वक कराए भी भूल बताने दोष लगाने व्यंग्य- उपहास करने पर तो सेवा-सहायता भी कटुता उत्पन्न करती है, यह ध्यान में रखकर ही साथियों से सुव्यवस्था में योगदान लें।

रात की जल्दी सोए प्रातः जल्दी उठें डायरी लिखें। अपने समय श्रम चिंतन धन एवं प्रभाव का समय के अनुपयोग दुरुपयोग एवं अव्यवस्था ढूँढ़े और उसे साहसपूर्वक सुधारें अभ्यस्त ढर्रे की समीक्षा करें और उसमें अधिकाधिक प्रगतिशीलता का समावेश करने के लिए प्रयत्नशील रहें।

ध्यान रखें! योजनाबद्ध काम करने प्रसंगों के हर पहलू पर विचार करने परिवर्तन सोचने जुटाने सहयोग पाने की व्यवस्था वृद्धि ही स्तर उठाती सम्मान दिलाती एवं सफल बनाती है।

(4) शिष्टता

दूसरों को सम्मान और अपना विनय-वचन व्यवहार में समन्वित रखने को शिष्टता कहते हैं। उस सत्प्रवृत्ति को अपने स्वभाव का अंग बनाए उच्छृंखलता न बरतें उसे अपनी गिरावट और दूसरों की अवहेलना द्वारा दुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाली निकृष्टता समझें। यह दोष स्वभाव में घुस गया हो तो उसे कड़ी आत्मसमीक्षा करने के लिए संकल्पपूर्वक प्रयत्न करें। अभ्यासवश जब भी ऐसे प्रसंग बन पड़ें कान पकड़ने जैसी छोटी आत्मप्रताड़ना देकर प्रायश्चित करें।

मिलन और विदाई का शिष्टाचार न भूलें। चित प्रसन्न रखें और मंद मुसकान बनाए रहने की आदत डालें। न थकान प्रकट होने दें, न उदासी। कहें कम सुने अधिक। शेखी न बघारे। मैं के स्थान पर हम लोग शब्द का प्रयोग करें चापलूसी न करें पर सज्जनोचित सद्व्यवहार में कमी न पड़ने दें आवेश उत्तेजना कर्कशता, खीज़, झल्लाहट से दूर रहें। जो कहना है, शान्तचित्त और शालीन शब्दावली में कहें। गाती गलौज तक न उतरें रोष प्रकट न करने, सुधारने दबाने के ऐसे भी तरीके हैं, जिनमें अपनी शालीनता न गँवानी पड़े। उतावली में किसी निष्कर्ष पर न पहुँचें। तथ्य समझने का प्रयत्न करें और पक्ष विपक्ष की स्थिति को समझते हुए निर्णय पर पहुँचे।

नागरिक कर्तव्यों का पालन करें। सामाजिक नीति मर्यादा का ध्यान रखें। आलोचना से बचें, व्यंग्य उपहास निंदा चुगली के दुर्गुण न अपनाएँ जहाँ सुधार की आवश्यकता है वहाँ आत्मीयता का समावेश रखते हुए हानि-लाभ के पक्ष रखो और अनुरोध युक्त सुझाव भर प्रस्तुत करें।

(5) संयमशीलता

अपनी श्रम समय चिंतन धन एवं प्रतिभा के रूप में उपलब्ध क्षमताओं का महत्व समझें और उनके सदुपयोग से प्रगति पथ पर अग्रसर होने की बात सोचें इन विभूतियों का एक कण भी बर्बाद न होने दें। अपव्यय अपने ही उज्ज्वल भविष्य का विनाश है।

इंद्रिय संयम बरतें चटोरेपन से बचें और कामुक चिंतन की हानियाँ समझें। दिनचर्या बनाए और कठोरता पूर्वक पालन करें न श्रम से जी चुराएं न समय को प्रमाद में गँवाए। स्वाध्याय की आदत डालें आत्म-निर्माण की योजना बनाने के चिंतन मनन में मन को लगाए। कुविचार आते ही उनके प्रतिपक्षी सुविचारों की सेना उनके प्रतिपक्षी सुविचारों की सेना उनसे लड़ने के लिए खड़ी कर दें। नित्य हिसाब रखें किन्तु सत्प्रयोजनों में कृपणता भी न बरतें। संग्रही न बनें पर आमदनी से खर्च कम रखें कुछ बचत करें, उधार लेने की आदत न डालें। अपने प्रभाव का ऐसा उपयोग करें, जिससे संपर्क क्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ घटे और सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण और परिपोषण उभारे। सादा जीवन उच्च विचार को हर समय ध्यान में रखें। विलासिता की मूर्खता ओर ठाट-बाट की क्षुद्रता से इसलिए बचें कि उनसे अपना व्यक्तित्व गिरता है और अनुकरण करने वालों का पतन होता है।

अभ्यस्त कुसंस्कारों को खोजें और उन्हें संकल्पपूर्वक बुहार फेंके। इस संबंध में कठोरता बरतने, मन मारने और प्रतिकूलता सहने को ही तप कहते है। तप संयम से मनुष्य सच्चे अर्थों में शक्तिशाली बनता है।

(6) उदार आत्मीयता

आत्म-निर्माण की दृष्टि से अंतर्मुखी तो बनें, पर एकाकीपन का अभिशाप न अपनाए। हिलमिल का रहें। मिल जुलकर काम करें और ऐ घटक भर मानें और सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझें। अन्यों की अपेक्षा अपनों की प्रति आपा-धापी की संकीर्ण स्वार्थपरता न अपनाए। चिंतन और व्यवहार में पारिवारिकता के सिद्धान्तों का अधिकाधिक समावेश करें।

सामूहिकता के साथ जुड़ी हुई शक्ति और प्रगति को गम्भीरता पूर्वक समझें और विलगाव की अपेक्षा सम्मिलित सहयोग की व्यवस्था बनाए। पारस्परिक सहयोग का आदान प्रदान जितना भी बन पड़े, करते रहें किन्तु वह होना सदुद्देश्य के लिए ही चाहिए। कुचक्र रचना और षड्यंत्र करने वाले संगठन का सहयोग न अपनाएँ।

(7) प्रगल्भता

दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाएँ और उसी आधार पर नीति निर्धारित करें। प्रचलित ढर्रे में से नीति निर्धारित करें। प्रचलित ढर्रे में से उतना ही स्वीकार करें जो उचित हो। किन्तु लोकमत पर ध्यान न दें। किन्तु लोकमत पर ध्यान दें। जनसमूह का प्रचलित प्रवाह अवांछनीयता की ओर है उसके साथ न बहे। हर प्रसंग न्याय-नीति अपनाएँ और कौन क्या कहता है, उसकी उपेक्षा कर सकने का साहस जुटाए। एक आँख प्यार की दूसरी सुधार की रखें। औचित्य को समर्थन दें, साथ ही अनौचित्य से असहमत रहें और उसे सहयोग न दें, संभव हो तो विरोध भी करें और संघर्ष भी। यह नीति अपनों के साथ भी बरती जाए और दूसरों के साथ भी। मित्र या स्वजन होने पर भी उसकी अवांछनीयताओं में सहयोगी न बनें।

इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ-मान्यता और अवांछनीयताओं की भरमार है। उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक का और सामाजिक क्राँति की आवश्यकता अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ कसर उठा न रखें। आत्मसुधार में तपस्वी, परिवार-निर्माण में मनस्वी और सामाजिक परिवर्तन में तेजस्वी की भूमिका निबाहें! अनीति के वातावरण में मूक दर्शक बनकर न रहें। शौर्य-साहस के धनी बनें और अनीति-उन्मूलन तथा उत्कृष्टता-अभिवर्द्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें।

जनसंपर्क के कुछ सामान्य अनुशासन

प्रज्ञा परिजनों में से जिन्हें भी लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करना है उन सभी को कुछ मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए। सेवा कार्य जितना महत्वपूर्ण है, उससे भी अधिक लोक-सेवी की व्यक्तित्व की प्रखरता का मूल्य है। मिशन को लोकप्रिय बनाने में दूसरों को प्रभावित, परिवर्तित करने, सुधारने उभारने में प्रयासों का जितना प्रभाव होता है, उससे कहीं अधिक सफल लोकसेवी के चिंतन चरित्र, स्वभाव पर आधारित व्यक्तित्व का पड़ता है इस प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति प्रज्ञा अभियान के हर सदस्य-युगशिल्पी को पूरी करनी चाहिए-इस संदर्भ में मोटी मर्यादाएँ यह है-

चटोरेपन की आदत छोड़ें। किसी से घर जाकर-अपनी स्वादलिप्सा को प्रकट न होने दें।

महिलाओं से एकांत वार्ता न करें। जब उनसे कुछ कहना हो तो आँखें नीची रखकर वार्ता करें।

हिसाब शीशे की तरह साफ रखें। जहाँ से जो पैसा प्राप्त हो उसकी रसीद भिजवाएँ खर्च का प्राप्त हो उसकी रसीद भिजवाएँ, खर्च का हिसाब प्रमाण सहित नोट कराएँ।

वार्ता तथा व्यवहार में अपनी नम्रता तथा दूसरों के सम्मान का समुचित ध्यान रखें

वेश विन्यास में ब्राह्मणोचित सादगी रखें, विशेषतया केश-सज्जा तथा अन्य प्रकार की शृंगारिकता से बचें।

किसी गाँव में पद्यलोचन नाम का लड़का था। लोग उसे पदुआ कहकर पुकारते थे। इस गाँव में एक जीर्ण-शीर्ण सा मंदिर था। अंदर देवता का कोई विग्रह न था। मंदिर की दीवारों पर पीपल और अन्य प्रकार के पेड़-पौधे उग आए थे। मंदिर के भीतर चमगादड़ अड्डा जमाए बैठे थे। फर्श पर गर्द और चमगादड़ों की विष्ठा पड़ी रहती। मंदिर में लोगों का आवागमन नहीं था।

एक दिन संध्या के समय गाँव वालों ने शंख की आवाज सुनी कि मंदिर की तरफ कोई भौं-भौं शंख बला रहा है। गाँव वालों ने सोचा कि किसी ने देव-प्रतिष्ठा की होगी मंदिर की सफाई भी की होगी और संध्या होने पर आरती हो रही है। लड़के बूढ़े, औरत, मर्द सभी दौड़ते हुए मंदिर के सामने पहुँचे। सोचा- देवता के दर्शन करेंगे और आरती देखेंगे। उनमें से एक ने मंदिर का दरवाजा धीरे से खोला तो देखा कि पद्यलोचन बगल में खड़ा शंख बजा रहा है। देवता की प्रतिष्ठा हुई नहीं मंदिर में झाडू तक नहीं लगाया गया चमगादड़ों की विष्ठा पड़ी हुई है। तब गाँव वालों ने चिल्लाकर कहा-पहुआ तूने तो नाहक शंख फूँक फूँककर हुल्लड़ मचा रखा है तेरे मंदिर में माधव कहाँ? उसमें ग्यारह चमगादड़ रात दिन गश्त लगा रहे है।

उपयुक्त कथा को सुनाकर रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि हृदय मंदिर में माधव प्रतिष्ठा की इच्छा होने यदि ईश्वर का लाभ करना चाहो तो सिर्फ भौं-भौं शंख फूँकने से क्या होगा। पहले चित्त शुद्धि चाहिए। चमगादड़ की विष्ठा-अपवित्रता रहने से माधव वहाँ नहीं आ सकते। ग्यारह चमगादड़ का अर्थ है-ग्यारह इंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और मन। पहले माधव प्रतिष्ठा बाद में इच्छा हो तो लेक्चर देने का शौक पूरा कर लेना।


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