आद्यशक्ति की साधना एवं सिद्धियों से साक्षात्कार

November 1994

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गायत्री उपासना के महिमा बखान से शास्त्र भरे पड़े है। इससे भौतिक और आत्मियता सफलताएँ जिस प्रकार साथ साथ अर्जित की जा सकती हैं, वैसा सुयोग अन्य मंत्रों के साथ कदाचित् ही देखने को मिलता है यह इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है। इसी के साथ इसमें एक कड़ी यह भी जुड़नी चाहिए कि जितनी सामर्थ्य महापुरुषों की अहैतुकी कृपा को आकर्षित करने की इसमें है उतनी शायद किसी अन्य में नहीं।

घटना खिदिरपुर (चिनसुरा) कलकत्ता की है। फणीद्रंनाथ घोष तक वहाँ सब डिप्टी मजिस्ट्रेट थे एवं अच्छे गायत्री साधक भी। नित्य प्रति ब्रह्ममुहूर्त में उपासना करना फिर कचहरी जाना और वहाँ से लौटने के उपरोक्त लोकसेवा में जुट पड़ना यह उनको नियमित दिनचर्या थी। पिछले इस वर्षों से अप्रतिहत उसका उक्त क्रम सुना आ रहा था। समय ज्यों गुजरता जा रहा था, वैसे ही वैसे उसमें इष्ट दर्श की अभीप्सा भी जीव में तीव्रतर होती जा रही थीं एक प्रातः जब वे उपासना की तैयारी करने में जुटे थे, तो उन्होंने अपने पूजा कक्ष की खिड़की से एक छायामूर्ति को अन्दर आते देखा वह छायामूर्ति उनसे करीब छः फूट की दूरी पर आकर सामने खड़ी हो गई। दरवाजा अन्दर से बंद था और कक्ष के दोनों खिड़कियों में लोहे की छड़ें लगी हुई थी, इसलिए निकट खड़ी मानव मूर्ति के स्थूल देहधारी होने की संभावना समाप्त हो गई। उनके मन में विचार उठा कि यह कोई दिव्य देहधारी महापुरुष हैं और निश्चय ही किसी विशेष प्रयोजन के लिये यहाँ उपस्थित हुए हैं यह बात मानव में उठते ही छाया पुरुष ने एक स्निग्ध मुसकान बिखेर दी, स्वीकृति में सिर हिलाया और कही” तुम्हारी उपासना और अकुलाहट ने मुझे यहाँ आने के लिए विवश कर दिया। शायद न भी आता पर जहाँ स्वयं आद्यशक्ति विराजमान हों, वहाँ मेरा नहीं आना, विश्वमाता के अपमान के समान होता इसलिए उपस्थित होना पड़ा। चलो चले। इतना कहकर मुण्डित मस्तक, गौर वर्ण काषाय वस्त्र धारी महात्मा ने अपना एक हाथ आगे बढ़ाया, किंतु फणीन्द्रनाथ ने यह कहते हुए असमंजस दर्शाया कि आप तो सूक्ष्म शरीर धारी हैं, इस प्रकार की दिव्य देह धारण कर सकने की क्षमता मुझमें नहीं। फिर भला मैं आपके साथ कैसे चल सकता हूँ? यह प्रश्न सुनकर उन अल्पवयस्क महापुरुष ने अपना बांया हाथ आगे बढ़ाया उससे उनकी दाहिनी कलाई पकड़ी कहा चलो अब कोई समस्या नहीं। इतना कहते ही उन्होंने देखा कि दोनों के शरीर हवा में तैरते हुए कमरे से बाहर निकल गये।

वह दिव्य पुरुष फणीन्द्रनाथ के हाथ थामें बड़ी द्रुत गति से ऊपर अंतरिक्ष में बढ़े चले जा रहे थे। काफी ऊँचाई पर पहुँचने पर उन्होंने पृथ्वी की ओर इशारा करते हुए बताया कि जितनी मंथर गति इसकी मालूम पड़ती है, वस्तुतः उतना मंद वेग इसका है नहीं। फणीन्द्रनाथ ने देखा कि सचमुच पृथ्वी बहुत भीषण वेग से घूम रही है। दोनों और आगे बढ़े। रास्ते में पड़ने वाले मंगल ग्रह की ओर महात्मा ने इंगित किया और उसके लाल रंग एवं गति के बारे में विस्तार समझाया।

देवपुरुष एक ऐसे मार्ग से आगे बढ़ रहे थे, जो सूर्य से काफी फासले से होकर निकल रहा था। उनकी गति और भी क्षिप्र हो गई। अब वे ऐसे वेग से बढ़ रहे थे, जिसकी तुलना किसी भी भौतिक गति से नहीं की जा सकती थी। कुछ दूर इस प्रकार चलने के बाद प्रकाश पुरुष का स्वर गूँजा। रुको। दोनों रुके, तो उन योगी ने अंतरिक्ष के उस विशेष भाग का परिचय देना आरंभ किया। कहा-देखो यह वह स्थान हैं, जहाँ रात दिन एक जैसी स्थिति बनी रहती है। न प्रकाश है, न अंधकार ही। कोई शब्द भी नहीं। पूर्ण शाँति छायी हुई है।” इस स्थल पर पहुँच कर फणीन्द्रनाथ को ऐसा आभास होने लगा, जैसे उनका सूक्ष्म शरीर और अधिक हल्का हो गया हो और उन्होंने कोई अन्य और भी ज्यादा सूक्ष्म देह धारण कर लिया हो।

कुछ क्षण रुक कर वहाँ देखने के बाद उनकी यात्रा पुनः आरंभ हुई। देवमूर्ति ने कहा- जितनी दूर हम आये हैं उससे भी ज्यादा दूर अभी चलना है, इसलिए गति को और वेगवान बनाना होगा। इतना कह कर गति को उनने और अधिक बढ़ा दिया। वे किस वेग से चल कर कितनी देर में अंतरिक्ष की किस गहराई में प्रवेश कर चुके थे

कहना मुश्किल है। थोड़ी दूर चलने के उपराँत देववाणी उभरी मन को तनिक एकाग्र करो और सुनो।” चित्त स्थिर होते ही गंभीर ओंकार ध्वनि कर्ण कुहरों से टकराने लगी। फणीन्द्रनाथ को ऐसा प्रतीत हुआ मानों शत शत मृदंग और झाँझे निनादित होकर यह नाद पैदा कर रहे है। नाद कुछ ऊपर उठ कर एक बिंदु पर केन्द्रीभूत हो रहा है, ऐसा आभास मिल रहा था। जहाँ यह दिव्य निनाद पुँजीभूत हो रहा था उस बिंदु से एक ज्योति धारा निस्मृत हो रही थी। बिंदु को घेरे हुए एक वृत्त था। उसके भीतर शुभ्र प्रकाश हो रहा था। केन्द्र से झरने वाली ज्योति कोटि सूर्य की आभा से भी अधिक उज्ज्वल और प्रकाशवान थी, ज्योत्स्नों से भी अधिक शीतल और शाँतिदायक थीं। इस प्रकाश धारा का निचला हिस्सा लाल नीला एवं बैगनी आभा लिए हुए था।

फणींद्रनाथ उस दिव्य ज्योति को निहार और नाद के सुनकर एक प्रकार से समाधिस्थ हो गये थे, तभी महात्मा की गंभीर वाणी प्रस्फुटित हुई यह जो शब्द सुनाई पड़ रहा हैं, वह ब्रह्माँडव्यापी है। अन्यत्र यह अव्यक्त बना हुआ है, पर प्रयासपूर्वक इसे सुना जा सकता है पर प्रयासपूर्वक इसे सुना जा सकता है। सृष्टि के आदि मूल यही है। इसी से इस विश्व की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार से उत्पन्न जगत के अंतर में यह नाद ही प्राण या जीवनीशक्ति के रूप में प्रकट होता है अनंत विश्व को गर्भ में धारण किये यही प्रसुप्त भुजंग के आकार में रहता है। इस अवस्था में इसका नाद भाव अभिभूत और प्राणात्मक भाव उन्मुक्त होता है। जब यह विश्व को गर्भ में धारण किये रहता है, तब इसका नाम पराकुँडली होता है। जब यह नादात्मक रूप में स्फुरित होता है, तब इसे वर्णकुँडली कहते हैं और जब यह नादरूप भी डूब कर गहरी सुषुप्ति में अवस्थान करता है तो इसे प्राणकुँडली के नाम से पुकारते हैं।

इतना कहकर मार्गदर्शक सत्ता मौन हो गई। फणीन्द्रनाथ अब भी उस तेज बिंदू की ओर मुग्ध भाव से देख रहे थे। जब उनसे न रहा गया, तो कह ही डाला मेरी उत्कट इच्छा हो रही है कि उस प्रकाश बिंदु में प्रवेश करूं और देखूँ कि वह क्या और कैसी अनुभूतियों से युक्त है। आप मुझे छोड़ दीजिए। मैं कुछ क्षण अन्दर रहकर फिर वापस आ जाऊँगा।

देवविग्रह मुसकराये बोले जितना सरल प्रकट रूप में यह लग रहा है, वास्तव में उतना आसान है नहीं जो शब्द तुम सुन रहे हों, वह और कुछ नहीं ब्रह्म है शब्द ब्रह्म और यह जो ज्योति केन्द्र है, वही ब्रह्मबिंदु हैं। उसको घेरे हुए जो प्रकाश पुँज है, वहाँ सत, रज तम यह तीनों गुण साम्य की अवस्था में है। सृष्टि वहाँ नहीं है। वहाँ से प्रस्फुटित होकर नीचे की ओर जो प्रकाश धारा फैल रही है, उसके अधोभाग में जो रंगीन आभा दिखाई पड़ती है, वहीं से सृष्टि बीज ब्रह्माँड में विकीर्ण होता है। इस समय तुम उस ब्रह्मबिंदु में प्रवेश के लिए मचल रहे हो, पर शायद तुम्हें नहीं मालूम कि यदि वहाँ प्रविष्ट हो गये, तो फिर बाहर न निकल सकोगे, कारण कि उस व्यूह से बहिर्गमन का रास्ता तुम्हें नहीं ज्ञात है। यदि ऐसा हुआ, तो पृथ्वी पर जो तुम्हारी स्थूल काया है, उसकी ओर सूक्ष्म शरीर के बीच का संबंध सूत्र भंग हो जायेगी। ऐसे में उत्तम यही है कि तुम कुछ समय और प्रतीक्षा करो मैं दुबारा आऊँगा और तुम्हें साथ लेकर ब्रह्मबिंदु में प्रवेश करूंगा। तब उससे बाहर आने का मार्ग भी बता दूँगा। आज यही तक रहने दो।”

इसके पश्चात् महात्मा मौन हो गये और अत्यंत वेग से फिर पीछे वापस लौट चले।कुछ ही समय में वे दोनों चिनसुरा वाले मकान में पहुँच गये। थोड़ी देर उपराँत स्थूल शरीर की तंद्रा टूटी तो फणीन्द्रनाथ पूजा कक्ष से बाहर आये। नीचे वाले तल में आते ही सामने उनकी भानजी मिल गई। छूटते ही उसने कहा मामा ! लगता है आज कोई अद्भुत बात हुई है। आपकी दिव्य मुखाकृति और अपार्थिव सुगंध यह दोनों ही इस बात के प्रमाण है। बाद में फणीन्द्रनाथ को विदित हुआ श्वास प्रश्वास से एक विशिष्ट प्रकार की सुगंधि उत्सर्जित हो रही थी यह स्थिति लगभग एक सप्ताह तक बनी रही, फिर धीरे धीरे सामान्य हो गई।

इस प्रकार के दिव्य सहयोग से गायत्री साधकों का उपासनात्मक जीवन भरा पड़ा हैं। जो निष्ठापूर्वक वेदमाता का आँचल पकड़ते हैं, वे निहाल हुए बिना नहीं रहते। उन पर देवपुरुषों का अनुग्रह बरसता रहता है और समय समय पर आपत्तियों में कठिनाइयों में अथवा साधनात्मक जीवन में उनकी समर्थ साधनात्मक जीवन में उनकी समर्थ सहायता एवं मार्गदर्शन मिलते रहते हैं। जिनका साधनात्मक जीवन एकांगी बना हुआ है और जो मात्र जप तक स्वयं को सीमाबद्ध रखते हैं, संभव उन्हें गायत्री के वास्तविक फलितार्थ और महापुरुषों के अपूर्व सहयोग से वंचित रहना पड़े, पर जा उपासना साधना और आराधना रूपी त्रिपदा के त्रिविध आधार को अपनाये हुए है, वे कृतकृत्य होकर रहते हैं, इसमें दो मत नहीं।


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