नैष्ठिक गृहस्थ साधक किसी भी तपस्वी से कम नहीं होता (Kahani)

November 1994

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हेनरी फोर्ड अमेरिका के मूर्धन्य धनाढ्य थे। तो भी वे बहुत सादगी से रहते थे। फोर्ड का एक सूट पुराना हो गया था। फटने भी लगा था।सचिव ने कहा नया सिला लेना चाहिए। लोग क्या कहेंगे?

फोर्ड मुस्कराये। बोले अभी इसकी मरम्मत करा लेने से काम चल सकता है। मिलने वाले सभी जानते हैं कि मैं फोर्ड हूँ। सूट बदलने या न बदलने से मेरी स्थिति में क्या अंतर पड़ता है।

बात गई गुजरी हो गई। मरम्मत किये पैण्ट कोट से काम चलता रहा। बहुत दिनों बाद फोर्ड को इंग्लैंड जाना था सो सेक्रेटरी ने फिर उनसे सूट बदलने की आवश्यकता बताई और कहा नये देश वालो के सामने तो पोशाक बढ़िया ही होनी चाहिए।

फोर्ड गम्भीर हो गये और बोले उस देश में मुझे जानता ही कौन है, जो मैं उन पर रोब गाँठने के लिए बढ़िया पोशाक सिलाऊँ। अजनबी के कपड़ों पर कौन ध्यान देता है?

हिन्दू संस्कृति का महान संदेश दिया। स्वामी विवेकानंद का धर्म प्रचार कयं प्रसिद्ध है पर उससे पहले उनने भी रामकृष्ण परमहंस के बताते अनुसार कई वर्ष तपश्चर्या करके आत्म को तपाया था।

योगी अरविंद घोष , महर्षि रमण, स्वामी रामतीर्थ की तपश्चर्या रमण, स्वामी रामतीर्थ की तपश्चर्या प्रसिद्ध है। वैष्णव आचार्यों में से रामानुजाचार्य, निम्बकचार्य कधवाचार्य प्रभृति आचार्यों ने जितना मान संचय किया था। उतनी ही तप साधना भी की थी। संसार के अन्य वे महापुरुष जितने लोगों को उच्च भूमिका की ओर बढ़ाया निश्चित रूप से तपस्वी थे। महात्मा ईसा के जीवन में 27 वर्ष तपश्चर्या में लगे। मुहम्मद साहब ने 25 वर्ष की आयु में साधना की ओर कदम बढ़ाया। 40 साल तक वे उसी में संलग्न रहे। 65 वर्ष की आयु में उनने धर्मोपदेश और और इस्लाम की स्थापना का कार्य आरंभ किया। यहूदी धर्म के संस्थापक यहोवा और पारसी धर्म के देवदूत जरथुस्त्र की दीर्घ कालीन कोर तपश्चर्याएं प्रसिद्ध हैं।

पूरी निष्ठा और ढंग से साधा गया गृहस्थ धर्म किस प्रकार फलता है, यह प्रस्तुत उदाहरण से स्पष्ट है। महाभारत में सुधन्वा और अर्जुन के बीच भयंकर द्वंद्व युद्ध छिड़ा। दोनों महाबली थे और युद्ध विद्या में प्रवीण-पारंगत भी। घमासान लड़ाई चली। विकरालता बढ़ती जा थी। निर्णायक स्थिति आ नहीं रही थी।

अंतिम बाजी इस बात पर अड़ी कि फैसला तीन बाणों में ही होगा या तो इतने में ही किसी का वध होगा, अन्यथा युद्ध बंद करके दोनों पक्ष पराजय स्वीकार करेंगे।

जीवन मरण का प्रसंग सामने आ खड़ा होने पर कृष्ण को भी अर्जुन की सहायता करनी पड़ी। उनमें हाथ में जल लेकर संकल्प किया कि गोवर्धन उठाने और ब्रज की रक्षा करने के पुण्य मैं अर्जुन के बाण के साथ जोड़ता हूँ। आग्नेयास्त्र और भी प्रचंड हो गया।

काटने का सामान्य उपचार हलका पड़ रहा था। सो सुधन्वा ने भी संकल्प किया कि एक पत्नीव्रत पालने का मेरा पुण्य भी इस अस्त्र के साथ जुड़े।

दोनों अस्त्र आकाश मार्ग में चले। दोनों ने दोनों के अस्त्र बीच में काटने के प्रयत्न किये। अर्जुन का अस्त्र कट गया और सुधन्वा का बाण आगे बढ़ा किंतु निशाना चूक गया।

दूसरा अस्त्र फिर उठाया, अबकी बार कृष्ण ने अपना पुण्य उसके साथ जोड़ा और कहा ग्राह से गज को बचाने और द्रौपदी की लाज बचाने में मेरा पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े। दूसरी ओर सुधन्वा ने भी वैसा ही किया और कहा मैंने नीतिपूर्वक ही उपार्जन किया है और चरित्र के किसी पक्ष में त्रुटि न आने दी हो तो पुण्य इस अस्त्र के साथ जुड़े।

इस बार भी दोनों अस्त्र और शेष था। इसी पर अंतिम निर्णय निर्भर था। कृष्ण ने कहा मेरे बार बार अवतार लेकर धरती का भार उतारने का पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े। दूसरी और सुधन्वा ने कहा- यदि मैंने स्वार्थ का क्षय भर चिंतन किये बिना मन को निरंतर परमार्थ में निरत रखा हो तो मेरा पुण्य बाण के साथ जुड़े। इस बार भी सुधन्वा का बाण ही विजयी हुआ। उसने अर्जुन का बाण काट दिया।

दोनों पक्षों में से कौन अधिक समर्थ है, इसकी जानकारी देव लोक तक पहुँची तो वे सुधन्वा पर आकाश से पुष्प बरसाने पहुँचे। युद्ध समाप्त कर दिया गया। भगवान् कृष्ण ने सुधन्वा की पीठ ठोकते हुए कहा नर श्रेष्ठ तुमने सिद्ध कर दिया कि नैष्ठिक गृहस्थ साधक किसी भी तपस्वी से कम नहीं होता।


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