इनसानियत है अभी दुनिया में

November 1994

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“बाबू जी ! आज तो आप कही न जायँ।” बेटी की इस गुहार के बीच कोई नीचे से गिड़गिड़ा रहा था। उसका लड़का बीमार था और उसकी दशा बिगड़ती जा रही थी। आज कंपाउन्डर आया नहीं था। अस्पताल बंद रखना कल शाम को निश्चित हो चुका था। वृद्ध डाक्टर अपने मकान के ऊपरी तल्ले में बैठे अपनी लड़की से श्रीमद्भागवत का बंगला अनुवाद सुन रहे थे।

“मैं डाक्टर हूँ बेटी।” स्निग्ध स्वर में उन्होंने कहा मेरी आवश्यकता हिंदू-मुसलमान को समान रूप से है। कोई इस बुड्ढे को मारकर क्या पावेगा?

“उत्तेजना मनुष्य को पिशाच बना देती है।” दूर से अल्ला हो-अकबर का कोलाहल सुनाई दे रहा था।” दादा कलकत्ते गए और पूरे दो सप्ताह हो गए लौटे नहीं। मैं अकेली रह जाऊँगी यहाँ नहीं आप इस दंगे के समय कहीं नहीं जा सकते।” पिता के हाथ के हैंड बैग को पकड़ लिया उसने।

“डाक्टर साहब।” नीचे से करुण आवाज आयी। “मेरी बच्चा। खुदा आपका भला करेगा। बच्चे को बचाइए।”

“मैं डाक्टर हूँ। मेरा कर्तव्य है यथा संभव रोगी को बचाने का प्रयत्न। बड़े स्नेहपूर्वक पुत्री के मस्तक पर हाथ फेरा उन्होंने। “मुझे कर्तव्य से विमुख करेगी रुक्मा? श्याम सुन्दर तो है ही तेरे समीप सिंहासन पर विराजमान” श्रीकृष्ण के भव्य चित्र की ओर संकेत था डाक्टर का।

“ तो तुम शीघ्र लौट आना।” हैंडबैग छोड़ दिया रुक्मिणी ने। “आज कुछ न कुछ होकर रहेगा। लक्षण अच्छे नहीं दिखाई पड़ते हैं।” आप जानते हैं कि नोआखाली जिले के श्री रामपुर के लिए वह दंगे का प्रथम दिवस कितना भयंकर था।

“ जो सर्वेश की इच्छा।”डाक्टर कच्चे आस्तिक नहीं हैं “जो वह चाहेगा वही होगा मैं यहाँ रहूँ तो भी क्या? उसकी इच्छा में बाधा थोड़े ही दे सकूँगा? उसी के विश्वास पर है बेटी।”वातावरण से वृद्ध अपरिचित नहीं थे और न उसको छिपाने का प्रयत्न किया उन्होंने। एक हाथ में हैंडबैग और दूसरे में इंजेक्शन बॉक्स लिए वे खट् खट् सीढ़ियों से नीचे उतर गए।

“दादा कलकत्ते से नहीं लौटे।” डाक्टर के ज्येष्ठ पुत्र किसी कार्यवश कलकत्ता गए थे और उन्हीं दिनों वहाँ दंगा हो गया था। अब तक उनका कोई पता लगा नहीं। पिता-पुत्री बराबर चिंतित रहते हैं। आशंका उठती है- कहीं ......। स्नेह मना करता है अमंगल धारण को। “ वे अवश्य जीवित होंगे। आने का मार्ग न मिलता होगा। रेले भी तो रुकी पड़ी है।”

रुक्मिणी ने पुस्तक वहीं खुली छोड़ दी। वह खिड़की के समीप आकर खड़ी हो गयी। और अपने वृद्ध पिता की ओर एकटक देखती रहीं। जब वे एक मैले-कुचैले मुसलमान के पीछे सड़क पर चले जा रहे थे, वही दृश्य बार-बार याद आ रहा था।

“ बेचारे बापू” एक दीर्घ निःश्वास लिया उसने। कोलाहल समीप आता जा रहा था। “श्रीद्वारिकानाथ उनकी रक्षा करें।” खिड़की बंद कर दी उसने। सीढ़ियों से नीचे उतर का द्वारा भी बंद कर दिया। आज न तो नौकरानी आयी थी और न मजदूर। सबको अपनी-अपनी पड़ी थीं। ऊपर आकर वा सीधे पूजा की कोठरी में चली गयी चित्रपट के सम्मुख सुन्दर कश्मीरी आसन बिछा था। बैठने के बदले आनन पर मस्तक रख दिया उसने।

“इतने में धम्-धम् धड-धड की आवाजें आयीं वह उठी और खिड़की खोलकर नीचे झाँका उसने समीप का मकान धूँ-धूँ करके जल रहा था। कुछ लोग पेट्रोल के पीछे खोल रहे थे। कुछ मकानों पर छिड़क रहे थे। हाथों में छुरे भाले तलवार लाठी उद्धत भीड़ चीख रही थी। गालियाँ बक रही थी। कौन कह सकता था कि वे मनुष्य है पिशाचों का ताँडव हो रहा था नीचे सड़क पर।”

“तेल डालो और माचिस लगा दो।” उसका हृदय धक से हो गया बाहरी फाटक से कूदकर सामने छोटे से मैदान में भीड़ भर गयी थी। पेट्रोल के पीपे सड़क से घेरे में फेंके किस ने। कुछ लोग मकान का दरवाजा पीट रहे थे। “इस बुड्ढे खूसट के यहाँ रखा भी क्या होगा। एक नंबर का काइयाँ है। बैंक में ही रखता होगा पूरा मालमता। दरवाजा नहीं टूटता तो लगाओ माचिस और पार करो।”

“गजब की खूबसूरत हैं।” किसी दुष्ट की दृष्टि खिड़की पर पड़ गयी। भद्दे ढंग से हँसते हुए वह चिल्लाया “चाँद है चाँद रुक्मिणी ने पीछे हटकर खिड़की बंद कर ली। उसने देख लिया था कि एक टीन फोड़ डाला गया है और कई गुँडे पेट्रोल छिड़कने लगे है उसके मकान पर।

“फूँको मत। मैं तो उस ख्बरु को लेकर रहूँगा। आज अभी........। उसके अश्लील शब्दों पर असुरता को भी लज्जा आयी होगी। दरवाजे पर और भयंकर आघात होने लगे।

“दादा, बापू।” वह उन्मत्त सी चिल्ला उठी। इधर उधर कमरों में दौड़ने लगी। डेस्क संदूक भड़भड़ा डाले उसने। कोई तो बचाने आता। कहीं भी तो ऐसा स्थान नहीं जहाँ इन पिशाचों से परित्राण मिले छिपने पर। कोई भी ऐसा अस्त्र-शस्त्र तो नहीं जिसे लेकर वह एकाकी अबला इन नृशंस असुरों का सामना कर सके।

साड़ी पृथ्वी में लोट रही थी। शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। नेत्र टेसू के फूल बन गए थे। उनमें का पानी सूख गया था। वह काँपती लड़खड़ाती एक से दूसरे कमरे में दौड़ रही थी।

“बापू का पिस्तौल !” दौड़कर बैठक में पहुँची। “हाय डेस्क तो बंद है। टूटता भी तो नहीं।” पत्थर दे मारा उसने डेस्क पर। द्वार पर प्रहार बढ़ते जा रहे थे। वह चरमरा रहा था। भीड़ चिल्ला रही थी। वह डेस्क पर पत्थर पटक रही थी।

“अरर धड़ाम।” कर्राकर द्वार भीतर की ओर गिर पड़ा। भीड़ का तुमुलनाद गूँजा “अल्ला हो अकबर।” डेस्क टूटा नहीं था। भागी वह बैठक से ऊपर को। ऊपर बड़ी भीड़ मकान में पिल पड़ी थी।

“तुम हाँ तुम्हीं अब मुझे बचाओ। श्याम सुन्दर।” सीधे दौड़ती हुई पूजा की कोठरी में पहुँची। उस कोठरी का द्वार बंद करना भी भूल गयी थी। मस्तक पटक दिया उसने मूर्ति के सम्मुख बिछे अपने ही नित्य बैठने के आसन पर।” रुक्मिणी तुम्हारी है हाँ तुम्हारी है हाँ तुम्हारी ही है। अपनी रुक्मिणी की ही भाँति हाथ पकड़ कर दस्युओं के बीच से उठा लो या फेंक दो इन भूखे भेड़ियों के सम्मुख एक माँस खंड के समान।”

उसे लगा कि कमरा आलोक से जगमगा उठा है। दिन में भी कमरे में कोई दूसरा सूर्य उदित हो गया है। आगे कुछ देख न सकी वह। संज्ञा-शून्य हो गया था उसका शरीर।

“भागों ! भागों! पेट्रोल के खुले पीपे में कोई चिनगारी पड़ गयी थी। मकान पर छिड़के पेट्रोल ने अग्नि पकड़ ली थी। लपटें क्षितिज को चूमने ऊपर दौड़ रही थीं और मकान ने घुसी भीड़ सिर पर पैर रखकर मकान से बाहर भाग रही थी।”

“अपनी कोठी से उठती आग की लपटों की एक झलक वृद्ध डाक्टर ने उस मुसलमान के घर से देखी और वह जाने के लिए उतावले हो उठे।” डाक्टर साहब। इस समय आप मेरे घर से बाहर हरगिज नहीं जा सकते। वही मैला कुचैला मुसलमान सामने खड़ा था, जो डाक्टर को यहाँ तक ले आया था। द्वार बंद कर दिया था उसने।

“तुम्हारे लड़के को अब दूसरे इंजेक्शन की जरूरत नहीं होगी।” अनुनय किया डाक्टर ने। “ मैं दवा दे चूका हूँ। उसका ज्वर उतर रहा है। हाय, मेरी रुक्मा। उधर ही से शोर आ रहा है। वह देखो मेरी कोठी के पास लपटें उठ रही है। तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ।”सचमुच वृद्ध ने उसके पैरों पर मस्तक रख दिया।

“लड़का मर भी जाय तो भी मैं परवाह नहीं करता मुझे आपकी चिंता है।” जल्दी से पीछे हटकर उसने डाक्टर को उठाया अपने पैरों से। “वहाँ शैतानों के बीच में मैं आपको नहीं जाने दे सकता। किसी भी तरह नहीं। मौत के मुँह में आप जा रहे हैं। वे सब आज न मुसलमान हैं और न आदमी। शैतान सवार है उनके सिर। कुछ नहीं देखेंगे वे। आप उम्मीद नहीं कर सकते कि वे आपको जिंदा छोड़ देंगे।” दरवाजे से पीठ लगाकर वह अटल अडिग खड़ा हो गया।

“मरने दो फिर एक काफिर को।” डाक्टर अधीर हो रहे थे। पिस्तौल लाये होते तो अवश्य उसे गोली मार देते और निकल जाते सड़क पर। “ हाय रुक्मा का पता नहीं क्या हाल होगा। मुझे जाने दो सवाब होगा, तुम्हें”

“अपना सवाब मैं खूब जानता हूँ।” इस भयानक परिस्थिति में भी वह हँस पड़ा। “मैं इनसान हूँ और मुसलमान हूँ। मैं जानता हूँ कि मुझे अपने पड़ोसी के साथ कैसे रहना चाहिए। अपने पर एहसान करने वाले के लिए क्या करना चाहिए। मुझे शैतान धोखा नहीं दे सकता। क्योंकि मैं एक ठीक मुसलमान हूँ।”

“मुझे किसी भी तरह जाने दो।” डॉक्टर फिर गिड़गिड़ाए। मैं पहुँचते ही तुम्हें पाँच हजार रुपये दूँगा।”

उनकी वाणी में आग्रह अनुनय एवं करुणा सब भर गयी थी। कोलाहल इधर ही बढ़ता आ रहा था।

“ डाक्टर साहब!” जैसे सावधान कर रहा हो वह। “ आप मुझे फुसला नहीं सकते। बच्चा नहीं हूँ मैं। लोग इधर ही आ रहे हैं। हमीदा की माँ ! अगर कोई आवाज दे तो तू कह देना कि कोई घर में नहीं है। वह भी तो तुम लोगों के साथ भीड़ में ही गए हैं। अपनी स्त्री को आदेश दिया उसने।”

“मैं झूठ नहीं बोलता।.......”

“अच्छा, मेहरबानी करके जबान बंद कीजिए। कतई बंद।” उसने कठोर स्वर से कहा। भीड़ का कोलाहल बहुत पास आ गया था। “अगर आपने फिर कुछ कहा तो मैं मजबूत हो जाऊँगा कि आपके हाथ पैर बाँध दूँ और मुख में .........। “ अपना तेल से चीकट बदबूदार गमछा दाहिने हाथ से उठाकर डाक्टर के सामने कर दिया उसने।

बेचारे डाक्टर-वे समझ गए कि आज बुरे फँसे है। यह कठोर आदमी जो कुछ भी कह रहा है, उसको करने में उसे एक मिनट भी नहीं लगेगी। उनके वृद्ध शरीर में इस हट्टे कट्टे तरुण का प्रतिकार करने की शक्ति नहीं है। नेत्रों में अश्रु भर कर बड़ी दीनता से उन्होंने उसकी ओर देखा।

“ आप वहाँ बैठ जाइए।” कंठ स्वर मृदुल हो गया था। एक खाली चारपाई की ओर संकेत था। एक खाली चारपाई की ओर संकेत था उसका जो एक कोठरी में बिछी थी। भीड़ को निकल जाने दीजिए। मैं जाकर बिटिया का पता ले आता हूँ। हो सकेगा तो उसे यही लिवा लाऊँगा। आपका वहाँ जाना ठीक नहीं है जब तक हालत सुधर नहीं जाती आपको इसी गरीब खाने को अपना मकान मानना होगा।”

उसने जाकर देखा सारी कोठी जल गयी थी। मकान का बहुत सा भाग टूटकर गिर पड़ा था। अभी भी लपटें इधर-उधर उठ रही थी। मेज, कुर्सी तथा दूसरे लकड़ी के जलने योग्य पदार्थ अब भी धधक रहे थे। उस्मान का ही साहस था उस आँवे से तपते भट्टे में प्रवेश करने का।

“ जल तो नहीं गयी। वे सब उठा तो नहीं ले गए?” वह बार बार पुकार रहा था। कुछ आधी गिरी कोठरियों में भीतर जाना किसी प्रकार संभव नहीं था। भीतर धुंआ भरा था और लपटें फुफकार रही थी। झाँककर पुकार कर वह इधर उधर ढूँढ़ रहा था किसी को।

“ओह मेरी बिटिया।” जैसे कोई निधि मिल गयी हो। जीने का पता नहीं था। गिरी हुई ईंटों पर से ही बचता बचाता ऊपर आया था वह। आधी छत गिर चुकी थी मोटे देशी जूते के भीतर भी पैरों के तलवे भुने जा रहे थे। एक कोने में एक कोठरी पूरी खड़ी थी। उसका बाहरी भाग तो जल गया था, लेकिन दरवाजा बचा था और शायद अग्नि की लपटें उसमें घुसने की हिम्मत नहीं कर सकीं थी। धुंआ जरूर भर गया था उसमें।

दूर से ही उसने देख लिया कि कोई लड़की जमीन पर सिर रखे औंधी पड़ी है और कुछ देखने के लिए न अवकाश था और न वह देखना ही चाहता था। धड़धड़ा कर कमरे में घुस गया। लड़की मूर्छित थी। उसने खुले सिर पर हाथ रखा।

“ श्याम सुन्दर।” स्पर्श ने उसे चौका दिया। चीख पड़ी वह। अपने आप घुटनों में अधिक सिकुड़ने का प्रयत्न किया उसने। वह समझ गया कि बुरी तरह डर गयी है लड़की।

“बापू। चेतना लौट आयी। उसने उठने का प्रयत्न करते हुए बिना देखे ही प्रश्न किया।” बापू कहाँ हैं? “तुम यहाँ कैसे आए? बापू का क्या किया तुमने? उसे देखते ही लड़की ने पहचान लिया। चौंक पड़ी डर गयी और ढेर प्रश्न कर डाले।

“मैं दुश्मन नहीं हूँ। डरो मत।” आश्वस्त करना पहले जरूरी था। स्निग्ध स्वर का प्रभाव लड़की पर पड़ रहा हैं, यह उसने लक्षित कर लिया। “ तुम्हारे बापू मेरे घर सुरक्षित हैं। भले चंगे है वे।”

“बापू अच्छे हैं?” बड़ी उत्सुकता से पूछा उसने। हाँ वे अच्छे हैं। तुम्हें भी उन्होंने बुलाया है। तुम्हारा यहाँ रहना अब भी खतरे से खाली नहीं है बहुत धीरे धीरे कह गया वह।

“तुम्हारे घर?” एक मुसलमान के घर? आशंका से उसका हृदय भर गया।” नहीं- मैं तुम्हारे घर नहीं जाऊँगी। तुम यहाँ से चले जाओ।” उसने फिर भरी दृष्टि से अपने सिंहासनस्थ भगवान की ओर देखा। उसे लगा वह चित्र मुस्कुरा रही है।

“मुसलमान के घर नहीं अपने बाप के घर अपने घर।” उस गंदे कपड़ों वाले मुसलमान के नेत्रों में पवित्र उज्ज्वल अश्रु झिलमिला आए। बेटी! क्या मुसलमान इनसान नहीं होता। “

“हो सकता है।” अविश्वास की भी एक सीमा होती है। हृदय अच्छी प्रकार हितेच्छु हृदय को पहचानने की शक्ति रखता है। “मैं अपने श्याम सुन्दर को छोड़कर कहीं नहीं जा सकती।”

“इनको भी ले चलो बेटी।” उसके नेत्र झरने लगे। दूसरों की धार्मिक भावना का आदर करना वह खूब जानता है।” इस गरीब बाप के झोंपड़े को भी इनके कदमों से पाक बनने दो। मैं तुम्हारे और इनके लिए एक पूरी कोठरी खाली कर दूँगा बेटी! कोई दिक्कत नहीं होगी तुम्हारी पूजा में।

वचनों में अंतर की सच्चाई थी। उसने चित्रपट को उठाकर हृदय से लगा लिया और उसी मुसलमान के पीछे पीछे चल पड़ी। हृदय से लगा वह नटनागर ज्यों का त्यों मुस्कुरा रहा था।

क्या ये घटनाक्रम अब फिर से नहीं दुहराये जा सकते? मानव धर्म तो यही कहता है कि सभी बंदे उसी परवरदिगार के परम पिता परमात्मा के ही बेटे बेटियाँ है। फिर नासमझी क्यों? जाति पंथ संप्रदाय के नाम पर ऐसे हिंसक ताण्डव रचवाती है? संभव है, यह संधिकाल की परीक्षा घड़ी हो, जब असुरता अपनी चरम सीमा पर है। देवत्व कहीं न कहीं तो है। प्रसुप्त है तो जायेगा अवश्य हर हिंदू में से मुसलमान में से क्रिश्चियन व पारसी में से। यही वक्त का तकाजा भी है।


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