वास्तुशास्त्र, एक स्थापित विधा

July 1999

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मनुष्य के जीवन पर न केवल आस-पास के वातावरण का परिवेश का प्रभाव पड़ता है, वरन् जमीन के उस भूखंड का और उस बने हमारे मकान का भवन का भी असर पड़ता है। प्राचीनकाल के ऋषि - मनीषी इस तथ्य से भली−भाँति परिचित थे। इसलिए उन्होंने भवन निर्माण की कला को वास्तुविज्ञान के साथ जोड़कर रखा और चार उपवेदों में से स्थापत्य वेद नामक स्वतंत्र उपवेद की रचना हुई। इस स्थापत्य विद्या के आधार पर ही हमारे प्राचीन मंदिरों एवं अन्य अनेक ऐतिहासिक भवनों की रचना हुई जिनमें से अधिकाँश अभी भी इसकी साक्षी दे रहे है। ऐसे निर्माणों में प्रवेश करने पर व्यक्ति को स्वयं अपरिमित सुख-शाँति का अनुभव होता है। इन जगहों पर पहुँचने और कुछ समय व्यतीत करने के लिए मन सदैव लालायित रहता है।

भारतीय संस्कृति में भवन निर्माण कला को एक धार्मिक कृत्य माना गया है और उसे मनुष्य जीवन के पुरुषार्थ चतुष्टय से जोड़कर रखा गया है। वृहद्वास्तुमाला में भवननिर्माण के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुये कहा गया है-

स्त्रीपुत्रादिकभो आरण्य जननं धर्मार्थकाम पुरम। जन्तूनामयनं सुखास्यदमिदं शीताम्बु धर्माहम्॥

अर्थात् स्त्री, पुत्र आदि सुख और धर्म, अर्थ, काम को देने वाला, पशुओं, गाय, बैल, घोड़ा आदि के सुख स्थान शीत वायु, धूप आदि कष्टों को दूर करने वाला ही घर है।

वास्तु विद्या विशारदों का कहना है कि यदि घर का-भवन का निर्माण प्राचीन वास्तुशास्त्र के अनुसार किया जा सके, तो गृहस्वामी को उसमें रहने वाले सदस्यों का आए दिन जो पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक आदि कष्ट - कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है, उनसे सहज ही छुटकारा पाया जा सकता हैं विश्वकर्मा प्रकाश के अनुसार, पृथ्वी कण-कण में वास्तुदेवता पूर्वोत्तर दिशा में मुख करके लेटे हुये है’- पूर्वोत्तरमुखों वास्तु पुरुषः परिकल्पितः। अतः उन्हें प्रसन्न करके शास्त्रोक्त विधि से भवन निर्माण करने एवं इसमें निवास करने पर व्यक्ति सुखी रह सकता है। और प्रगति कर सकता है। देवपूजन में वास्तुदेवता का भी पूजन करने का विधान है। इसके पीछे छिपा हुआ यही भाव रहस्य है कि प्राकृतिक पंचतत्त्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, एवं आकाश आदि को आधार मानकर उनमें समाहित प्राकृतिक गुणों से, शक्तियों से अधिकाधिक सामंजस्य स्थापित किया जाए।

वास्तुशास्त्र स्थापत्य कला का अतिप्राचीन शास्त्र है। इसका शाब्दिक अर्थ है- वह शास्त्र, जिसमें आवास या गृह निर्माण से संबंधित नियमों का समावेश हो, वास्तुशास्त्र कहलाता है। वास्तु शब्द संस्कृत के वस धातु से बना है जिसका अर्थ है- निवास, वास स्थान, आवास आदि। यह मानव आदि के निवासस्थान का परिचायक है। अमरकोष के अनुसार-

“गृहरचना वच्छिन्नभूमेः।

अर्थात् गृहरचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं। हलायुधकोष में इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है-

वास्तु संक्षेपतो वक्ष्ये गृहादौ विघ्ननाशनम। ईषानकोणादारभ्य होकाशीतिपदे त्यजेत॥

अर्थात् संक्षेप में वास्तु ईशान आदि कोण से प्रारंभ होकर भवन निर्माण की वह कला है जो घर को विघ्न−बाधाओं, प्राकृतिक उत्पातों से बचाती है। वास्तुकला के अधिष्ठाता देवता को वास्तु पुरुष या वास्तु देवता कहते है। यही वास्तु पुरुष काल पुरुष अपने विश्वव्यापी रूप में पूर्वोत्तर की ओर अर्थात् ईशान कोण की ओर मुख करके लेटे हुए है। यही कारण है कि अधिकाँश भवन का निर्माण ईशान आदि कोण से आरंभ किया जाता है।

वास्तु विद्या के अनुसार गृह - भवन निर्माण करने का उद्देश्य ही यह है कि उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों पारिवारिक सदस्यों के लिए वह शुभकारक, सुख-शान्तिदायक धन-धान्य ऐश्वर्य एवं कीर्ति को बढ़ाने वाला हो। इसीलिए मकान बनाने से पूर्व यह देखा जाता है कि जिस भूखंड पर भवन या घर बनाया जा रहा है, वह घर भू स्वामी या गृहस्वामी के लिये सभी प्रकार से मंगलदायी, संतान सुख देने वाला, धन-संपदा बढ़ाने वाला होना चाहिए। इसके पश्चात् इस बात का ध्यान रखा जाता है कि भवन के विभिन्न अंग कहाँ और किस दिशा में हो, उदाहरण स्वरूप घर में पूजाकक्ष कहाँ हो शयन कक्ष किस दिशा में हो? रसोई कहाँ हो? स्वागत अध्ययनकक्ष भण्डारगृह कहाँ हो? जल का स्थान किस दिशा में हो? शौचालय कहाँ हो? औषधालय, दुकान व कार्यालय किस ओर हो? घर में कितने दरवाजे हों और किधर हो? घर की आँतरिक व बाह्य साज-सज्जा कैसी हो? भवन के आस-पास कौन से पेड़ पौधे लगाना शुभदायक होता है और कौन-सा हानिकारक या अमंगलदायक? धूप, प्रकाश, व हवा का निर्बाध आवागमन किस प्रकार और किस दिशा से होना चाहिये राजमार्ग-सड़क किस दिशा में और कहा होना चाहिये, आदि बातों का वास्तुविद्या में विशेष ध्यान रखा जाता है। लेकिन आधुनिक भवन-

निर्माण तकनीक- आर्किटेक्चर में आवश्यकता एवं सुविधा को प्रमुखता दी जाने लगी है।, यही कारण है कि अकूत धन संपदा खर्च करके आलीशान भवन व बहुमंजिले इमारतें खड़ी तो कर ली जाती है, परंतु उनमें निवास करने एवं काम करने वाले व्यक्ति सदैव तनावग्रस्त एवं व्याधिग्रस्त बने रहते है। उल्टे सीधे तरीकों से अर्थोपार्जन तो इस तरह के भवनों में हो सकता है, किंतु निवासकर्ता को स्थायी सुख शाँति नहीं मिल सकती।

यों तो वास्तुशास्त्र के अनेकों पक्ष हैं जिनका आरंभ गृहनिर्माण में प्रयुक्त होने वाले भूखंड के आकार-प्रकार लंबाई-चौड़ाई ढलान मिट्टी के प्रकार व रंग एवं गंध आस-पास के पेड़ पौधें, जलाशय, पर्वत, नदी की समीपता दूरी आदि से होता है। नाम, राशि, शुभ ग्रह नक्षत्र, आय, विचार, दिशा निर्धारण, बेध, भूमि परीक्षण आदि का निर्धारण भवन बनाने से पहले ही किया जाता है। चयनित भूखंड को वास्तुशास्त्र में गृहपिंड कहा जाता है। यह कई प्रकार के होते है जिनमें से वर्गाकार या आयताकार भूखंड को अधिक शुभदायक माना जाता है। त्रिभुजाकार, चक्राकार, शकटाकार - बैलगाड़ी के समान, सिंहमुखी, विषमबाहु, अंडाकार व नागफनी के आकार के भूखंडों की गणना दोषयुक्त गृहपिंडों में की जाती हैं इस तरह के भूखंडों पर निर्मित भवनों में निवास करने वाले लोग बहुत कम फलते -फूलते देखे गये हैं। इसके साथ ही यह भी देखा जाता हैं कि उक्त भूखंड का ढलान किस ओर है। यदि यह ढलान उत्तर या पूरब की ओर है, तो उस जमीन को धन-धान्य देने वाली माना जाता है। दक्षिण पश्चिम की ओर ढलान युक्त जमीन को कम महत्व दिया जाता है। इसी तरह कछुए की तरह बीम में ऊँची और चारों ओर नीची जमीन को भी अच्छा माना जाता है। गजपृष्ठ अर्थात् हाथी पीठ की तरह दक्षिण-पश्चिम नैऋत्य एवं वायव्य दिशा में ऊँचाई वाली जमीन भी गृहस्वामी के लिए शुभदायक कही गयी है। ऊसर, बंजर एवं दलदली जमीन का प्रतिकूल प्रभाव निवासकर्ता पर पड़े बिना नहीं रहता। इसलिए वास्तु विद्या विशारद ऐसे भूखंडों पर मकान बनाने की सलाह नहीं देते है।

भोजकृत समराँगण सूत्रधार के अनुसार अनंत अंतरिक्ष से सतत् प्रवाहित हो रही सूक्ष्म अंतरिक्षीय तरंगों एवं अदृश्य ब्रह्मांडीय शक्तियों से मनुष्य, उसका आवास - घर एवं समूची सृष्टि प्रभावित होती है। मनुष्य इन ऊर्जा तरंगों से अधिक से अधिक लाभ उठा सकें, अदृश्य शक्तियों से तादात्म्य स्थापित कर स्वस्थ, सुखी और समुन्नत बन सकें, मानसिक शाँति प्राप्त कर सकें, यही वास्तुविद्या का उद्देश्य है। यदि हम इन वास्तुनियमों के अनुसार अपना आवास व रहन-सहन ढाल लें अथवा घरों में भवनों में तदनुरूप थोड़ा-बहुत परिवर्तन कर लें तो अपने जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकते है और यह परिवर्तन हमें सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुँचा सकता है।

गृहनिर्माण में जमीन का निर्धारण कर लेने के पश्चात् दिशा का निर्धारण करना पड़ता है कि उक्त भूखंड में कौन-सा कक्ष अर्थात् कमरा किस दिशा में पड़ेगा। दिशायें हैं उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तथा इनके अतिरिक्त चारों कोण अर्थात् ईशान कोण, आग्नेय कोण, नैऋत्य कोण और वायव्य कोण। गृहनिर्माण के समय इस बात की भी सावधानी बरती जाती है कि किस दिशा में किस देवता की प्रसन्नता हेतु कितनी जगह छोड़ी जाये नारद संहिता में कहा भी गया है कि पूर्व दिशा के स्वामी सूर्य, ईशान कोण के गुरु, उत्तर दिशा के बुध वायव्य कोण के चंद्रमा, पश्चिम दिशा के शनि, दक्षिण दिशा के मंगल और आग्नेय कोण के स्वामी शुक्र आदि है। अतः इनकी प्रकृति की अनुकूलता को ध्यान में रखते हुये ही निर्माणकार्य किया जाना चाहिये। शास्त्रानुसार गृह के पूर्व में अधिक खुला स्थान चाहिये। उत्तर दिशा में उससे कम एवं नैऋत्य दिशा में मामूली सी जगह छोड़नी चाहिये। अन्य दिशाओं में उनसे भी कम या न के बराबर खाली जगह छोड़ने का प्रावधान है। इन नियमों का पालन करने पर गृह निर्माता को निर्माण के वह सब लाभ मिलते हैं,जिस उद्देश्य को लेकर वह मकान बनाता है। ऐसा कहा गया है कि ऐसे घरों में सदा लक्ष्मी का वास रहता है और सुख-शाँति का आगार बन जाता है।


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