पगडंडियों में भटके या राजमार्ग पर चलें?

November 1994

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राजमार्ग पर चलने वाले लंबी मंजिल भी आसानी से पार कर लेते हैं मील के पत्थर बताते चलते हैं कि कितनी दूरी पार हुई और कितना चलना शेष है। ऐसी सड़कों के किनारे छायादार पेड़ लगे होते हैं। पानी का प्रबंध रहता है। थोड़ी थोड़ी दूरी पर सराय धर्मशाला आदि ठहरने के स्थान बने होते हैं और भोजन आदि दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए छोटी बड़ी दुकानें रहती है। जरूरत पड़ते पर सवारियाँ भी मिल जाती है। और राहगीर साथियों की कमी नहीं रहतीं। चिकित्सालय डाकखाने मनोरंजन आदि की सुविधाएँ भी विराम स्थलों पर मिलती है। इस प्रकार राजमार्ग अपनाकर लंबी यात्रा पर निकलने वाले भी अपनी मंजिल आसानी से निर्धारित अवधि में पूरी कर लेते हैं।

उतावले लोग सोचते हैं कि सम्भवतः राजमार्ग थोड़ा घूम-फिर कर जाने के कारण लंबा होगा। इसलिए इन्हीं पहुँचने की उतावली में साडडियाँ तलाशते और जिधर की कुछ आड़ी टेढ़ी लकीरें दीख पड़ती है उधर ही चल पड़ते हैं। भले ही वे लकीरें भेड़ बकरियों के उधर बन जाने के कारण ही क्यों न बनी है

उतावलेपन की पहचान एक ही है कि इसमें व्यक्ति कम से कम श्रम में चर्त फुर्त अभीष्ट अभिलाषा की पूर्ति चाहता है। यह सोचने की हमें फुरसत ही नहीं होती कि कितना हो कुछ करने पर भी बरगद का पेड़ बढ़ोत्तरी नियम अवधि पूरी करने पर ही संपन्न कर पाता है। हथेली पर सरसों जमाने का तमाशा तो मात्र बाजीगर दिखाते हैं। उस सरसों के अंकुर भर देखे गये है किसी ने भी उन्हें फूलों फलियों से लदते नहीं देखा और न किसी ने उनके तेल से घर का डिब्बा भरा है। बाजीगर तो हवा में से रुपये ही उतारते हैं और उनसे अपने गिलास भरते जाते हैं। उतावले लोगों को यह बहुत प्रिय लग सकता है और सोचा जा सकता है कि इसी जादू विद्या को सीखें और हर दिन एक घड़ा भर कर रुपये बना लिया करे। उतावली इतनी आकुल व्याकुल होती है कि वस्तुस्थिति समझने के लिए सोच विचार कर सकने की गुंजाइश भी न मिलने दे। यदि इतना अवसर उस आवेश के झटके में मिल गया होता तो यह संदेह उठ सकता था कि बाजीगर तमाशा दिखाने के उपराँत दर्शकों से पैसों की भीख क्यों माँगता है। घड़े भर रुपये नित्य बनाकर धन कुबेर क्यों नहीं बन जाता। उसे नुक्कड़ तमाशा दिखाने के लिए सारे दिन दौड़ धूप क्यों करनी पड़ती है? तथाकथित ओझा ताँत्रिक सिद्ध बाबा भी आमतौर से इसी प्रकार की ठगी का धंधा करते हैं। कुछ छोटी मोटी हाथ की सफाई दिखाकर लोगों के लालच को भड़काते हैं। आतुर हो जाने वाला आशंका वाले पक्ष को देख सोच तक नहीं पाता ओर जल्दी जल्दी बहुत कुछ पा जाने के लिए भी उनके चंगुल में जा फँसता है जिनके पास धूर्तता के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। रंग बिरंगे जाल बुनकर वे आतुर स्तर की चिड़ियों को फँसाते रहते हैं। इनमें बालक ही नहीं तरुण, वयस्क और पढ़े-लिखे कहलाने वाले लोग भी शामिल होते हैं।

पगडंडियाँ इसी मनोभूमि के लोगों के कल्पना सरोवर में तैरती रहती है। वे उचित मूल्य देकर उचित वस्तु खरीदने के मूड में नहीं होते। गड़ा खजाना बताने के लिए इन्हीं देवी देवताओं, सिद्ध कहलाने वालो की मनुहार कस्ते रहते हैं। इसी युक्ति से बहुत कुछ ठगाते भी रहते हैं। किंतु देखा गया है कि ऐसे लोगों कुछ कमा लेने के स्थान पर निरंतर गंवाते ही रहते हैं।

पगडंडियों के सहारे चलने का मानस बनाने वाले प्रायः ऐसी दिशा में भटक जाते हैं, जिनसे पैरों में काँटे चुभने और झाड़ियों से कपड़े फटने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त होता ही नहीं। भटकाव से दिशा भ्रम होना स्वाभाविक है। वे इस ओर भी चल पड़ते हैं जो लक्ष्य से सर्वथा उलटी दिशा होता है। यह जल्दबाजी जल्दी पहुंचाने की अपेक्षा इतनी देर हो जाने पर उसी रात उसी भयानक माहौल में किसी प्रकार बितानी पड़े और रात्रि को खोज में घूमने वाले हिंस्र जीव-जंतुओं का शिकार भी बनना पड़ सकता है। समझ जब वापस लौटती है तो मनुष्य ही सीखता है कि उतावली अवाँछनीय थी। चतुरता समझकर अपनाई गई यह मूर्खता अतीत घाटे का निमित्त कारण भी बनेगी।

जुआरी, सट्टे वाले लाटरी लगाने वाले प्रायः एक ही कमाई वाला पक्ष देखते हैं। यह भूल जाते हैं कि दाव उलटा भी पड़ सकता है और कमाने के साथ गंवाना भी पड़ सकता है। शेख चिल्ली की कहानी इसी प्रकार के तथ्यों से भरी पड़ी है। वह लाभ पक्ष ही सोचता था और उसकी पूर्ति तुर्त-फुर्त होते चलने की योजना बनाता है। यह नहीं सोचता था कि इतना सब करने के लिए कितने समय की कितने श्रम की आवश्यकता पड़ेगी और किन साधनों को जुटाने के लिए कितने प्रयास और किन-किन के कितने प्रयास और किन-किन के कितने सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। इसी अधूरेपन के कारण शेखचिल्ली घाटे में रहा। उपहासास्पद बना। एक पक्षीय बात सोचने वालों को प्रायः ऐसी ही हैरानी का सामना करना पड़ता है।

मन का काम कल्पनाएँ करते रहना है। वे बिना पंख की रंगीली उड़ानें उड़ने जैसी वे सिर पैर की भी हो सकती है। उनमें से वर्तमान परिस्थितियों में क्या करना संभव और उचित होगा, यह निष्कर्ष निकालना दूरदर्शी बुद्धिमता का काम है। उसी की तथ्यान्वेषी समीक्षा यह बता पाती है कि इन दिनों कितने ऊँचा उठ सकते हैं कितना वजन वहन किया जा सकता है। देखना यह भी पड़ता है कि जो उचंग जैसी उमंग उठ सकते हैं कितना वजन वहन किया जा सकता है। देखना यह भी पड़ता हे कि जो उचंग जैसी उमंग उठी है उसका प्रतिकूल पक्ष क्या है। कठिनाइयाँ क्या क्या आ सकती है। किन किन संभावित अवरोधों के सामने उपस्थित होने पर उनसे निपटने के लिए क्या तैयारी करनी होगी? इस पक्ष को भी पूरी तरह ध्यान में रखना चाहिए। अच्छी कल्पनाएँ और ऊँची इच्छाएँ रखना अच्छी बात है पर साथ ही यह भी समझ कर चलना चाहिए कि हर लक्ष्य को पूरा करने के लिए समुचित योग्यता अर्जित करनी होती है। प्रबल प्रयास करना पड़ता है। समुचित सतर्कता की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही हर काम का एक विपरीत पक्ष भी होता है, जो अनेकानेक अड़चनों को अग्नि परीक्षा के रूप में कहीं न कही से बटोर कर ले आता है। इन्हें ध्यान में रखा जाय। जितना इन प्रयासों का सरंजाम जुटाने में तन्मय होना पड़ता है उतना ही यह भी ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है कि प्रतिकूलताओं से कब कितना और कैसा पाला पड़ सकता है। उनसे निपटने के लिए आवश्यक सूझ बूझ हिम्मत और सहयोगियोँ साथियों का तालमेल बिठायें रहना भी आवश्यक है।

उतावली हर हालत में अवाँछनीय मानी जाती है और ऐसे परिणाम उत्पन्न करती है जिनके लिए सदा सर्वदा पश्चाताप करना पड़े। नित्य कर्मों को यथा समय फुर्ती से पूरा करना अच्छा बात है और महत्वपूर्ण कार्यों के विषय में भले बुरे दोनों पक्षों पर विचार करने के लिए संतुलित मानस बनाने के लिए समय लेना सर्वथा दूसरी

भावुकता के आवेश में प्रायः गलत कदम ही उठते हैं। की श्मशान वैराग्य में उत्तेजित होकर क्षणभर में वैराग्य धारण कर लेते। और पीछे उसके न निभने पर हैरान होते हैं। क्रोधावेश में ही हत्या आत्महत्याएँ होती है। कभी कभी प्रतिशोध का आक्रोश इतना बढ़ा चढ़ा होता है कि उस उन्माद में कुल भी अनर्थ बन पड़ सकता है।

होना यही चाहिए कि पगडंडियों में न भटका जाय शालीनता का राजमार्ग अपनाये जाय। प्रगति के लिए आवश्यक प्रयत्न तो किया जाय पर इतना आतुर न बड़ जाय कि इसी क्षण जो चाहा गया। वह पूरा होकर ही रहें यह समझदारी का रास्ता है।


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