जाग्रत तंद्रा में विभोर मनुष्य वास्तव में आधा मनुष्य है, अर्द्ध जीवित और अर्द्धमृतक मात्र उसे कह सकते है। जैसे शरीर के एक भाग को लकवा मार जाए और दूसरा भाग अच्छा रहे तो उससे क्या काम हो सकेगा? किसी आदमी का एक हाथ, एक पैर, एक कान, एक आँख नष्ट हो जाए तो उस बेचारे की क्या दुर्दशा होगी। इसी प्रकार जो अर्द्ध−तंद्रा में पड़ा रहता है, वह अधूरा मनुष्य जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त करने वाला योद्धा नहीं बन सकता। लापरवाही एक मानसिक लकवा है, जिससे आधा मस्तिष्क लुंज-पुँज हो जाता हैं ऐसे मानसिक अपाहिज दरिद्रता के चिथड़े में लिपटे एक कोने में पड़े रहते है और जीवन के भार को किसी प्रकार गिरते-मरते ढोते रहते है। उन्नत, समृद्ध एवं संपन्न जीवन तो उनके लिए आकाश कुसुम की भाँति दुर्लभ है।
जीवन को धूलि में मिला देने वाला यह सत्यानाशी रोग, जब रोगी चाहे, जा सकता है। यह रोग ठहरता तभी तक है तब तक रोगी उसका विरोध नहीं करता और अपने में उसे ठहरने देता है, पर जब व विरोध करने और हटा देने हेतु उतारू हो जाता है तो फिर उसका ठहरना नहीं हो सकता। व्यभिचार दूसरे पक्ष के सहयोग पर निर्भर है। यदि पुरुष व्यभिचारी हो, पराई स्त्री उसके कार्य में सहयोग न दे तो व्यभिचार होना असंभव है। इसी प्रकार जाग्रत तंद्रा का घातक रो भी रोगी के सहयोग पर निर्भर है। जहाँ विरोध होगा, हटाने का प्रयास होगा, वहाँ उसका ठहरना नहीं हो सकता। यह रोग किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका शिकार नहीं बना सकता। प्रकाश के अभाव का नाम ही अंधकार है। वैसे स्वतंत्र रूप से अंधकार है। वैसे स्वतंत्र रूप से अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं इसी प्रकार लापरवाही भी स्वतंत्र चीज नहीं है। जागरूकता का अभाव ही लापरवाही है। जैसे स्नान करना या न करना, टहलने जाना न जाना अपने हाथ की बात है उसे प्रकार मन को जागरूक रखना या न रखना भी अपने हाथ की बात है। मन की उदासीनता रूपी बाधा को हटा दिया जाए तो हर एक व्यक्ति पूर्ण रूप से क्रिया कुशल और सफल मनोरथी हो सकता है।
जो व्यक्ति जागरूक बनना चाहता है, उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि मैं जाग्रत जीवन व्यतीत करूँगा। आत्मगौरव की रखा के लिए अपने हर एक कार्य को सफल और सुंदर बनाने प्रयत्न करूँगा। जीवन के बहुमूल्य क्षणों का अत्यंत सावधानी के साथ सुव्यवस्थित ढंग से सदुपयोग करूँगा। यह प्रतिज्ञा जिह्वा के अग्रभाग से नहीं वरन् अंतः करण के गहनतम प्रदेश से की जाती चाहिए। लापरवाही से होने वाली भयंकर हानियों पर बहुत समय तक गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। जिन लोगों के लापरवाही के कारण जीवन दुर्दशाग्रस्त हो रहे है, उनकी दशा का सुविस्तृत चित्र कल्पनालोक में खींचना चाहिए और यदि उनमें यह दोष न रहा होता तो कितना आगे बढ़ गए।
एक वे हैं जो लापरवाही के कारण ऊँचे से नीचे गिरे, दूसरे वे है। जो जागरूकता के कारण नीचे से ऊँचे चढ़े है। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों की आरंभिक और अंतिम अवस्था के अंतर को ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि सावधानी में कितनी महानता और असावधानी में कितनी भयंकरता भरी पड़ी है। इस महानता ओर भयंकरता को एक-एक करके अपने जीवन से संबद्ध होने की कल्पना करनी चाहिए और मस्तिष्क में एक छायाचित्र बनाना चाहिए कि यदि भूतकाल में मैंने असावधानी न बरती होती तो अब तक कितना आगे मेरी कितनी उत्तम दशा रही होती। अनेक उदाहरणों, तर्कों, प्रमाणों और कल्पनाओं के साथ मन के सामने रख चिंतन करने से भीतर से एक स्फुरणा उत्पन्न होती है। यदि वह स्फुरणा कायम रखी जा सके तो मनुष्य जागरूक बन सकता है।
जीवन को जाग्रत बनाने के लिए दो बातों की प्रधान रूप से आवश्यकता है। एक तो समय कार्य विभाजन, दूसरे अपने कार्यों में रुचि। प्रातः काल उठते ही दिनभर का कार्यक्रम बना लेना चाहिए एवं रात को सोते समय देखना चाहिए कि उस कार्यक्रम बना लेना चाहिए एवं रात को सोते समय देखना चाहिए कि उस कार्यक्रम पर अमल हुआ या नहीं। बहुत काम करना अच्छी बात है, पर को उत्तमता से पूरे मनोयोग से किया जाए। यदि आप जीवितों का जीवन जीना चाहते है तो जाग्रत रहिए, अपने हर काम को सावधानी और सतर्कता के साथ कीजिए। स्मरण रखिए जाग्रत मनुष्यों को ही जीवन फल मिलता है।