जब तक यह काय कलेवर अच्छी दशा में है, जब तक वृद्धावस्था का आक्रमण नहीं हुआ है, जब तक इंद्रियों की शक्ति दुर्बल नहीं पड़ी है, तभी तक मनुष्य को आत्म कल्याण की साधना कर लेनी चाहिए अन्यथा जब मरण सामने आ खड़ा होगा और शक्ति चुक जाएगी तो आग लगने पर कुआँ खोदने की तरह उस निरर्थक प्रयत्न से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा।
एक कुष्ठी भिक्षा माँग रहा था। उधर से जो कोई निकलता, कुष्ठी अपना हाथ फैलाकर कहता, जो दे उसका भी भला और न दे उसका भी भला। पाश्चात्य वेशभूषा से सज्जित एक युवक ने दो पैसे का सिक्का उसके हाथ पर डालते हुए पूछा - क्यों भाई! तुम्हारा पूरा शरीर गला जा रहा है। हाथ और पैर की अंगुलियाँ तक अब ऐसी नहीं रही जो कुछ कार्य कर सको। फिर इस कष्ट का जीवन जीने से क्या लाभ। यह तो जीवित अवस्था में भी लाश ढोने जैसी स्थिति है।
कुष्ठी ने कहा- मित्र! तुम बात तो ठीक कहते हो और कभी कभी मेरे मन में भी इस प्रकार का प्रश्न उठता है, पर मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर इसलिए जीवित रखे हुए है कि लोग कम-से-कम मुझे देखकर यह समझ सकें कि मूर्ख, इस संसार में कभी तू भी मेरे जैसा हो सकता है, अतः इस संसार में काया की सुंदरता का घमंड करने से कोई लाभ नहीं है।