लोकमानस को साधक स्तर के सृजेता बदलेंगे

November 1994

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संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्य के लिये एक विशेष योग्यता और शक्ति की आवश्यकता होती हैं अनेक व्यक्ति कुछ महत्वपूर्ण कार्य करने की आकांक्षा तो करते हैं पर उनको करने के लिए जिस क्षमता एवं शक्ति की आवश्यकता है उसे संपादित नहीं करते फलस्वरूप उन्हें सफलता से वंचित ही रहना पड़ता है। जिनने भी कोई बड़ा पुरुषार्थ किया है बड़ी विजय प्राप्त की है बड़ी विजय प्राप्त की है उनने तात्कालिक परिस्थितियों से ही सब कुछ नहीं कर लिया होता वरन् उनकी पूर्व तैयारी ही उस सफलता का मूल कारण रही होती है।

जन मानस में से दुष्प्रवृत्तियों हटाकर उनके स्थान पर सद्प्रवृत्तियों की स्थापना करना अत्यंत ही उच्चकोटि का अत्यंत ही महत्वपूर्ण कार्य है। उसकी तुलना में और सभी सत्कार्य तुच्छ बैठते हैं। विवेकशील उच्च आत्माएँ समय समय पर इस आवश्यकता को अनुभव करती है और वे लोक मानस में सत्प्रवृत्तियां बढ़ाने के लिये प्राणपण से प्रयत्न करती रहती है। यह कार्य जितना ही महान है उतनी महान ही क्षमता और शक्ति भी इसके लिये अपेक्षित होती है। यदि उसका अभाव रहा तो इस प्रकार की कामना और भावना रहते हुए भी कुछ विशेष सफलता नहीं मिलती।

आज का वातावरण बहुत हद तक दूषित हो चला हे। उसमें आसुरी तत्व एक बड़ी मात्रा में उत्पन्न हो रहे हैं। अनीति अन्याय अधर्म और अकर्म का चारों ओर बोलबाला है। स्वार्थ पाप वासना तृष्णा ममता और अहंकार की तमती बोल रही हे। एक दूसरे का शोषण करके सताकर अपना सिद्ध करने में कटिबद्ध हो रहे है। प्रेम की उदारता सहृदयता सेवा ओर सज्जनता की मात्रा दिन दिन घटती जा रही है फलस्वरूप ऐसी घटनाओं की बाढ़ आ रही हे जिनमें चीत्कार एवं हाहाकार की भरमार रहती है। लगता हे कि यह प्रवृत्तियाँ बढ़ती रही तो मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ जायगी। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में विनाश की एक बड़ी शक्ति दे दी है। एटम शक्ति के आधार पर किसी सिर फिरे का एक छोटा सा पागलपन कुछ ही क्षणों में सारे संसार के लिये तबाही उत्पन्न कर सकता है। ऐसे जमाने में इस बात की अत्यधिक आवश्यकता है कि लोग सज्जनता और मानवता के आवश्यक गुणों से संपन्न हो अन्यथा विज्ञान से प्राप्त हुई शक्ति दुर्गुणों से ग्रसित मानव शोक संताप के गहन गर्त में आसानी से बात की बात डूब मरने की परिस्थिति पैदा कर लेगा।

इस ओर विवेकशील लोगों का ध्यान गया है। वे लोग सुधार के लिये अपने अपने ढंग से काम भी कर रहे है। प्रवचन और लेखन द्वारा यह कार्य सरल ही सकता है। उस विचार से अनेकों उपदेशक प्रवचनकर्ता लेखक पत्रकार बहुत प्रयत्न कर रहे है। अनेक सभा सोसाइटियां इसी उद्देश्य के लिये विविध मनोरंजक आयोजनों की व्यवस्था करती रहती है। सरकारें भी इसके लिये सचेष्ट है। राजनीतिक कर्णधार जनता की सज्जनता अपनाने की अपीलें करते रहते हैं। उनके प्रचार साधन रेडियो चलचित्र बुलेटिन विज्ञानी पत्रिकाएँ आदि कार्य भी इसी उद्देश्य के लिये विविध विविध मनोरंजक आयोजनों की व्यवस्था करते रहते हैं, किंतु जब विचारपूर्वक इन सब कार्यों के परिणामों को देखा जाता है तो भारी निराशा होती है। लगता है कि प्रयत्नों की तुलना में परिणाम की मात्रा नगण्य है। बुराइयाँ जितनी तेजी से बढ़ रही है और सुधार के प्रयत्न जिस प्रकार निष्फल से सिद्ध हो रहे है उसे देखते हुए हर विचारशील व्यक्ति के मन में व्यथा होना स्वाभाविक है।

यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण हे कि लोक मानस में से दुष्प्रवृत्तियों को हटाकर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को स्थापित करने का वास्तविक उपाय क्या है? इसका उतर ढूंढ़ने के लिये हमें इतिहास के पृष्ठ उलटने पड़ेंगे और यह देखना पड़ेगा कि जिन महापुरुषों ने इस प्रकार की विषम परिस्थितियों से अपने समय में जन मानस को सुधारा था उनमें क्या विशेषता थी जिसके कारण वे स्वल्प साधनों से ही चमत्कार उत्पन्न कर सके जब कि हमारे आजकल के सुधारक विविध विधि साधनों से संपन्न होने पर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं।

पूर्व काल में लाखों करोड़ों वर्षों तक सतयुग की सुख शाँति भरी परिस्थितियाँ इस संसार में बनी रही है। इसका कारण एक ही रहा है उस समय के लोकनायक और मार्गदर्शक आत्म शक्ति से संपन्न रहे केवल वाणी से नहीं अपनी आँतरिक महानता की किरणें फेंक कर मानस को प्रभावित करते रहे, मस्तिष्क की वाणी मस्तिष्क तक पहुँचती है और आत्मा की आत्मा तक। कोई सुशिक्षित व्यक्ति अपनी ज्ञान शक्ति का लाभ सुनने वालो को जानकारी बढ़ाने के लिये दे सकता है पर अंतः करण में जमी हुई आस्था में हेरफेर करने का कार्य ज्ञान से नहीं आत्म शक्ति से ही संपन्न होना संभव हो सकता हे। प्राचीन काल के लोकनायक, ऋषि मुनि इस तथ्य को भली भाँति जानते थे इसलिये वे दूसरों के उपदेश देने में उनकी बाह्य सेवा करने में जितना समय खर्च करते थे उससे कहीं अधिक प्रयत्न वे अपना आत्मबल बढ़ाने के लिये तप करने में लगाते थे। तप से ही वह आत्म शक्ति प्राप्त होती है, जिसकी प्रेरणा से किसी के मन पर जमे हुए बुराइयों के आकर्षक कुसंस्कारों को हटाकर अच्छाइयों के कष्ट साध्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जा सके। प्राचीन काल के इतिहास पुराणों में यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट है। पिछले दो हजार वर्षों में भी इसी आधार पर जन मानस का सुधार एवं परिवर्तन करना सींव होता रहा है। भगवान बुद्ध के मन में अपने तथा संसार के दुखों का निवारण करने की आकांक्षा जगी। इसके लिये वे 25 वर्ष की आयु में घर से निकल पड़े और 20 साल तक निरंतर विभिन्न स्थानों पर आत्म निर्माण एवं तप साधना में संलग्न रहें। 41 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने अंदर परिपक्वता अनुभव की तो दूसरों को शिक्षा देने के कार्य में हाथ लगाया। भगवान महावीर ने अपनी आयु का तीन चौथाई भाग तप में और एक चौथाई भाग धर्मोपदेश में लगाया। इन दोनों महापुरुषों ने उपदेश उतने दिये जितने आज के मामूली उपदेशक दे देते हैं। तब भी उनका प्रभाव पड़ा और आज भी संसार की एक चौथाई जनता उनकी शिक्षाओं पर आस्था रखती है।

जगद्गुरु शंकराचार्य ने उत्तराखण्ड में जोशी मठ स्थान पर उग्र तप किया था। बत्तीस वर्ष की आयु लेकर आये थे। विद्या पढ़ने के बाद लगभग 12 वर्ष उनके जीवन में काम करने के लिये शेष थे। इनमें से भी आधा समय उनने तप में लगाया और शेष 6-7 वर्षों में ही अपनी आत्मशक्ति के बल पर वैदिक धर्म के उद्धार के लिये अत्यंत प्रभावशाली कार्य कर डाला। गुरु नानक की तपश्चर्या प्रसिद्ध है। गुरु गोविन्द सिंह ने हिमालय में लोकपत स्थान पर जहाँ घोर तप किया था वह स्थान आज भी सिख धर्मानुयायियों का तीर्थ बना हुआ है। यदि इन गुरुओं के पास तप की पूँजी न रही होती तो वे दुर्धर्ष यवन काल में हिंदू धर्म रक्षा के लिये इतना अद्भुत कार्य कर सकने में कदापि समर्थ न हो सके होते।

समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी सरीखे कितने ही महापुरुष शिवाजी सरीखे कितने ही महापुरुष तैयार किये थे। इतिहास के पृष्ठो पर उनमें से अकेले शिवाजी ही चमके पर उस तरह के सैकड़ों धर्म सैनिक उनने बना कर दिये थे। इस निर्माण में उनकी आत्मा का प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता था। स्वामी दयानंद 19 वर्ष की आयु में घर से निकले और 14 की आयु में अपने आपको धर्म प्रयास के योग्य बना सके। संवत् 1927 के कुंभ में हरिद्वार में उनने प्रखण्ड खण्डिनी पताका फहराई और धर्मोसंदेश किये पर उनका कुछ विशेष प्रभाव न पड़ा। इसका कारण उनने अपनी आत्म बल की न्यूनता समझी और तीन वर्ष के लिये पुनः तप करने उत्तराखंड के अज्ञात स्थानों को चले गये। गंगोत्री के पास कराली की गुफाओं में रहकर उनने तपस्या की और जब अंदर आत्म प्रकाश देखा तो कार्य क्षेत्र में उतरे। उस समय उनकी वाणी में दैवी तेज था। उसी बल पर वे अकेले ही इतना कार्य कर गये। जितना भी आज नहीं कर पा रही है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस 41 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए 40 वर्ष की आयु तक वे विशुद्ध रूप से साधनारत रहे। एक दिन उन्हें लगा कि उनके शिष्य होने वाले है एक वर्ष तक वे शिष्यों की प्रतीक्षा करते रहे फिर ब्रह्मानंद शिवानंद विवेकानंद जैसे थोड़े से प्रतिभा संपन्न शिष्य घर बैठे प्राप्त हुए और उन्हीं के सहारे उनकी आत्मा ने संसार को इसी प्रकार संसार में आदि काल से लेकर अब तक एक ही तथ्य समय समय पर स्पष्ट होता रहा है कि तपश्चर्या द्वारा आत्मबल संपादित करने वाली आत्माएँ ही संसार का सच्चा मार्ग दर्शन करने और जन मानस को शुद्ध करने में समर्थ हो सकती हैं।

आज लोक मानस निम्न में से निम्नस्तर की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। उसे सँभालने और सुधारने की निताँत आवश्यकता है। पर यह कार्य आत्मबल से रहित तपश्चर्या से विहीन व्यक्तियों द्वारा संपन्न नहीं हो सकता भले ही वे सभा सोसाइटियों के द्वारा भाषणों, लेखों,योजनाओं, प्रदर्शनों के द्वारा इसके लिये सिर तोड़ प्रयत्न करते रहें। यह महान कार्य महान आत्माओं के अनेक गुणों में प्रमुख एक तपश्चर्या भी है। जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकता।

अतीत इतिहास के पृष्ठ हमें इसी ओर निर्देश करते हैं। लोकमानस की शुद्धि का महान भार वाचालों के नहीं तपस्वियों के कंधे पर रहेगा। युग की प्रतीक्षा कर रही है।

लोक नायकों को चाहिए कि वे जनता को अपने उच्चस्तरीय कार्यों आदर्शों व करनी द्वारा प्रेरणा दे। श्रेष्ठ वातावरण बनने के लिए सृजेता स्तर के तपस्वी ही सच्चा योगदान दे पाएँगे।


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