महात्मा भगवानदीन की आयु लगभग 5 वर्ष की थी। उनकी माँ ने दुकान से चार पैसे के बादाम लाने को भेजा। इस समय दुकान पर बहुत भीड़ थी। दुकानदार ने पैसे लिए और बादाम पुड़िया में बाँधे और भगवानदीन के हाथ में थमा दिये।
घर आकर जब भगवानदीन ने माँ के हाथ में थैली थमाई तो माँ नाराज होकर बोली- चार पैसे के इतने अधिक बादाम और तू भी ले आया। वापस जा और दुकानदार से कहना- लगता है भूलवश उसने अधिक दे दिए हैं।
भगवानदीन फिर दौड़कर दुकान पर पहुँचे और बोले - चाचा यह लो अपनी पुड़िया। मैंने चार पैसे के बादाम माँगें थे। माँ कहती है- ये ज्यादा लगते हैं। बादाम की पुड़िया लेते हुये दुकानदार बोला - बेटे तुमने तो मेरी चिंता और बढ़ा दी। कहीं ऐसा न हुआ हो कि मैं चार आने वाले ग्राहक को चार पैसे के बादाम दे गया होऊं।
बालक भगवानदीन के कोमल मन पर इस बात का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उस दिन से वे ईमानदारी का महत्व समझ गये।