युग गीता-3 - आत्म संताप अथवा पलायनवाद

July 1999

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गीता का प्रथम अध्याय-उत्तरार्द्ध

इस लेखमाला के अंतर्गत श्रीमद्भागवत् गीता को परमपूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया रहा है। मई 19 के अंक से प्रारंभ हुई यह श्रृंखला समग्र गीता पर व्यवहारिक समीक्षा करती हुई क्रमशः चली रहेगी। विगत अंक में विषाद योग जो प्रथम अध्याय की धुरी है के पूर्वार्द्ध पक्ष पर चर्च की थी। कहा गया था कि कैसे गीता के श्लोकों के द्वारा वेदव्यास हमें बताते है कि हमें हर परिस्थिति पर सम्यक् विचार करना चाहिए पराक्रम-वीरता बलिष्ठता अपनी जगह है, परन्तु विवेक सम्मत चिंतन कर जीवन जीवन संग्राम में प्रवेश किया जाय तो कही किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होगी धैर्य रखने वाले संकल्प के धनी एवं शौर्यभाव से भरे लोकनायकों की हमें अगले दिनों अधिकाधिक आवश्यकता होगी। ऐसे ही व्यक्ति सच्चा शिष्यत्व जाग्रत कर लोकशिक्षण से लेकर नवनिर्माण कर सकते है। यह सब लक्षण अर्जुन में दिखाई देते हैं। हमारे लिये एक आदर्श नायक के रूप में अर्जुन उभर कर आता है। इसी क्रम में को अब आगे बढ़ाते है,

प्रथम अध्याय की यह विशेषता है कि सेनाओं के योद्धाओं के परिचय के साथ उनकी मनःस्थिति का भली भाँति विश्लेषण कर दिया गया है। इसी के पश्चात् अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से जो उसके सारथी बने है। कहता है हे भगवन्! मुझे दोनों सेनाओं के मध्य ले चलिए सेनयोरुभयोर्मध्यें रथं स्थापय मेऽच्युत (21 वाँ श्लोक) ताकि जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं की भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना व्यापार में किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है। तब तक इसे खड़ा ही रखिये। (22 श्लोक)

यह स्थिति से विषाद से पूर्व की है, जग प्रारंभिक टिप्पणी के अनुसार हर परिस्थिति पर सम्यक् विचार, संतुलित चिंतन की बात कही गयी थी। इस प्रारंभिक समीक्षा के बाद हम अर्जुन की मनःस्थिति देखने का प्रयास करते है। अर्जुन व दुर्योधन दोनों की तुलना करने का प्रयास करें तो हमें जानकारी मिलती है कि प्रारंभ में जहाँ दुर्योधन ने भीष्म पितामह एवं गुरु द्रोणाचार्य को वर्ण बताने के साथ व्यंग्य भी कसा है, यह भी परोक्ष रूप से कहने का प्रयास किया है कि वे कही ममत्ववश अपने शौर्य को भुला तो नहीं बैठे। उसकी इसी वृत्ति के कारण उसका शिष्यत्व ही नहीं, मनुष्यत्व भी जाग्रत नहीं हो पा रहा। पाँडवों में युधिष्ठिर है किंतु वे धर्मराज है। अकर्मण्य है। यदि वे चाहते तो महाभारत टल सकता था। जब विवाह के पश्चात् द्रौपदी के साथ पाँडवगण लौटे तो भीष्म पितामह ने राज्यपरिषद की बैठक बुलाई एवं कहा कि पांडु पुत्रों को राज्य दे दिया जाना चाहिए।

भीष्म के वाक्यों को कोई नकार नहीं सकता था, चुनौती दे सकता था। जब किसी भी तरफ से विरोध नहीं आ रहा था, तब युधिष्ठिर बीच में खड़े हो गए और कहने लगे कि आधे राज्य का अधिकार तो धृतराष्ट्र को भी है। बस उसी दिन महाभारत का बीजारोपण हो गया- इतिहास लिख दिया गया। विचार कुशल, व्यवहार कुशल न दुर्योधन है न युधिष्ठिर। मात्र अर्जुन ही ऐसा जो दोनों सेनाओं के बीच खड़ा हो सम्यक् विचार करने के लिए उद्यत हुआ है। देखा जाय तो यह सब भगवान की योजना के अनुसार ही है। उनकी इच्छा के बिना पत्ता भी हिल सकता। यही कारण है कि उन्होंने अर्जुन को उसके सगे-संबंधियों के सामने लाकर खड़ा कर दिया, उन्हीं समक्ष जिन्हें दुर्योधन अभी कुछ ही क्षणों पूर्व व्यंग्य मिश्रित वाणी में बहुत कुछ सुना चुका है।

सारथी योगीराज श्रीकृष्ण ने ज्यों ही रथ लाकर खड़ा किया तो सामने थे। भीष्म पितामह एवं द्रोणाचार्य। भीष्म को देखते ही अर्जुन को अपना बचपन याद आ गया। वे उनके पितामह थे। कभी वह कह उठते कि पिताजी तो भीष्म कहते मैं तेरे पिता का पिता हूँ। तेरा बाबा हूँ। तब अर्जुन उन्हें पितामह बाबा कहने लगे थे। ऐसे प्यार करने वाले ममत्व लुटाने वाले बाबा की गोंद में बैठने-उनकी दाढ़ी से खेलने का सौभाग्य मिला था अर्जुन को। हिमालय की तरह ऊँचे व्यक्तित्व वाले भीष्म ने पाँडवों-कौरवों को मिलाने के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया, सारा जीवन संघर्ष में लग गया- उन्हीं के अपनत्व ममत्व से भाव विभोर अर्जुन को यादें रुलाने लगी। जब यादें हमें रुलाने लगें, हमें बारबार आत्मचिंतन को विवश कर दें, मानना चाहिए कि यहाँ हमारे कषाय-कल्मषों के शोधन की घड़ी है। हम जब कभी भी परमपूज्य गुरुदेव, परम वंदनीय माता जी के निर्देशों का स्मरण करते है तो उनके अपनत्व ममत्व को याद कर कभी हमारा मन रोने को कहता है क्या। यदि हाँ तो यह एक शुभ चिन्ह है। यदि वही स्मरण कर हम अपना सतत् परिशोधन करते रहे तो गीता का यह उपदंश सार्थक हो सकता है। शिष्यत्व के जागरण के लिए इस स्थिति में जाना बड़ा अनिवार्य है।

अर्जुन ने सोचा कि मैं किन से लड़ रहा हूँ- वही बाबा जिनकी गोद में मैं खेला था, वही गुरुदेव जिनने एकलव्य को अँगूठा लेकर धनुर्धर मुझे बनाया। इतना सब सोचकर ही उसके मन में गहरा विषाद होता है। एडविन एर्नाल्ड ने एक पुस्तक लिखी है। 'लाइट ऑफ एशिया' जिसमें गौतम बुद्ध के सिद्धार्थ से बुद्ध बनने का पूरा विवरण है। सिद्धार्थ रोते हुए व्यक्ति के साथ चलने वाले लोगों को रोते हुए पहली बार देखते है तो पूछते है कि ये क्यों रो रहे है। तब सारथी जवाब देता है कि यादें ही रुलाती है। इस मृत व्यक्ति से जुड़ी स्मृतियाँ याद याद कर रोना आ रही है सभी को तब सिद्धार्थ कहते है कि ऐसी यादों को साथ रख रोते हुए जीवन काटने से क्या लाभ। क्या किसी ने जीवन-मुक्ति बंधन-मुक्ति की बात नहीं सोची बस यहाँ से उनका आत्मबोध जाग्रत हो जाता है व उनका रूपांतरण हो जाता है।

अर्जुन भी यादों में डूबा रणक्षेत्र में दोनों सेनाओं के बीच खड़ा भीष्म पितामह के स्नेह-द्रोणाचार्य के शिक्षण उनकी कुर्बानी के बारे में सोच रहा है। ये द्रोण है जिनने पुत्र अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र दिलवाकर मानसपुत्र अर्जुन को को धनुर्विद्या में पारंगत कर ब्रह्मास्त्र की सिद्धि प्रदान की। भीष्म जो जीवन भर अविवाहित रहे, कठोर संयम का पालन जिनने किया। मात्र पाँडव पुत्रों के स्नेह संरक्षण देते रहे, बार-बार अर्जुन के स्मृतिपटल पर आ जाते हैं एवं वह व्यथित हो उठता है। गीता के 27 वें श्लोक के उत्तरार्द्ध और 28 वें -29 वें में वर्णन है-

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धुनवस्थातन् कृपया परयाविष्टों विषीदन्निदब्रवीत्। दृष्द्धेमं स्वजनं कुष्ण युयुतसुँ समुपस्थितम्॥ सीदन्ति मम गाणि सुखं व परिशुष्यति। वे पथुश्च शरीरे में रोहर्षश्च जायते।

अर्थात् उन उपस्थिति संपूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुये यह वचन बोले - हे कृष्ण, युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं। और मुख सुखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंप एवं रोमांच हो रहा है।

विषाद ग्रस्त होकर विकल होकर अर्जुन के मुख से ये वचन निकलें विकल नहीं होता तो नरपिशाच की श्रेणी में आता, निष्ठुर और निर्दयी कहलाता। वह नरमानव है, देव मानव बनना चाहता है। शिष्यत्व जाग्रत कर महामानव बनना चाहता है। अर्जुन विचारवान है एवं निर्विचार स्थिति में जाने से पूर्व की स्थिति से गुर रहा है। विचारहीन मानव ही कभी अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में सोच नहीं पाते, किन्तु अर्जुन तो इन सब स्थितियों से परे है, अतः उसका विषादग्रस्त होना स्वाभाविक है।

अगले श्लोक में अर्जुन अपनी स्थिति का और आगे वर्णन करते हुए कहता है कि है केशव! मेरे हाथ में गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ। मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय मारकर व भी देखता। न तो मैं विजय हूँ और न राज्य तथा सुखों को हम ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है, ऐसे से व जीवन से भी क्या लाभ।

(श्लोक 3, 31, 31)

मनोविज्ञान की कसौटी कसते हैं तो अर्जुन की यह स्थिति विलक्षण लगती है।। बार-बार की मार खाकर धर्मराज युधिष्ठिर नीति के कारण पीछे हटते रहने के कारण अर्जुन युद्ध आरंभ होने से अब तक तो पूरे पराक्रमी भाव से बात करते दिखाई देता है, किन्तु स्वजनों को साथ देखते ही वह व्याकुल हो उठता था इसलिये वह स्वधर्म को भूल, विलाप करने लगता। ऐसी स्थितियों में हम सबके जीवन में भी आती रही है। गुरुसत्ता हमें बारबार प्रतिकूलताएँ सामने खड़ी कर उनका महाभारत रचकर स्वधर्म की याद दिलाती रहती है।, किन्तु हम सोचते है कि हम लोकसेवा करने आए थे, यह हमें क्या करना पड़ रहा है। -अनीति से लड़ना पड़ रहा है। यही महाभारत है। एवं हमें किसी भी स्थिति में पीछे नहीं हटना है।

परमपूज्य गुरुदेव के लेखन में अर्जुन को हम एक आदर्श के रूप में, एक कार्यकर्ता लोक सेवी, के रूप में देखते हैं। उसने स्थान स्थान पर अर्जुन को एक मात्र बनाकर हम सबकी लक्ष्य करके लिखा है प्रज्ञा अभियान जो आज समाचार पत्र के रूप में 1980-81 में प्रकाशित हुआ करता था उसका अक्टूबर-नवम्बर 1981 संयुक्ताँक के रूप में प्रकाशित हुआ है। उसमें गुरुदेव ने लिखा है-गीता का अर्जुन कृष्ण संवाद द्वापर में हुआ था। पर परिस्थितियों को देखते हुए वह आज के लिए भी उतना ही उपयुक्त है। जितना उन दिनों कारगर सिद्ध हुआ था। परिस्थितियाँ आज भी उतनी ही विकट है, जितनी उन दिनों थी। भगवान सामंती अनाचार से अस्त-व्यस्त भारतीय समाज को न केवल एक केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत लाना चाहते थे, भारत को महाभारत विशाल भारत बनाना चाहते थे। इस प्रयोजन के लिए उनने धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में न केवल युद्ध रचाया वरन् विचार विनियम के द्वारा रचनात्मक निर्णय के लिए एक विशाल महाभारत रूपी राजसूय यज्ञ का प्रबन्ध भी किया। इस प्रयोजन के लिए भगवान को एक समर्थ सहयोगी की आवश्यकता थी। इसके लिये उन्हें एक ही पात्र उचित दिखा। वह था अर्जुन। अर्जुन न तो परामर्श के साथ समाहित दूरगामी श्रेय सत्परिणाम को समझ पा रहा था और न उसके साथ जुड़ी सघन आत्मीयताजन्य उपलब्धियों की परिकल्पना कर पा रहा था। संकीर्ण सीमा बंध नहीं उसके मन मस्तिष्क पर छाए हुए थे। इसलिए वह निजी एवं तात्कालिक लाभ-हानि का लेखा जोखा सामने रखकर उस महान जिम्मेदारी से इनकार कर रहा था, जिसमें तात्कालिक लाभ कम तथा संदिग्ध प्रतीत हो रहा था। जिंदगी के दिन गुजारने के लिए उसे किसी प्रकार पेट भर लेने की बात के अलावा और कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। भगवान ने अर्जुन के मन की दुर्बलता की समझा और उसके तर्कों को आदर्शवादी प्रतिपादनों के सहारे काटा।

अर्जुन की विषादग्रस्त मनःस्थिति परिचायक है एक ऐसे व्यक्ति की जिसके अंदर का शिष्यत्व प्रकट नहीं हो पाया क्योंकि श्रीकृष्ण गुरु रूप में उसे कभी नजर नहीं आए। नजदीक होना ही नहीं, गुरु की गुरुता को समझकर अपने अंदर की जड़ता को तोड़ना बड़ा जरूरी है। विषाद की जड़ता को तोड़ता है, जनम जन्मान्तरों के कुसंस्कारों को रगड़कर धोता है। श्री अरविन्द ने लिखा भी है कि कभी कभी जीवात्मा स्वयं को जागरण की स्थिति में लाने के लिए विषाद की स्थिति में लाती है। संभव है यही स्थिति अर्जुन की पैदा की गयी है।

हम सबके अन्दर भी कभी यह स्थिति पैदा हो जाती कि यह हम सब क्यों करें-क्रान्ति का कार्य-विचार क्रान्ति का कार्य करना है तो उसमें क्यों सीधे मोर्चे लगे। हम यह नहीं समझ पाते है कि हम निमित्त मात्र है एवं जो भी कार्य होना है उसे करने में हम मात्र युगधर्म ही निभाएँगे। अर्जुन की तरह यदि हमारे अंदर की जड़ता को भी तोड़ा जा सके। विषाद के द्वारा आत्मसंताप के द्वारा तो हमारे अंदर का सच्चा शिष्य उभरकर आगे आ सकता है। मेडिकल साइंस भी यही कहती है कि कभी-कभी रो लेना ज्यादा अच्छा है। परन्तु यदि यह प्रक्रिया भावोद्वेग न बने-हमें सुपात्र बनाकर प्रसन्न मनःस्थिति बैठे गुरु से विषादग्रस्त हम शिष्यों को मिला दे तो ही सार्थक है। विषद की हमारी मनःस्थिति में बैठा गुरु सुनता है। अर्जुन यहाँ प्रथम अध्याय के तैंतीसवें श्लोक से 46 श्लोक तक ही बात कह रहा है। हमें ऐसे राज्य से क्या लेना देना, ऐसे भोगो से हमें क्या मतलब और जीवन जीने से भी लाभ क्या है? खुद ही तर्क दे रहा है अपनी विषादग्रस्त स्थिति का श्रीकृष्ण को भी बोलने का मौका नहीं दे रहा। यह भी कहता है कि त्रैलोक्य का सुख भी मिल जाए तो मैं इन्हें मारना नहीं चाहता अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हैतोः किं नु महीकृते। कुल के नाश से लेकर स्त्रियों के दूषित होने, नरक का वास होने तक की शस्त्र सम्मत बातें भी वह कहे जा रहा है, यह जानते हुए भी सुन को रहा है, स्वयं वासुदेव श्रीकृष्ण भी कहता है कि यदि मुझ शस्त्र रहित को धृतराष्ट्र पुत्र मार भी डालें तो वह मरना मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा। भिक्षा माँगकर निर्वाह करने के लिए तैयार अर्जुन के मन में विषाद की पराकाष्ठा वाला यह वैराग्य को तीन प्रकार का बताते थे। एक सचमुच का एक श्मशान वैराग्य सामयिक होता है-श्मशान वैराग्य मात्र श्मशान तक सीमित रहता है। चिता जलते ही दुनियादारी की बातें चालू हो जाती है। अर्जुन का वैराग्य भी सामयिक है।

लड़ाई के स्थान पर खड़ा है एवं सिद्धान्तों की बातें कर रहा है। श्रीकृष्ण जानते है, इसलिये प्रसन्न मन से सुन रहे है। एवं एक दूसरे अध्याय में उसे लताड़ लगाने के लिये तैयार है। अर्जुन की मनःस्थिति यदि हम देखें तो इसमें हमें विषाद के मध्य से एक क्रान्ति पैदा होती दिखाई देती है। इस स्थिति की व्याख्या ज्यापाल सात्र ने बड़े अच्छे ढंग से की है। वे अस्तित्ववादी थे। उनने लिखा है-ह्यूमेनिटी इज कन्डेक्टड टू बि में स्वतंत्र होना ही है) अस्तित्ववादियों के पास कृष्ण नहीं थे, इसलिये पश्चिम प्रगति नहीं कर पाया। दर्शन का क्षेत्र उनका अविकसित रहा। इस स्वतंत्रता के लिए किसी श्री कृष्ण की-अर्जुन की जरूरत पड़ती है। गीता में वही पूरी हुई है।

अर्जुन स्वजन परिजन एवं परायजन तीनों में अंतर करने में असमर्थ है इसलिये वह विषाद की, अवसाद की पराकाष्ठा पर जाकर एक स्वघोषित निर्णय ले लेता है। मैं युद्ध नहीं करूँगा। जब तक शिष्य पूरी तरह समर्पित नहीं होता। स्वयं निर्णय लेता रहता है। अपनी बात को सौ प्रतिशत सही मानता है। अर्जुन स्वजनों की परिभाषा करते हुए बार-बार अपने मोह व अपने तथाकथित शास्त्र ज्ञान को बीच में ला रहा है। जब तक यह मोह, ज्ञान गलेगा नहीं, शिष्य पैदा नहीं होगा। अर्जुन गाण्डीव त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ जाना और कुछ नहीं, पलायनवाद है। यह कैसे हुआ कि एक वीर किन्तु भावनाशील व्यक्ति मोहसंकुल हो गया। विचारहीनता, मोहसंकुलता, अकर्मण्यता ये तीनों शिष्यत्व के मार्ग में बाधाएँ है। मोह करना ही तो श्रेष्ठता से आदर्शों से होना चाहिए न कि तथाकथित मरणधर्मा स्वजनों से नीति और अधर्म से नहीं गीता। के प्रथम अध्याय के इस मर्म को यदि हम समझने का प्रयास करें तो हमें ज्ञात होता हे कि सारा तत्व एक ही बात में छिपा है- हम समर्पित कर्मठ ज्ञानी बने तीनों योग इसमें छिपे है। कोरा ज्ञान तो अर्जुन ने बघार दिया पहले अध्याय में किन्तु उसमें तो तर्क है। वह अकर्मण्यता का परिचायक है। एवं समर्पण कोसों दूर है।

परमपूज्य गुरुदेव ने कहा कि तुम्हें अर्जुन बनकर श्रेय लेना हो तो लग जाओ काम में। नहीं करोगे तो कोई और कर लेगा। यदि हम काम नहीं भी करेंगे तो क्या इतना विराट दैवी अभियान आगे नहीं बढ़ेगा? हाँ काम तो बढ़ेगा, हम अर्जुन बनने से चूक जायेंगे परमपूज्य गुरुदेव अखण्ड ज्योति अप्रैल 1982 में लिखते है- आत्मसत्ता का वजन भारी, जिम्मेदारी बड़ी स्पष्ट की अपेक्षा ऊँची समय की गरिमा अनुपम इतना सब हो हुए भी वह क्षुद्रता कैसी जो अग्रदूतों की भूमिका निभाने में अवरोध बनकर आ गई समर्थ को असमर्थ बनाने वाला यह व्यामोह आखिर भवबंधन है। कुसंस्कार है। दुर्विपाक है या मकड़ी का जाला है। कुछ ठीक से समझ नहीं आता यह समय पराक्रम और पौरुष का है। शौर्य और साहस का है, इस विष वेला में युग के अर्जुनों के हाथों से गाण्डीव क्या छूटे जा रहे है। उनके मुख क्या सुख रहे है। पसीने क्या छूट रहे है। सिद्धान्त वाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई विनोद मनोरंजन है- कृष्ण झुँझला पड़े थे।

जागरण की प्रक्रिया सांख्ययोग नामक दूसरे अध्याय में अगले अंक में पढ़ने से पूर्व समझ ले कि श्री कृष्ण देख रहे है। कि अर्जुन के संदेह सच्चे मन से वेदना व व्याकुलता की स्थिति में निकले है। आत्मसंताप से ही यह आत्म व्याकुलता पैदा हुई है। यह शिष्यत्व के विकसित होने का गुरु के पैदा होने का समय है आज का समय असाधारण समय है। हम सभी को उस मार्गदर्शन की अपेक्षा है जो कभी युग के अर्जुन को उसके भगवान गुरु के श्रीकृष्ण से मिला था। आज भी हम उसे युग गीता के परिप्रेक्ष्य में पा सकते है।


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