भोजन हमारा क्या हो?

July 1999

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आहार के अनेकानेक पक्षों पर विगत अंक में चर्चा की जा चुकी हैं। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में ग्रहण किया जाने वाला भोजन सप्तधातुओं का निमार्ण करता है। रस, रक्त, माँस मेद अस्थि, मज्जा, शुक्र के रूप में क्रमशः धातुओं का पोषण करते हुए निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका होने के नाते आहार का महत्व आयुर्वेद में अत्यधिक माना गया है। पथ्य-अपथ्य का विमर्श करते हुए भी आयुर्वेद के विद्वान रोग से बचने एवं हो जाने पर ठीक होने के लिए औषधियों के साथ-साथ आहार पर सर्वाधिक जोर देते हैं। यूँ आहार-निद्रा ब्रह्मचर्य रूपी त्रय उपस्तंभ तथा बात, कफ़, पित्त रूपी त्रिदोष की साम्यावस्था ही सप्तधातुओं के निर्माण की मूल कारक मानी गई है। फिर भी इन सभी में आहार को सबसे ऊपर माना गया हैं जहाँ एलोपैथी में औषधि के साथ कुछ भी खाते रहने कोई संयम-नियम का पालन न करने की सलाह दी जाती है, वहाँ आयुर्वेद आहार को भी चिकित्सा का एक घटक मानते हुए यथोचित निर्देश विभिन्न विकारों के लिए देता है।

आहार-विधि - चरक सूत्र के अनुसार कूल छह मुख्य पत्यापथ्य घटक हैं, जिनका ध्यान रखा जाना चाहिये। ये हैं-

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अर्थात् चरक ने मात्रा (भोजन कितना लिया जाये), काल (किस समय लिया जाये) क्रिया (किस पद्धति से बनकर तैयार हुआ है।), भूमि (किस देश-स्थान पर पैदा हुआ है।), देह (संरचना कैसी है।) दोष ( उनकी आँतरिक संघटना में कोई त्रुटि) को मुख्य घटक माना है। इन घटकों के प्रभाव से पथ्य (ली जाने योग्य भोज्यपदार्थ) भी अपथ्य सिद्ध हो सकता है। भोजन सिद्धि प्राप्त करने के लिये चरक का निर्देश है कि कुछ पदार्थ जो स्वभाव से ही अपथ्य होते है, उनके अतिरिक्त अन्य औषधीय-अन्न-शाकादि पदार्थों का उपयुक्त श्लोकानुसार कालादि मात्रा आदि का विचार करके प्रयोग किया जाना चाहिये।

आहार सेवन विधि चरक संहिता विमान स्थान में आठ प्रकार की आहार सेवन विधि संबंधी भावों का उल्लेख आता है। ये आठों भव अष्टविध आहार विधि विशेषायतन कहलाते हैं शुभाशुभ फलदायक हैं तथा एक दूसरे के पूरक हैं उनके नाम इस प्रकार हैं।

(1) प्रकृति (नेचुरल क्वालिटी) (2) करण संस्कार (तैयार करने की विधि) (3) संयोग (काँबिनेशन) (4) राशि मात्रा-क्वान्टिटी (5) देश ( स्थान विशेष की परिस्थितियाँ) (6) काल (आहार ग्रहण का समय) (7) उपयोग संस्था (उपयोग करने की विधि) (8) उपभोक्ता (उपयोग करने वाला)।

स्वाभाविक गुण युक्त द्रव्यों में जो संस्कार किया जाता है उसे करण कहते है। द्रव्यों में दूसरे गुणों को जल अग्नि संयोग, मंथन, भावना तथा विभिन्न पात्रों में रखकर समाविष्ट किया जाता है। इस प्रकार यह आहार निर्माण सेवन का उपक्रम पूर्णतः विज्ञान सम्मत ही नहीं - अति सूक्ष्म एक प्रक्रिया भी है।

आहार के प्रकार-

आचार्य सुश्रुत ने एक श्लोक में आहार के विभिन्न प्रकारों का द्वादशशन विचार, के नाम से उल्लेख किया है। श्लोक इस प्रकार है-

अत ऊर्ध्व द्वादशाशन प्रतिचारान् वक्षयामः तत्र शीतोष्ण स्निग्ध रुक्ष द्रवशुष्कैक कालिक द्विकालिक औषधियुक्त मात्राहीन दोष प्रशमन वृत्यर्थाः॥

इस श्लोक के भावार्थ के अनुसार कुल बारह प्रकार के आहारों का उनके गुण के अनुसार वर्णन तथा इन आहार भेदों को किन -किन अवस्था में दिया जाना चाहिए, यह निरूपण ऋषिश्रेष्ठ सुश्रुत द्वारा इस प्रकार किया गया है-

शीत

तृष्णा, उष्णता, दाह तथा रक्तपित्त से व्यथित, पीड़ित विषसेवन से मूर्च्छित, अतिकामसेवन से क्षीण हुए व्यक्ति में शीत आहार उपयुक्त है।

उष्ण

कफ़ एवं वातरोग से पीड़ित, विरेचन किए हुए स्नेहपान किए व्यक्तियों में उष्ण आहार उपयुक्त है।

स्निग्ध

वात व्याधि से पीड़ित, वातज प्रकृति वाले, रुक्ष शरीर वाले अतिकामसेवन से क्षीण तथा व्यायाम बाहुल्य वाले व्यक्ति के लिये स्निग्धाहार उपयुक्त है।

रुक्ष

मेदस्वी, स्निग्ध देह वाले कफ़ प्रकृति वाले व्यक्ति को रुक्ष आहार दिया जाना चाहिए।

द्रव

शुष्क शरीर वाले तृष्णा से पीड़ित व्यक्ति, दुर्बल काया वाले रोगियों को द्रव आहार दिया जाना ही उपयुक्त है।

शुष्क

कुष्ठ, विसर्ग, वृण तथा प्रमेह पीड़ित व्यक्तियों को शुष्क आहार दिया जाना चाहिये।

एक कालिक

यह आहार का क्रम दुर्बल व्यक्ति के लिए अग्निवर्धक हेतु होना चाहिये।

द्विकालिक

यह आहार क्रम सामान्य स्वस्थ व्यक्ति का होता है।

औषधि युक्त

जो व्यक्ति औषधि लेने में असमंजस रखे अथवा कुरुचि के कारण न ले, उसे आहार के साथ औषधि देना चाहिये।

मात्राहीन

मंदाग्नि युक्त रुग्ण व्यक्ति को हीन मात्रा में आहार दिया जाना चाहिये।

प्रशमनकारक

प्रत्येक ऋतु में यथा दोषवृद्वि अनुसार उनके शमन हेतु आहार दिया जाना चाहिये यथा - वर्षा ऋतु में वात दोष की शाँति हेतु मधुर अम्ल-उष्णादि गुण युक्त आहार का प्रयोग।

वृत्ति प्रयोजक

जो स्वस्थ स्थिति में हैं जिनकी धातुएँ सम अवस्था में हैं धातु साम्य हेतु आहार इस क्रम में दिया जाता हैं।

अपथ्य आहार

इसे वैरोधिक आहार भी कहते है। यह रोग करने में सहायक एवं रोगी होने पर चिकित्सा चलती रहने पर भी ठीक न हो पाने का मूल कारण आयुर्वेद सिद्धांतानुसार माना गया है। विज्ञजनों के अनुसार अन्न जहाँ एक ओर शरीर निर्माण का मूल हेतु एवं प्राणवत माना गया हैं, वहीं दूसरी ओर अन्न को रोग का कारण तथा विष भी कहा गया है। जब अन्न का युक्तिपूर्वक सेवन किया जाता है, तो वह शरीर का पोषणकर्ता, प्राणपालक बनता है। जब कभी भी अयुक्तियुक्त अन्न सेवन होता है तब वह विष के समान कार्य करता है। चरक संहिता के सूत्र स्थान के अनुसार जो आहार या औषधि दोषों को अपने स्थान से उभार दे, किंतु शरीर से उनको बाहर न निकाले उसे विरोधी आहार या अपथ्य कहते है।

चरक संहित के अनुसार निम्न लिखित भावों को विरुद्वाहार का कारण गया है-

देश विरुद्ध

जंगली देश या मरुभूमि में रुक्ष और देश में स्निग्ध, शीतलगुण युक्त औषधियों का सेवन देश विरुद्ध कहा गया है।

काल विरुद्ध - जाड़े के दिनों में शीतल, ग्रीष्म में कटु-उष्ण आहार का सेवन काल विरुद्ध होता है।

अग्नि विरुद्ध

जठराग्नि रहते हुए उसके अनुसार आहार न मिले तो वह अग्नि विरुद्ध होता है।

मात्रा विरुद्ध

मधु और घी समभाग मिलाकर खाने से इसे मात्रा विरुद्ध बतलाया गया है।

सात्म्य विरुद्ध

जिस व्यक्ति को कटु रस और उष्ण वीर्य आहार प्रकृति के अनुकूल हो गया है, ऐसे व्यक्ति के लिए मधुर रस व शीत वीर्य आहार सात्म्य विरुद्ध कहलाता है।

दोष विरुद्ध

वात, पित्त, कफ़ इन दोषों के समान गुण वाले और अभस विरुद्ध आहार औषधि और कर्म का सर्वत्र अभ्यास वातादि दोष के विरुद्ध कहा जाता है।

संस्कार विरुद्ध

ताम्र आदि के पात्रों में दुग्ध पकाना विषतुल्य माना गया है। भोजन भी ऐसे पात्रों में पकाने से वह परिणाम में विष की भाँति हो जाता है।

वीर्य विरुद्ध

शीत वीर्य द्रव्य के साथ उष्ण वीर्य द्रव्यों को लेना वीर्य विरुद्ध है।

कोष्ठ विरुद्ध

मृदु कोष्ठ वाले को तीव्र रेचक औषधि देना इस प्रकार के अपथ्य में आता हैं।

स्वास्थ्य विरुद्ध

अधिक विश्राम करने वाले व्यक्ति को कफकारक आहार यदि दिया जाता है तो वह इस वर्ग में आता हैं।

क्रम विरुद्ध

व्यक्ति यदि बिना मल-मूत्र त्याग किए या बिना भूख लगे ही भोजन करे तो इसे क्रम विरुद्ध कहते है।

उपचार विरुद्ध

व्यक्ति यदि घृत आदि स्नेहों को पीकर शीतल आहार, औषधि और जल ग्रहण करता है, तो उसे उपचार विरुद्ध कहते है।

पाक विरुद्ध

दूषित और अनुचित ईंधन से आहार को पकाना अथवा अधपका - जला हुआ अन्न लेना पाक विरुद्ध कहलाता है।

संयोग विरुद्ध

अम्ल रस को दुग्ध के साथ सेवन करना संयोग विरुद्ध है।

बारह प्रकार के आहार - चरक संहिता आहार प्रकरण पर बड़े विस्तार से विमर्श करते हुए उनका बारह वर्गों में विभाजन किया गया है। इनके माध्यम से ही तत्कालीन द्रव्यों के स्वरूप का वर्णन निम्नलिखित श्लोक द्वारा किया गया है। आधुनिक समय में उपलब्ध आहार द्रव्यों का भी विवेकानुसार इन वर्गों में समावेश किया जा सकता है।

श्लोक इस प्रकार है।

शूकधान्यं शमीधान्यं समातीतं प्रशस्यते। पुराणं प्रायशो रुक्षं प्रयेणाभिनवं गुरु॥

यद्यदागच्छति क्षिप्रं ततल्ल्घुतरं स्मृतम। पुराणमामं संक्लिष्टं क्रिमिव्यालहिमातपैः॥

अदेशाकालजं क्लिन्नं

उपरोक्त श्लोक के अनुसार आहार वर्ग इस प्रकार है। शूक-धान्य वर्ग मक्का, बाजरा, आदि, शमी धान्य वर्ग सभी प्रकार की दालें शाक वर्ग सभी शाक पदार्थ फलवर्ग, समस्त फल, हरि वर्ग (हरे क्लोरोफल युक्त पदार्थ), गोरस वर्ग (दुग्ध पदार्थ), ईक्षु वर्ग ( गन्ना व उससे बनने वाले पदार्थ), कृतान्नवर्ग (पके हुए- आँच पर पकाए पदार्थ), आहार यौगिक वर्ग ( सभी प्रकार के पौष्टिक यौगिक), इसमें माँस व मधवर्ग को अध्यात्मिक दृष्टि से त्याज्य माना जाता हैं।

भोजन- आहार के इन वर्गों के बारे में विस्तार से अगले अंक में पाठक पढ़ सकेंगे ताकि वे चयन कर सकें कि किस स्थिति में कब उन्हें क्या भोज्य पदार्थ लेना है।


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