त्याग ही जीवन का अमृत

July 1999

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आषाढ़, श्रावण ओर यहाँ तक कि भाद्रपद भी बीतने को चला, पर जल की एक बूँद भी न गिरी। जेठ कब का गुजर चुका था, किंतु उसकी तपन अब भी शेष थी। अन्न के कोठार खाली हो रहें थे। सूखे कंठ को तर करने के लिए न जल था, न उत्तप्त गर्मी से राहत पाने के लिए किंचित् ठंडा पानी। कुएँ, बावड़ी, नदी-नाले सब सूखे पड़े थे। उस पर अन्न का अभाव मानों कोढ़ में खाज उत्पन्न कर रहा था। इतनी विकट स्थिति? ऑफ! सर्वत्र हाहाकार मच रहा था, इसका उपाय क्या हो? इससे कैसे निपटा जाएँ? बुद्धि निरुपाय हो रही थी। समाधान के उसके सारे अस्त्र चुक चुके थे। इस तरकश में में कोई अजेय ब्रह्मास्त्र भी तो न था कि इस विषम परिस्थिति का मुकाबला किया जा सकें। हाय! तो क्या धरती जनशून्य बन जायेगी। मनुष्य के बीज किसी मनु के पास सुरक्षित न रह पाएँगे। वर्षों की कठोर साधना से उपजी यह सभ्यता क्या देखते -देखते समाप्त हो जाएगी। मनीषा संत्रस्त हो रही थी। भूख से बिलखते शिशु, बिलबिलाते किशोर, निराहार तप का कठोर व्रत लिए युवक और तड़पते प्राण त्यागते वृद्ध वातावरण को और भी अधिक सघन वेदना से भर रहे थे। सबों के चेहरों पर मुर्दनी छायी हुई थी। मरघट की नीरवता घरों को और अधिक विकराल बना रही थी। रह-रहकर होने वाला नौनिहालों का क्रंदन श्मशान में हुआ हुआ करते सियारों की अनुभूति कराता था। सर्वत्र गम के ही घटाटोप थे।

महर्षि अंगिरा भी इससे सर्वथा अछूते न थे। अपनी एकांत कुटिया में बैठे गहन चिंतन में निमग्न इसी विषय पर सोच रहे थे हर पल उनके चेहरे के भाव बदल जाते, जिससे ऐसा प्रतीत होता कि ऋषि भी प्रस्तुत संकट के प्रति उतने ही चिंतित है जितना कि जन-सामान्य कभी कभी उनके मन में विचार उठते -तू क्यों वृथा परेशानी मोल ले रहा है? किंतु दूसरे ही पल इसके विपरीत विचारधारा हुँकारती सुनाई पड़ती -तो तू क्या मूकदर्शक बना रहेगा? तेरी अंतरात्मा तुझे धिक्कारती क्यों नहीं? समाज के सामने इतनी गंभीर समस्या आ उपस्थित हुई है और तू अपनी ध्यान -साधना के पीछे -अपने स्वार्थ एवं अपनी उन्नति के पीछे भाग रहा है। अपनी निज की उन्नति के पीछे। नहीं! इस तुच्छ प्रयोजन के लिए तू समाज से मुँह नहीं मोड़ सकता। तू समाज का अंग है, उसके प्रति अपने कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता। अपने दायित्वों को तिलाञ्जलि नहीं दे सकता। इस संकट को घड़ी में समस्या का हल ढूँढ़ना ही तेरी सबसे बड़ी साधना एवं जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य है।

इन विपरीत विचार तरंगों से महर्षि तिलमिला उठे। बेचैनी उनके चेहरे पर स्पष्ट झाँकने लगी। निर्णय करने की बुद्धि जाती रही। वे दुविधा में ही पड़ें थे कि अंतरात्मा की आवाज गूँजी, तुम्हारा असमंजस अभी तक गया नहीं, उठो ओर समाधान की बात सोचो।

इस बार महर्षि के चेहरे में दृढ़ता झलक रही थी, कदाचित कर्तव्यबोध हो गया था। हाँ, बात ऐसी ही थी। एक बार पुनः उनके मुखमंडल के भाव तीव्रता से परिवर्तित होने लगें। पर इस बार निराकरण के प्रति चिंतित होने के कारण या किसी अन्य ऊहापोह के कारण नहीं। सहसा उनकी आँखों में चमक पैदा हुई। मन में विचार आया कि इस संकट का समाधान तभी हो सकता है, यदि वरुण देवता की पूजा-आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया जा सके। बस फिर क्या था? वे जंगल छोड़कर आबादी वाले क्षेत्र में जा पहुँचे। सब लोग उन्हें अपने बीच पाकर प्रसन्न हो उठें। सोचा, निश्चय ही कोई समाधान लेकर ही महर्षि उपस्थित हुए हैं।

महर्षि अंगिरा ने वही दूसरे दिन एक विशाल सभा के आयोजन की घोषणा की। अगले दिन लोग नियत समय व स्थान पर एकत्रित हो गए। उद्बोधन शुरू हुआ।

"आत्मीयजनों! वर्तमान विपदा निश्चय ही अत्यंत गंभीर है। पर ऐसा भी नहीं है कि जिसका कोई हल ही न हो। एक हल अवश्य है, जिससे इस विषम परिस्थिति को टाला जा सकता है, किंतु इसमें एक अड़चन है”। इतना कहकर महर्षि अंगिरा कुछ रुक गए सभा मंडप से आवाजें आने लगी-महाभाग वह कैसी बाधा है? हम उसे दूर करने में कोई कसर नहीं उठा रखेंगे। आप आज्ञा करें”

ऋषिवाणी पुनः सुखरित हुई-समाधान कुछ जटिल है और उत्सर्ग की माँग करता है। बोलिए-आपमें से कौन है जो नरमेध यज्ञ की बलिवेदी पर चढ़ने के लिए तैयार है?”

मंडप में सन्नाटा छाया रहा। महर्षि को कोई उत्तर न मिला। थोड़ी देर इंतजार के बाद महर्षि की आवाज फिर गूँजी।

“ठीक है, तो संकट का हल मैं अपनी आहुति देकर ही करूँगा। आप में से कोई आगे आकर मुझे राजमंडप की वेदी में यूप से बाँधे और बलि चढ़ाकर इस आहुति प्रक्रिया को संपन्न करें”।

रुकिए देव! सभा मंडप के मध्य से एक किशोर की वाणी उभरी “मैं अपना बलिदान करने को तैयार है।”

महर्षि अंगिरा चौंके। दृष्टि आवाज की ओर अनायास ही उठ गई। देखा तो एक चौदह वर्ष का बालक बड़े गर्व से उनकी ओर चला आ रहा है। महर्षि के सम्मुख उसने हाथ जोड़ लिए और यूप में कसने का आग्रह करने लगा। महर्षि ने उस पर एक प्रेम भरा दृष्टि निक्षेप किया और मुस्कराकर बोले-नहीं वत्स! इस कार्य के लिए हम उपयुक्त है, तुम अभी बालक हो। यदि ऐसा हुआ, तो बाद की पीढ़ियाँ यह कहते हुए हमें कोसेगी कि ऋषि ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए एक बालक का वध कर दिया।”

इतना सुनना था कि किशोर खिलखिलाकर हँस पड़ा। कहा-आप मुझे बालक समझ रहे है, आर्य। ठीक है, यह तो आपके अधिकारक्षेत्र में है। वय से कद-काठी से आप ऐसा मान सकते है, किंतु स्वल्प आयु के कारण ही दया का पात्र घोषित होना ओर गौरव से वंचित रह जाना, यह मुझे स्वीकार नहीं है। मुझे उम्मीद है कि आप अष्टावक्र एवं अभिमन्यु के प्रसंग को भूले नहीं होंगे। कद उनके अवश्य किशोरी जैसे थे, पर चेतना शूरवीरों की थी और शूरवीरों की आयु नहीं देखी जाती।”बालक उसी गर्व से आगे बोलने लगा-मैं उन्हीं अष्टावक्र एवं अभिमन्यु का अंशधर हूँ, उत्तराधिकारी हूँ। महाभाग! मेरी धमनियों में उन्हीं का रुधिर प्रवाहित हो रहा है। सीने में आर्यों का सा साहस और दिल में देव-पुत्रों जैसी उमंग है। मुझे स्वयं में गर्व अनुभव होगा, यदि समाज के किसी काम आ सकूँ। आप जीवित रहेंगे तो ऐसी विपत्तियों में समाज को मार्गदर्शन मिलता रहेगा। मेरा क्या है, एक उर्त्तक न रहा तो दूसरे पैदा हो जायेंगे, किंतु आपकी अपूर्णीय क्षति समाज कैसे बर्दाश्त करेगा? तनिक विचारिए तो सही। अस्तु सहर्ष मुझे स्वीकार करें। मुहूर्त निकला जा रहा है। अब विलंब न करे देव!

विवश होकर महर्षि अंगिरा बालक उत्तंक को लेकर आगे बढ़ गए और यत्र मंडप के यूप से बाँध दिया। एक अधेड़ व्यक्ति ने खड्ग उठाया ही था कि आकाश में तीव्र गड़गड़ाहट हुई और चकाचौंध करने वाली बिजली कौंधी। उपस्थित लोगों ने सिर उठाया तो खुशी से नाच उठे। देखते-देखते घनघोर वर्षा होने लगी। बालक उत्तंक की परीक्षा पूर्ण हुई वरुण देव ने इसके आत्मत्याग से प्रसन्न होकर इतनी वर्षा की जितनी कई वर्षों से नहीं हुई थी। सर्वत्र बालक उत्तंक की जय जयकार होने लगी। जेठ के आतप के बाद जब बरसात की रिमझिम फुहार बनकर बरसती है तो मनुष्य ही नहीं, पशु पक्षी भी झूम उठते है। संप्रति वातावरण भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। मानो उत्तंक के आत्मोत्सर्ग के महत्व के चुंबकत्व में भगवत्कृपा ने आकृष्ट होकर वृष्टि का रूप ले लिया हो।

उत्तंक स्वयं भी आत्मोत्सर्ग के इस महत्व के परिणाम से विभोर हो उठा। उसने बड़े ही कृतज्ञभाव से महर्षि के सम्मुख विनम्र निवेदन किया-देव त्याग के इस महत्व से मैं अभिभूत हूँ अपना शेष जीवन भी आपकी ही भांति तप और त्याग में लगाना चाहता हूँ। इंद्रियों के भोग, जीवन की लालसाएँ अब मेरी प्राप्य नहीं रही। त्याग ही जीवन का अमृत है, यह मैंने जान लिया है और सचमुच बालक उत्तंक महात्मा उत्तंक बनकर त्याग का प्रतीक बन गए। उनके महनीय त्याग ने उन्हें शुनःक्षेप स्तर का इतिहास पुरुष बना दिया।


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