न्यायप्रिय ‘शिखिध्वज (Kahani)

July 1999

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राजा ने प्राणों से प्रिय अपने राजकुमार को एक जाने माने संत को सौंपा। कहा कि हमें पूरा विश्वास है कि आप इसे समस्त विद्याओं में प्रवीण -पारंगत कर सच्चे उत्तराधिकारी के रूप में लौटायेंगे। पाँच वर्ष की अवधि तय की गयी। इसके बाद राजकुमार को वापस लौटाने का निर्धारण हुआ।

पाँच वर्ष बीत गए। एक बार भी राजा को राजकुमार से मिलने की अनुमति नहीं थी। अंततः संत राजकुमार को लेकर राजदरबार में लोटे। राजकुमार के सिर पर गूदड़ों की गठरी लदी थी, कुली जैसी पोशाक थी। राजा यह दृश्य देखकर हैरान रह गया। बोला कि हमने राजकुमार को कुली -कबाड़ी बनने तो आपके पास नहीं भेजा था। इतने में राजा को अभिवादन न करते देख संत ने एक बेंत राजकुमार की पीठ पर जमा दी। राजकुमार की चीख निकल गई। राजा बोले-बस महाराज जी हो गयी शिक्षा। अब आप इसे हमें सौंप दे।” मंत्रीगण व उपस्थित सभा सदस्य बोल उठे-आपको दिखाई नहीं देता, यही राजकुमार कल राजा बनेगा। चमड़ी उधड़वा देगा।” महात्मा तुरंत बोल उठे-आज शाम तक यह राजकुमार नहीं मेरा शिष्य है। इसकी शिक्षा-दीक्षा शाम को पूरी होगी फिर यह जो भी करेगा, इसकी शिक्षा दीक्षा जो मैंने पाँच वर्षों में दी है, इस पर निर्भर करेगा।”

अपने राजकुमार के प्रति व्यवहार का स्पष्टीकरण देते हुए संत बोले -कष्ट कठिनाइयों, मान -अपमान, भले-बुरे, ऊँच-नीच कठिन-सरल अपने पराये का ज्ञान अनुभव राजकुमार को नहीं हुआ तो फिर वह प्रजा का दुख कैसे समझेगा? प्रजावत्सल कैसे बनेगा? न्याय कैसे कर पाएगा?

यही राजकुमार अपने गुरु के हाथों गढ़कर एक सफल न्यायप्रिय ‘शिखिध्वज’ नामक राजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ।


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