पर्वतों से निकलकर बहने वाली सरिता की धारा ने अपनी सहेली दूसरी धारा से कहा-मैं तो इस भ्रमणशील और गतिमान जीवन से ऊब गई हूँ। एक पल को भी विराम नहीं, ऐसा जीवन किस काम का। अब आगे बढ़ने का मेरा इरादा नहीं है। आम्र का एक सघन कुँज देखकर वह उसके नीचे थम गई और वहीं रुक गई।
दूसरी धारा आगे बढ़ते गई और जाते-जाते कह गई तू रुक तो रही है, किन्तु याद रखना गतिशीलता में पावनता, स्वच्छता और जीवन है। यदि तेरे जीवन में अकर्मण्यता ने स्थान बना लिया तो तू स्वाभाविक गुणों से हाथ धो बैठेगी। पहली धारा ने अपनी सहधारा की बात पर उस समय तो ध्यान नहीं दिया और उसने एक सरोवर का रूप धारण कर दिया। जल के स्थिर हो जाने से जल में सड़ाँध उत्पन्न होने लगी और वह स्वच्छ जल पीने योग्य न रहा। ग्रामवासियों और जानवरों तक ने उसे त्याग दिया। तब से गतिशीलता और क्रियाशीलता का महत्व समझ में आया।