युग परिवर्तन के निमित्त प्रतिभाओं का सुनियोजन

November 1994

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युग परिवर्तन अपने समय का सबसे बड़ा काम है। सामान्य परिवर्तन भी कठिन जटिल और कष्टसाध्य होते हैं, फिर 600 करोड़ से अधिक मनुष्यों की मनःस्थिति और परिस्थिति बदल देना कितना दुरूह हो सकता है इसकी कल्पना भर से रोमाँच होता है। इस प्रकार के सामान्य प्रयोजनों में भी अत्यंत सतर्कता बरतनी योजना बनानी व्यवस्था जुटानी एवं सामग्री एकत्रित करनी पड़ती है।यह कार्य हर कोई नहीं कर सकता। प्रतिभाएँ ही इस प्रकार के उत्तरदायित्व को कंधों पर उठाती और उन्हें पूरा करके दिखाती है। सामान्य मनुष्य तो ढेर का जीवन जी सकते हैं। अभ्यस्त परिपाटी अपनाये रह सकते हैं। बदलती हुई आवश्यकताओं का सामना कैसे किया जाय इसका समाधान ढूंढ़ने के लिए दूरदर्शी प्रतिभा दक्षता और साहसिकता चाहिये, जिनमें इस प्रकार की विशेषता होती है वे ही महत्वपूर्ण परिवर्तनों की समग्र भूमिका निभा सकने में समर्थ होते हैं।

पुल बाँध कारखाने जिनने बनाये है, जंगल काटकर उद्यान जिनने लगायें हैं वे ही जानते हैं कि अनगढ़ परिस्थितियों से निपटना और सृजन के समग्र साधन खड़े करना कितना कठिन होता है। उसमें कितनी अड़चने आती है और कितने व्यवधान खड़े होते हैं। अप्रत्याशित कारणों से निपटने के लिए कितनी पैनी सूझ बूझ की जरूरत पड़ती है और अभाव अवरोधों के साथ किस कुशलता से बच निकलने तालमेल बिठाने एवं टूट पड़ने की रणनीति अपनानी पड़ती है। सामान्य मनुष्यों के लिये सत्साहस जुटाना तो दूर परिचर्या परिकल्पना तक से पसीना छूटता है।

युग परिवर्तन का प्रथम चरण विचार क्रांति अभियान से आरंभ होता है। लोक चिंतन को उलटने आस्थाओं आकाँक्षाओं एवं अभ्यासोँ का कायाकल्प करने की प्रथम प्रक्रिया प्रचार परक है। धर्मतंत्र से लोक शिक्षण की क्रिया प्रक्रिया जन संपर्क साधने और जन-जन तक नवयुग का संदेश पहुँचाने की है। आलोक वितरण जन जागरण के लिये घर घर अलख जगाने के लिये इन दिनों जाग्रत आत्माएँ संलग्न है। लेखनी वाणी और संगठन उद्बोधन की प्रक्रिया अनेकों रचनात्मक क्रियाकलापों द्वारा अग्रगामी बनाई जा रही है। धर्मानुष्ठानों में श्रद्धा-संपन्न लोगों को लगाया गया है और साधना द्वारा आत्मबल बढ़ाने के लिये कहा गया है। यह वातावरण बनाने की योजना है। इसे भूमि जोतना कह सकते हैं। बीज बोने खाद पानी का प्रबंध करने और गिराने मोड़ने रखवाली का प्रबंध करने से लेकर फसल काट कर घर लाने की सुविस्तृत क्रिया प्रक्रिया इसके बाद आरंभ होती है।

थ्वचारों का महत्व कितना ही क्यों न हों किंतु इतने से ही जीवन में प्रगतिशीलता का समावेश और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण नहीं हो सकता, इसके लिये अन्यान्य कितने साधन चाहिये। उन सभी को जुटाना होता है। विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है। रोटी कपड़ा मकान जैसे निर्वाह साधनों से लेकर परिवार पोषण आजीविका उपार्जन स्नेह विग्रह सामाजिक उतार चढ़ाव जैसी अनेक समस्याओं से निपटना होता है। प्रतिकूलता हटाना और अनुकूलता बनाने का काम जादू की छड़ी घुमाने से नहीं होता। इसके लिये अभीष्ट पुरुषार्थ और साधना संचय पर आधारित अन्य अनेकों कार्य करने होते हैं। व्यक्तित्व जीवन संघर्ष में जिन्हें जूझना पड़ा है वे ही यह अनुभव कर सकते हैं कि युग की समस्याएँ कितनी विस्तृत एवं भारी होती है। उन्हें हल करने के लिये कितने भारी भरकम व्यक्तियोँ की आवश्यकता पड़ती है।

युग परिवर्तन के दो पक्ष है, एक अवाँछनीयता का निवारण, दूसरा उपयोगिता का निर्धारण। इन दोनों में से एक को युद्ध लड़ना और दूसरे की उसके लिये साधन सामग्री सैन्य शक्ति जुटाना कहा जा सकता है। दोनों का अपना अपना महत्व है। युद्ध जीतने वाले योद्धाओं की वीरता और प्रवीणता का तो उपयोग करना ही पड़ता है। साथ ही वे समस्त साधन भी जुटाने होते हैं जो राशन वाहन आयुध, उपकरण आदि के रूप में उस प्रयोजन के लिये निताँत आवश्यक होते हैं। दोनों पक्षों में से एक भी कमजोर पड़ेगा तो जीतने का लाभ उठाना तो दूर हारने से हानि ही हानि उठानी पड़ेगी। फिर जीत लेना ही एक काम नहीं है। उसके बाद की क्षतिपूर्ति करना और नई परिस्थितियों के अनुरूप नई आवश्यकताओं की पूर्ति करना युद्ध में विजय से बड़ा काम है। आपरेशन कुछ मिनटों में ही पूरा हो जाता है। किंतु घाव भरने में समय श्रम साधन और सतर्कता की आवश्यकता देर तक पड़ती रहती हैं।

नवयुग का अवतरण प्रातःकाल के सूर्योदय जैसी सहज सुलभ प्रक्रिया नहीं है। इसके लिये भागीरथी प्रयत्नों की आवश्यकता पड़ रही है। लंका-दहन करने वाले हनुमान ओर पुल बनाने वाले नल नील बड़ी संख्या में इन दिनों अभीष्ट हैं। लंकाकाण्ड से उत्पन्न समस्याएँ भारत के दक्षिण भाग के थोड़े से इलाके को प्रभावित करती थी। उस सीमित कार्य को सीमित लोगों ने कर लिया होगा, किंतु युग निर्माण का क्षेत्र तो उससे लाखों गुना बड़ा है। धरती के कोने-कोने में नव-सृजन का उद्यान अनुमान बालबुद्धि नहीं अपितु परिपक्व प्रौढ़ता ही लगा सकती है।

अनुपयोगी उत्पादनों को हटाना ही एकमात्र काम नहीं है। उसकी स्थान पूर्ति उपयोगी साधनों से नये सिरे से नये स्तर के उत्पादनों से ही हो सकती हैं। साहित्य, कला, शिल्प, स्वास्थ्य शिक्षा विज्ञान, शासन जैसे मानवोपयोगी असंख्य क्षेत्रों में नये साधन खड़े करने पड़ रहे है उनके लिये उन्मूलन के समय प्रयुक्त हुये पुरुषार्थ से भी अधिक पुरुषार्थ करने होगे। रीछ वानरों का लंका विजय में नियोजित हुआ पुरुषार्थ सदा सराहा जाता रहेगा किंतु राम राज्य की स्थापना में जिनकी प्रतिभा सृजन प्रयोजनों के नये आधार खड़े करने में लगी होगी उन्हें भी भुलाया नहीं जा सकता। उनका योगदान लड़ाकू स्तर का भले ही न रहा हो पर वे जिस सृजन कौशल का उपयोग जिस मनोयोग और सदुद्देश्य के साथ करते होंगे उनका विवरण उपलब्ध न होने पर भी सहज श्रद्धा उनके चरणों में नत मस्तक होती रहेगी। युग परिवर्तन में लाल मशाल लेकर विचार क्राँति में संलग्न शूरवीरों की जैसी आवश्यकता आज पड़ रही है कल वैसी ही नहीं वरन् उससे भी अधिक खोजबीन उनकी करनी पड़ेगी जो सृजन प्रयोजनों को पूरा कर सकें। पुरानी पीढ़ी ने स्वतंत्रता संग्राम जीता। वर्तमान पीढ़ी उसके उपराँत की सृजन प्रक्रिया का कौशल न दिखा सकी फलतः शहीदों के त्याग बलिदान का लाभ अधूरा ही बन कर रह गया। युग सृजन में यह भूल न होने पाये इसके लिये अभी से सतर्कता बरतने और तैयारी में लगे रहने की आवश्यकता है।

साहित्य और कला का लोक चिंतन की दिशा धारा विनिर्मित करने में अत्यधिक योगदान रहता है। साहित्य सृजन करते हैं। उस रुझान से प्रेरित होकर लोग अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं। इससे वे परिस्थितियाँ और प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं, जिनसे भला या बुरा समय सामने आ खड़ा होता है। यों देखने में साहित्यकार किन्हीं परिस्थितियों के लिये जिम्मेदार प्रतीत नहीं होता पर वास्तविकता यह है कि सच्चे अर्थों में वही उसके लिये उत्तरदायी है। विष बीज बोने वाला चाहे तो यह कह सकता है कि विष फल खाकर मरने की घटना में उसका कोई दोष नहीं है पर न्याय बुद्धि यही कहती रहेगी कि जिनने रुझान उत्पन्न की वे प्रशंसा या भर्त्सना से बच नहीं सकते। आज की युग समस्याओं के लिये लोक मानस में घुसी हुई जिस निकृष्टता का रोल है उसके उत्पादन में उन साहित्यकारों की प्रधान भूमिका रही है जो लेखन प्रकाशन एवं विक्रय के रूप में विकृत साहित्य के सृजन एवं प्रचार के लिये जिम्मेदार है। उन्हें अपनी कूटनीतिक करतूतें यथावत् चलाते रहने की छूट नहीं मिल सकती। नव युग में इनकी करतूतें बंद तो होगी ही। इनके स्थान पर नयी पीढ़ी के नये साहित्यकारों का सृजन करना होगा। इस वर्ग में वे लोग भी शामिल होते हैं, जो प्रकाशन एवं विक्रय में अपने पूँजी लगाते और आजीविका कम हैं। युग सृजन के लिये नया वर्ग अपने से तैयार किया जाना चाहिए। नस् में इस पौध का आरोपण उद्यान लगने से पूर्व ही करना होगा।

कला के संबंध में भी ठीक या बात कही जा सकती है। संगी काव्य गायन वादन अभिनय लोक मानस के निर्माण में साहित्य समतुल्य ही प्रभाव पड़ता है। भारत में सिनेमा व टेलीविजन दर्शकों व संख्या पत्र पत्रिकाओं के पाठक अधिक है। सिनेमा व टी. वी. प्रभाव शक्ति सर्व विदित है। वर्तमान पीढ़ी और नई पौध का जो स्वर आँखों के सामने है उसमें सिनेमा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष योगदान को मूर्ध माना जा सकता है। सिनेमा न देखने वाले भी देखने वालो की छूत प्रभावित होते हैं, और लोक चिरे पर सिनेमा की प्रेरणाएँ हावी है। यह अभिनय कहीं जीवित होगा तो उस भी फिल्म प्रेरणा का अनुयायी होते ही रहना पड़ रहा होगा। संगीत नाम पर जो कुछ कानों को सुनने के लिये मिलता है उसमें कुरुचि प्रेरणाएँ वाले उतरती है। रिकार्डों लेकर संगीत सम्मेलनों गोष्ठी गाय तथा व्यक्तित्व गुनगुनाहटों में रस के साथ जो विष घुला रहता है उससे लोक चिंतन के निकृष्टता की दिन में गिरने का ही पथ प्रशस्त होता है

इस क्षेत्र की सड़न गंदगी व बुहारना ही पर्याप्त नहीं हैं उस स्थान पर सुरुधि की प्रतिष्ठापना करनी होगी। आज की सबसे बड़ी कमी यही है कि सुरुचिपूर्ण सदाशय का सृजन तो नहीं हो रहा रिक्त कुरुचिपूर्ण प्रस्तुतीकरण से भरी न रही है और क्षेत्र अत्यंत व्यापक है गीत रचने से लेकर गीतकार उत्पन्न करने तक संगीत विद्यालय चलाने लेकर अभिनय मंडलियाँ खड़ी कर तक इस क्षेत्र में प्रयुक्त होने यो कितनी ही योजनायें हैं जिन्हें हर मूल्य पर क्रियान्वित किया ही जाना चाहिये। भारत का अर्थ है देहात। शहरों में सिनेमा का तथा अब दूरदर्शन का भी आधिपत्य है पर यदि देहात के लिये उपयुक्त है पर यदि देहात के लिये उपयुक्त अभिनय की व्यवस्था की जा सके तो उसके लिये भावभरी गुंजाइश मौजूद है। जिनके पास पैसा हो रिकार्ड बनाने और सुरुचिपूर्ण फिल्म बनाने के उद्योग में प्रवेश कर सकते हैं। इसमें लोक रंजन लोकमंगल के अतिरिक्त यश और धन उपार्जित करने की भी परिपूर्ण संभावना विद्यमान है।

सरकारें संभवतः भौतिक जानकारियाँ देने वाली शिक्षा का ही भार वहन कठिनाई से कर सकेगी। व्यक्ति और समाज के सामने प्रस्तुत अगणित समस्याओं का बौद्धिक समाधान एवं व्यावहारिक अनुभव प्रस्तुत करने के लिये लोक शिक्षण की अतिरिक्त आवश्यकता पड़ेगी। स्कूली पाठ्यक्रम जितने बड़े है उतने ही नहीं वरन् उनसे भी बड़े पाठ्यक्रम व्यक्ति निर्माण एवं समाज निर्माण के विभिन्न पक्षों को समझने के लिये भी बनाने होगे। मात्र पुस्तकें छापने से भी यह कार्य पूरा न होगा उसके लिये अनुभव और कौशल प्रदान करने वाले निर्माता स्तर के शिक्षकों एवं संस्कारवानों की भी आवश्यकता होगी। भले ही वे अवकाश के समय रात्रि पाठशालाओं की उन्हें अध्ययन की शिक्षा देने वाले तंत्रों की स्थापनाएँ करने की आवश्यकता पड़ेगी। इसे समानान्तर शिक्षा की विद्या के विस्तार की योजना कहा जा सकता है। इसका सूत्र संचालन करने के लिये प्रतिभाएँ चाहिए। बचकाने व्यक्तित्व दूसरों को प्रभावित न कर सकेंगे और पाठ्यक्रम चिह्न पूजा जैसा बन कर रह जायेगा।

अगले दिनों भौतिक क्षेत्र में सहकारिता एवं कुटीर उद्योगों का व्यापक प्रसार होगा। अर्थ तंत्र की सुव्यवस्था इन्हीं दोनों पर आधारित होंगी। बड़ी मिले व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादन तो जादुई तमाशे मात्र है। इनमें मात्र सुई, खाली उत्पादन कुटीर उद्योग की तरह पनपे ऐसी व्यवस्था बनानी होगी। सहकारिता और कुटीर उद्योगों का समन्वय ही गरीबी और बेकारी का हल है। नया अर्थशास्त्र अर्थतंत्र इस आधार पर खड़ा करना होगा कि सभी मिलजुल कर कमाये और हंस बाँट कर खाये।

शारीरिक, मानसिक, आर्थिक या सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करना समूचे समाज का-विशेष, सुसंपन्नों का, प्रगतिशीलों का कर्तव्य है। अपराधियों के लिये खुल कर खेलने की परिस्थितियाँ न बनने देना, सुरक्षा और प्रतिरोध की पंक्ति सुदृढ़ रखना जागरूकों का समर्थों का उत्तरदायित्व है।

युग सृजन के इस कार्य के लिये पग-पग पर प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ रही है। जन सहयोग उनके समर्थन में एवं अनुगमन भर की भूमिका निभा सकता है। अग्रगामी और मूर्धन्य ही संसार के समस्त महान कार्यों ओर मूर्धन्य ही संसार के समस्त महान कार्यों नाभिक की केन्द्रीय सत्ता बन कर समय और समाज का नेतृत्व करने में समर्थ करने में समर्थ हुए हैं उनने अपने को श्रेयाधिकारी बनाया है और असंख्यों को अपनी नाव में बिठा कर पार किया है। आत्म शक्ति संपादन में भी ऐसे ही मनस्वी सफल होते हैं, अन्यथा रोते कलपते पूजा पाठ की चिह्न पूजा करते रहने वालो की निराश जन संख्या सर्वत्र देखी जा सकती है। समय की एक ही माँग है प्रतिभा के धनी ऐसे व्यक्तित्व जो दूरदर्शिता और साहसिकता के धनी हो तथा आत्म कल्याण और लोककल्याण का दुहरा प्रयोजन पूरा करने में निरंतर संलग्न रह सके।अब चुप न बैठे रहे आगे आएँ।


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