चक्र संस्थान का सबसे निम्नतम चक्र ‘मूलाधार’ है। यह संस्कृत के ‘मूल’ और ‘आधार’ - दो शब्दों के मेल से बना है। मूल अर्थात् जड़ और आधार अर्थात् सहारा। इस प्रकार मूलाधार मानव अस्तित्व का मुख्य आधार हुआ। इससे संपूर्ण अस्तित्व का मूल प्रभावित होता है, इसलिए इसका नाम मूलाधार पड़ा।
साधना ग्रंथों में इसे कुण्डलिनी शक्ति का केन्द्र माना गया है। यही वह स्थान है, जहाँ उच्च आध्यात्मिक अनुभूतियों की समस्त संभावनाएँ निहित है। इसका प्रतीक एक कुँडलाकार सर्प है। जिसकी शक्ति प्रायः सुप्तावस्था में पड़ी रहती है। शक्ति संस्थान के इस मूल बिंदु से इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नामक तीन प्रमुख नाड़ियाँ निकलती है, जो मेरुदंड मार्ग से आगे बढ़ते हुए आज्ञाचक्र तक पहुँचती है। कुण्डलिनी जब तक सोयी रहती है, तब तक निष्क्रिय अवस्था में यही पड़ी रहती है, किंतु जाग्रत होते ही सुषुम्ना के रास्ते समस्त चक्रों का वेधन करते हुए चरम अनुभूति केंद्र सहस्रार तक ऊर्ध्वगमन करती है। यही आत्मज्ञान का तल और स्थल है। अतएव कुण्डलिनी योग में मूलाधार चक्र के जागरण का विशेष महत्व है।
पुरुषों में यह लिंग और गुदा के मध्य स्थित है, जबकि स्त्रियों में गर्भ ग्रीवा के पिछले हिस्से में इसकी अवस्थिति बतायी गई है। इसका कोई क्षेत्र नहीं होता, अतः जागरण क्रम में ध्यान सीधे उसी बिन्दु पर टिकाना पड़ता है, जहाँ इसकी वास्तविक स्थिति है।
यह चार दलों वाला रक्तकमल है। इसके प्रत्येक दल में क्रमशः वं, शं, षं, सं, वर्ण सुनहरे अक्षरों में अंकित होते हैं। इसका यंत्र वर्गाकार और पीले रंग का है, जो पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। वर्ग में आठ बर्छे हैं-चार वर्ग के कोनों में और शेष चार भुजाओं के मध्य में। ये सभी सुनहरे पीले हैं।
चक्र का वाहन हाथी है। इसके सात सूँड़ है। यह सप्तचक्र सप्तधातुओं की प्रतीक हैं। हाथी बलशाली पशु है। यह चक्र की शक्ति और गति दोनों को निरूपित करता है। उसकी गति मंथर है, जो इस स्तर की चेतना की चाल बतलाता है। वह विशाल शरीर वाला मजबूत जंतु है, जो यहाँ निहित शक्ति की प्रकृति का द्योतक है।
हाथी के ऊपर एक रक्तवर्णी उलटा त्रिकोण है। इसे उत्पादकता का सूचक माना जाता है। त्रिभुज के मध्य में एक धूम्रवर्ण का लिंग है, जिसके चारों ओर कुण्डलिनी शक्ति सर्पाकार रूप में साढ़े तीन फेरे लिपटी हुई है। तीन कुंडली सत् रज, तम की प्रतीक है। आधी कुंडली मानवी उत्कर्ष को इंगित करती है।
इसका बीजमंत्र ‘लं’ है, जो त्रिभुज के ठीक ऊपर है। इसके देव गणेश एवं देवशक्ति डाकिनी है। देवी डाकिनी चतुर्भुजी एवं लाल नेत्रों वाली है। उनमें अनेक सूर्यों का प्रकाश है तथा वे निर्मल बुद्धिवाहिनी है।
इस चक्र की तन्मात्रा सुगंध, ज्ञानेन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। अतींद्रिय गंध का प्रादुर्भाव यही से होता है। इसका लोक भूः लोक तथा वायु अपान है। यह अन्नमय कोश से संबंधित है।
मनुष्य में जितनी भी तामसिक वृत्तियाँ। है- यह चक्र उनका निवास स्थल है। ईर्ष्या, द्वेष, संकीर्णता स्वार्थपरता, अपराधभाव, मनोग्रन्थि, दुष्टता, भ्रष्टता तथा कष्ट का केन्द्र मूलाधार चक्र ही है। जो इनसे ऊपर उठना चाहते हैं, उनके लिए मूलाधार का शोधन और जागरण आवश्यक है।
इस चक्र का संबंध कायिक रूप से कई संस्थानों से है। इनमें उत्सृज, मूत्रालय, यौन तथा प्रजनन प्रमुख है। साधारण दशा में मनुष्य क्या है? यदि इस पर विचार करें तो हम पाएँगे कि उसका व्यक्तित्व और जीवन इस निम्न चक्र की अभिव्यक्ति मात्र है। हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट जीवनशैली है। उसकी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और क्रिया−कलाप अपने ढंग के अलग होते हैं। व्यक्ति व्यक्ति में इस पृथकता और विशेषता का कारण उसका मूलाधार चक्र ही है। यही पर हमारे समस्त मानवेत्तर संस्कार और कर्म केंद्रित होते हैं। जीवन का विश्लेषण करते हुए फ्रायड ने कहा है कि मनुष्य का संपूर्ण जीवन यौन व्यक्तित्व से प्रभावित है। उनका यह कहना गलत नहीं है। दैनिक जीवन में व्यक्ति के रहन-सहन वस्त्र-विन्यास साज-सज्जा में कहीं न कहीं यौन सजगता परिलक्षित हो ही जाती है। ऐसा काम केन्द्र से संबंधित इस चक्र के कारण है।
मनोविश्लेषक तथा मनः चिकित्सक विक्षिप्तता, उन्माद, सनक आदि के कारण चाहे जो बताते हो, योग-आचार्यों की दृष्टि में यह मूलाधार चक्र में केंद्रीभूत शक्ति के अनुत्सर्जन का परिणाम है। वहाँ से शक्ति मुक्त नहीं हो पाने के कारण मस्तिष्क का तत्संबंधी केन्द्र प्रभावित होता है और संपूर्ण जीवन असंतुलित हो जाता है।
तन्त्रशास्त्र में मैथुन का प्रमुख स्थान है। वहाँ पंचमकारों में वह एक है। यह सत्य है। कि सामान्य जीवन में मनुष्य का संपूर्ण आपा यौन संतुष्टि एवं यौन कुंठा से प्रभावित है पर यह भी मिथ्या नहीं है कि मनुष्य की कामेच्छा यदि किसी भाँति समाप्त हो जाए, तो उसकी समग्र दृष्टि ही परिवर्तित हो जाएगी एवं जीवन की परिभाषा उसकी कुछ भिन्न होगी।
तंत्र में जिस काम-क्रिया का उल्लेख है, वह वास्तव में वासना पूर्ति का पर्याय नहीं, शक्ति के ऊर्ध्वीकरण का उपाय है। मैथुन के प्रति प्रायः तीन प्रकार की दृष्टि है। यह तीनों ही मन की भावदशा पर निर्भर है। अधिकाँश लोग इसे आनंद का साधन मात्र मानते हैं। कतिपय लोग प्रजनन हेतु इसका अभ्यास करते हैं, पर योगियों के लिए यह समाधि का एक महत्वपूर्ण सोपान है। वहाँ वह सामान्य काम-क्रीड़ा न होकर उच्चस्तरीय विज्ञान हो जाता है, जिसके माध्यम से वे काम-शक्ति का ऊर्ध्वारोहण कर दिव्य अनुभूतियाँ और आध्यात्मिक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। इसलिए सर्वसाधारण को इस क्रिया की महत्ता और उपयोगिता को समझते हुए ऐसा अवलंबन अपनाना चाहिए, जिससे संबंधित शक्ति संस्थान जाग सके। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि गृहस्थ साधक को इसके लिए गृहस्थ जीवन त्यागने की आवश्यकता नहीं। जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि यौन जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण उदात्त बने ताकि क्षणिक आनन्द के निमित्त व्यय होने वाली ऊर्जा का उच्चस्तरीय रूपांतरण संभव हो सके। यह भी जानने योग्य तथ्य है कि पति पत्नी में से यदि कोई एक योगी हो तो अपने साथी के आध्यात्मिक उत्कर्ष में वह काफी सहयोग कर सकता है। यौन जीवन के प्रति मनुष्य की जो सबसे बड़ी भूल है, वह यह कि वह स्वयं से ही इस निमित्त संघर्ष कर रहा है, जबकि होना यह चाहिए कि वह इसकी वास्तविकता को समझे और उसके अनुरूप आचरण करें। वह यौन जीवन को त्यागना तो चाहता है, पर अब तक ऐसा करने में सफल नहीं हो सका है। सफलता की गारण्टी तभी दी जा सकेगी, जब वह मूलाधार चक्र के परिमार्जन और जागरण की बात सोचे और उसे संपादित करें। इससे कम में ‘काम’ के प्रति उसकी भावनाओं और धारणाओं में बदलाव संभव नहीं, कारण कि मूलाधार के अपरिष्कृत स्थिति में पड़े रहने से उससे संबद्ध मस्तिष्क का हिस्सा भी तामसिक वृत्तियों का केन्द्र बना रहता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति चाहकर भी अपनी हेय और हीन गतिविधियों को त्याग नहीं सकेगा और पूर्व की तरह घिनौना जीवन जीने के लिए बाध्य होगा।
योगमार्ग के निष्णातों के अनुसार मूलाधार से सहस्रार तक प्राण का आवागमन तीन सूक्ष्म स्तर की नाड़ियों द्वारा होता है। मानसिक शक्ति का वाहक नाड़ी ‘इड़ा’ कहलाती है। यह मेरुदंड में बायीं ओर स्थित है। पिंगला प्राण-प्रवाह का मार्ग है। इसकी अवस्थिति दायीं ओर होती है। मध्य में सुषुम्ना का स्थान है इससे आध्यात्मिक शक्ति की ऊर्जा प्रवाहित होती है। जब इड़ा और पिंगला का प्रवाह पूरी तरह संतुलित होता है तब सुषुम्ना क्रियाशील होती और कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती है, पर ऐसी अवस्था यदा-कदा और अल्पकाल के लिए ही आती है, किंतु शक्ति जागरण हेतु इतना भी पर्याप्त है। ऐसा देखा गया है कि इस प्रकार के जागरण में उस तीव्रता का अभाव होता है, जो अन्य विधियों द्वारा जाग्रत होने पर दिखलाई पड़ता है। इसलिए इसमें कुण्डलिनी का उत्थान सहस्रार तक न होकर स्वाधिष्ठान या मणिपूरित चक्रों तक ही हो पाता है, वह भी स्थायी नहीं होता। अतएव सुयोग्य मार्गदर्शक इसके लिए प्राणायाम का का निर्देश करते, ताकि इड़ा और पिंगला का शुद्धिकरण होकर उनका शीघ्र संतुलन हो सके। एक बार जब यह संतुलन भली-भाँति स्थापित हो जाता है, तो मूलाधार में एक विस्फोट सा होता है। उसी के साथ कुण्डलिनी तीव्र गति से ऊपर उठती हुई तब तक निर्विघ्न बढ़ती चलती है, जब तक सहस्रार तक न पहुँच जाए।
विधिक प्रकार के अभ्यास और उपचारों द्वारा जब मूलाधार चक्र उद्दीप्त होकर जाग्रत होता है, तो बड़ी तीव्रतापूर्वक निम्नस्तरीय संस्कार चेतन स्तर पर उमड़ने घुमड़ने लगते हैं। यह ठीक वैसा ही है, जैसा ज्वालामुखी विस्फोट के बाद धरती के गर्भ में छिपे पड़े पदार्थ अचानक बाहर निकलने लगते हैं। इस स्थिति में दमित वासनाओं एवं भावनाओं का इतना प्रचंड प्रवाह उमड़ता है, जिसे साधक चाहकर भी नहीं रोक पाता निषेधात्मक चिंतन मस्तिष्क में हावी हो जाता और चिंतन तंत्र को इस कदर अपनी पकड़ में ले लेता है कि व्यक्ति एकदम असहाय अनुभव करने लगता। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, प्रतिशोध का वेग रोके नहीं रुकता, जिससे साधक बुरी तरह चिड़चिड़ा और अस्थिर हो जाता है। उसके चिड़चिड़ेपन का हाल यह होता है कि एक छोटे से सवाल का जवाब भी वह सरलता और शालीनतापूर्वक नहीं दे पाता, जबकि अस्थिरता इतनी विकट होती है कि यदि अभी वह शाँत एकांत बैठा है तो अगले ही पल किसी से झगड़ा करता दिखाई देगा। एक दिन तो वह सबेरे आठ बजे तक सोता रहेगा, किंतु दूसरे
दिन प्रातः दो बजे उठकर काम करना शुरू कर देगा, कभी वह चीख-चीख कर बातें करेगा, तो कभी ऐसा प्रतीत होगा, मानो मौन धारण कर रखा हो। इस स्थिति में अक्सर साधक गाने का शौकीन दिखाई पड़ता है।
उक्त भूमिका में अवस्थान करने पर एक अनुभवी मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है, जो साधक को इस बारे में आश्वस्त कर सके कि यह भावनात्मक अस्त-व्यस्तता उसके अधःपतन का लक्षण नहीं वरन् विकास का चिन्ह है। ऐसे समय में साधक अक्सर भ्रमित हो जाते और कुछ से कुछ सोचने लगते हैं, तब जानकार गुरु ही उन्हें वास्तविकता से अवगत कराता और निश्चित रहने की सलाह देता है। वह उन्हें बताता है कि यथार्थ में यह विकार निष्कासन प्रक्रिया का परिणाम है। यदि विस्फोट न होता, तब भी विकारों का निर्गमन अवश्य होता, पर तब उसकी गति इतनी धीमी होती कि उसमें कई जन्म लग जाते।
मूलाधार चक्र का जागरण गुदा के चारों ओर खुजलाहट की संवेदना से प्रारंभ होता है, अनेक बार यह प्रतीति लिंग गुदा के मध्य के स्थान में अथवा काक्सिक्स क्षेत्र में गर्मी, भारीपन फड़कन के के रूप में होती है एवं घ्राणेंद्रिय इतनी अधिक संवेदनशील बन जाती है कि तीव्र गंध बर्दाश्त कर पाना संभव ही नहीं होता।
इस चक्र के जागरण के दौरान साधक को कितने ही प्रकार के अनुभव होते हैं, इनमें से प्रथम से प्रथम है - शरीर का जमीन से ऊपर उठना। व्यक्ति को ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वह आकाश में तैर रहा हो और स्थूलशरीर जमीन पर पड़ा हो। तत्त्वतः यह कोई भ्रांति नहीं, यथार्थ है। शक्ति जागरण के क्रम में साधक का सूक्ष्मशरीर भौतिक देह से पृथक् होकर ऊपर उठने लगता है। इसी की अनुभूति इस रूप में होती है। इसे काया का शून्य में ऊपर उठना नहीं समझना चाहिए।
इसके अतिरिक्त कभी-कभी किसी-किसी को अनेक अतींद्रिय अनुभव होते हैं, उनमें अतींद्रिय दृष्टि और श्रवण शक्ति का विकास हो जाता है यदा-कदा यह अनुभूति होती है कि शक्ति सिर के ऊपरी भाग में आरोहण कर रही है, किंतु प्रायः बहुत थोड़ी-सी शक्ति ही इस प्रकार ऊपर चढ़ पाती है जबकि अधिकाँश मणिपूरित में ही अवरुद्ध पड़ी रहती है।
मूलाधार चक्र को जगाने के लिए साधना विज्ञान में कितने ही प्रकार के अभ्यास उपचार बताये गये हैं। इनमें मूलबंध, नाडीशोधन प्राणायाम चक्र का ध्यान तथा नासिकाग्र दृष्टि जिसे अगोचरी मुद्रा भी कहते हैं, प्रमुख हैं। इनका लगभग एक महीने तक अभ्यास करने से चक्र कमल प्रस्फुटित हो जाता है और साधक को वे सारे अनुभव होते है, जो चक्रों के लक्षणों में वर्णित है।
मूलाधार चक्र में ध्यान करने से साधक प्रखर वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्वविद्या विनोदी, आरोग्य आनंद चित काव्य और लेखन की सामर्थ्य आदि क्षमताएँ विकसित कर लेता है।
मूल आधार यदि सुदृढ़ हुआ तो ही उस पर मजबूत इमारत खड़ी की जा सकती है। चक्र संस्थान में मूलाधार की स्थिति कुछ ऐसी ही है। वहाँ कुण्डलिनी रूपी प्रचंड शक्ति का निवास है। मनुष्य यदि चाहे, तो इसके महान जागरण द्वारा अपने साधारण जीवन का दिव्य रूपांतरण कर सकता और इतना प्रखर एवं पराक्रमयुक्त बन सकता है, जिसकी उपमा ईश्वर से दी जा सके। यह पशु चेतना का भी केन्द्र है, जो इस बात का प्रति सावधान करता है कि यदि हमारा अंतर बलशाली न हुआ, तो पाशविकता के पाश में हम फँस सकते हैं। इसलिए इसका वाहन ऐरावत है, जो इस बात का प्रतीक है कि आदमी में हाथी की तरह मानसिक अधिष्ठाता होनी चाहिए, तभी वह पशु प्रवृत्तियों के जीवन में हावी होने से बच सकता और उन्हें पोषण एवं प्रश्रय दे सकता है। जिन्हें देववृत्तियाँ कहते हैं। कुण्डलिनी शक्ति के रूप में परिष्कृत मूलाधार वास्तव में इन्हीं देववृत्तियाँ का प्रतीक प्रतिनिधि और समुच्चय है, इसे भली-भाँति समझ लेना चाहिए।