सिद्धिदात्री श्रमदेवता की साधना

November 1994

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मानव में छिपी अनंत सामर्थ्य तथा गौरवगरिमा के बहिरंग में प्रकटीकरण का एक ही उपाय है- अनवरत श्रम। सतत् अध्यवसाय। खाली न बैठे रह स्थूलशरीर का परिपूर्ण उपयोग कर इस उद्यान को जो स्रष्टा ने बनाया है, और भी सुन्दर बनाना। श्रमनिष्ठा का यह नहीं हैं कि शरीर को थका डाला जाय। यह एक प्रकार की साधना है, जिसमें निराकार को साकार में परिणत किया जाता है और साकार को सुविकसित-सुसज्जित बनाया जाता है। जड़ता की स्थिति को प्रगति में बदलने की सामर्थ्य केवल श्रम में है। श्रम से ही व्यक्ति का अहंकार गलत तथा सेवा साधना की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है। जिसने श्रम की अवज्ञा की वस्तुतः उसने अपनी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध कर लिया।

पदार्थ का छोटा परमाणु भी बिना विश्राम किये अनवरत गति से सक्रिय है। पवन को एक क्षण के लिए भी चैन नहीं है। वह सतत् प्रवाहित होता रहता है। हिम ग्लेशियर से पिघलकर बहता , जल सतत् प्रवाहित हो समुद्र में मिलता रहता है। सूर्य और तारे सभी अपने-अपने नियत कर्मों में संलग्न है। कभी अवकाश लेने की मन में नहीं सोचते।

धरती को हम माता कहते हैं व पृथ्वी के हम पुत्र है। “माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याम्” तो फिर उसके स्वप्नों को कि उसे अधिक शोभायमान बनाया जाय, पूरा करने का दायित्व भी हम पुत्रों का ही है। हर मनुष्य से नियंता की यही अपेक्षा है कि मानवी पुरुषार्थ का पूरा उपयोग हो और सुखद संभावनाओं से सारा वातावरण अभिपूरित हो जाय।

वस्तुतः पसीने से पवित्र और कुछ नहीं। जिस ललाट पर वह झलकता है, उसे समुन्नत बनाता चला जाता है। जिस भूमि पर गिरता है, उसे नंदन वन बना देता है। अनगढ़ पत्थरों को देवप्रतिमा के रूप में पूजनीय बनाने का श्रेय श्रम के देवता को ही दिया जा सकता है। जो भी कुछ इस संसार में शुभ है , सुखद है, श्रेयस्कर है , उसे केवल श्रम साधना से ही पाया जा सकता है। समस्त सिद्धियाँ श्रम देवता के अनुग्रह से ही पायी जाती रही है और भविष्य में भी पायी जाती रहेंगी।


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