दलाली हो तो भगवान की

November 1994

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पंडित यही नाम पड़ गया है उनका लोगों में। रुई की गाड़ियों की दलाली करते हैं। रुई बाजार के समीप ही उनकी छोटी सी झोंपड़ी है। अकेले ही है। अपने हाथ से टिक्कर मेक लेते हैं और बरतन मलने को काई मजदूर नहीं रखा है। एक तखत दो-चार बरतन कुछ मिट्टी की कितनी बड़ी है कि उसमें ढेरों सामान आ जावे।

एक अलमारी में छोटी-बड़ी शीशिया भरी है। किसी में विफला है और किसी में त्रिकुटा। समीप मजदूर बस्ती में कोई बीमार हो तो दवा पंडित जी ही देते हैं। दवा के दाम की बात न कीजिए, कभी कभी अनुपान के लिए शहद भी उन्हीं को देना पड़ता है और अदरक के लिए पैसा भी।

सामने पीपल के नीचे चबूतरे पर खा-पीकर रात्रि के आठ नौ बजे मजदूरों की मंडली एकत्र होती है। पंडित जी मध्य में बैठते हैं श्री रामचरित मानस लेकर। उनके व्यासासन को संभवतः कभी कोई रामायणी छोनने नहीं आवेगा। क्या मिलेगा उसे इन श्रोताओं से? ये अनपढ़ मजदूर ठिकाने से प्रशंसा करना भी तो नहीं जानते। उनके मूक दृगों की श्रद्धा से किसी की जेब भरने से की।

रुई की गाड़ियां बाजार में सायंकाल से ही आने लगती हैं। दूर के किसान दो तीन दिन में पहुंचते हैं और उनके आने का कोई समय नहीं होता। प्रायः आठ बजे से भी पहिले दलालों के चक्कर होने लगते हैं। सुनहले बटनों से चमकते सफेद कोटो में सजे मिल के एजेंट आ धमकते हैं। कोई डाँटता है, कोई फुसलाता है कोई बहकाता है। सभी चेष्टा करते हैं कि किस प्रकार उस गाड़ी पर बैठे किसान का मा जिसे उसने अपने रक्त को पसीना बनाकर प्रस्तुत किया है, कम से कम मूल्य देकर खरीद लिया जाय। किस प्रकार उससे कुछ अधिक दलालों ऐठी जाय।

किसान शीघ्रता में होता है। उसके पास भूसा समाप्त हो रहा होता है। उसके हृदय के टुकड़े ये बैल जो गाड़ी ही नहीं उसकी जीवन गाड़ी को भी खींच रहे है। भूखे न रह जावे। घर में एक समय का ही आटा छोड़ आया है। उसके लौटने की आशा में चूल्हा ठंडा पड़ा होगा। कोई दीप जलाए रात्रि के पिछले प्रहर तक उसकी प्रतीक्षा करती होगी द्वार खोले। मुन्ना बार बार गाँव से बाहर तक आकर बापू की गाड़ी देखना चाहता होगा। बापू मिठाई लेकर आवेंगे शहर से। किसान के हृदय में जाने क्या क्या होता है। वह ढेरों सामग्री घर ले जाने का स्वप्न देखता है। सब आशा का आधार है रुई। वह गिड़गिड़ाता है पैर छूता है, दलालों के निहोरे करता है। उसे छल कपट कहाँ आता है। दो पैसे अधिक चाहिए और माल शीघ्र बिक जाय तो ही ठीक।

पंडित जी आते हैं बाजार में पूजा पाठ से निवृत्त होकर पूरे दस बजे। उन्हें चिंता नहीं कि उनको सहयोगियों से कम गाड़ियां मिलेगी। सीधे मिल एजेण्ट से पूछते हैं कितनी गाड़ियां चाहिए? किस भाव तक? कैसा माल? इधर उधर की हाँकना आता नहीं। व्यर्थ प्रशंसा की नहीं जाती। एजेण्ट भी जानते हैं। कुछ न कुछ आर्डर मिल ही जाते हैं। वैसे तो आज जी हुजुरी का युग है।

किसान आँखें बिछाए रहते हैं। पंडित जी की प्रतीक्षा में कुछ देर रुकते भी है वैसे उनकी अकुलाहट बहुत रुकने नहीं देती। जो उन्हें जानते हैं मोल भाव करते ही नहीं। पता होता है कि वह ठीक दाम दिलावेंगे। जिन्होंने ऊपर कुछ नीचे कुछ भरा है। पानी से वजन बढ़ाया है वे सीधे कह देते हैं। पंडित जी आपके योग्य माल नहीं है। कोई सहयोगी व्यर्थ झगड़ा करे “वह गाड़ी मैंने तय की है।”

वह झगड़ेंगे नहीं। अच्छा नहीं। अच्छा मैं भूल से इधर आ गया। फिर भी उन्हें कुछ गाड़ियां मिल ही जाती है और दो बजे वे अपनी झोपड़ी में पहुँच जाते हैं।

किसान चाहे उन्हें गाड़ी देवे या दूसरे दलाल को। रुपए लेकर उन्हीं की झोपड़ी पर पहुँचते हैं। पंडित जो बड़े प्रेम से सुनते हैं कि क्या ले जाना चाहिए और कितना बचा लेना चाहिए। कौन सी वस्तु कहाँ से अच्छी और सस्ती मिलेगी यह भी वही बतलाते हैं और प्रायः बाजार साथ ही चले जाते हैं। यो उन्हें किसानों के लाए बैंगन लौकी के उपहार भी मिल जाते हैं अब यह हिसाब कौन लगावे कि उन उपहारों का मूल्य अधिक है या गाड़ीवानों को पानी पिलाने लकड़ी देने का जिससे वे भोजन बनाते हैं।

नित्य का यही क्रम है। एक दिन दलालों की मंडली बाहर खड़ी थी। वह अपनी झोपड़ी के बाहर निकल आए। चलिए पंडित जी रुपया निकालिए एक!” होली के लिए रंग और बूटी छानने का चंदा था यह।

“मुझे तो आप लोग क्षमा करे।” पंडित के शब्दों में नम्रता थी।

आपने दीवाली को एक दीपक ही जलाया अपनी कुटिया में तो हम लोगों से कोई मतलब नहीं था, पर यह तो होली है। रोब से कहा एक ने।

मेरे पास इस समय कुल दो रुपये हैं। उनका स्वर शाँत था। रंग की अपेक्षा किसी की औषधि में वे लगें तो ठीक और भग पीने के तो मैं विरुद्ध हूँ।”

पर्याप्त बकझक हुई। मंडली ने देख लिया कि यहाँ से कुछ मिलने वाला नहीं है। किसी ने व्यंग किया किसी ने डाँट लगायी किसी ने धमकाया। लेकिन वह अपने निश्चय से टलने वाले थे नहीं अंततः रुष्ट होकर लोग लौटने लगे।

“ यह तो रुई की दलाली करते करते रुई की भाँति ही नीरस हो गया है। किसी ने कहा।

“खूसट है पूरा।” झल्लाया स्वर था दूसरा।

“तभी तो सूत की भाँति मरियल हो रहा है।” एक ने दुर्बलता पर व्यंग किया उनकी।

“प्रभु करे सूत की भाँति में आच्छादन भी बन सकूँ। उन्होंने सुन लिया था और कुटिया में जाते हुए अपने आप कह रहे थे।

“आज ही तो होली जलनी है। एक काने दलाल ने आँख मटकाते हुए कहा “बच्चू की पूरी झोपड़ी होली में न डलवा दूँ तो मेरा नाम.......।” कहकहा लगा समर्थन में।

लड़के स्वभावतः उत्पाती होते हैं और फिर कोई उभाड़ने वाला हो तो कहना ही क्या। रात्रि के आठ बजे वह पीपल के पेड़ के नीचे बैठे कथा सुना रहे थे। पता नहीं अँधेरे में कहाँ से एक दल छिपा आया। कथा में श्रोता वक्ता तल्लीन थे। किसी ने नहीं देखा कि कब उनकी झोपड़ी के फूस के दोनों छप्पर उतार लिए गये। जब भीड़ उन्हें लेकर कुछ दूर हट गई तब लड़के ने कहकहा लगाया।

उन्होंने देख तो लिया पर उटे नहीं व्यायासन से। श्रोताओं में से बहुतेरे दौड़े किये था दौड़ना। लड़कों ने समीप ही रुई बाजार की होली में छप्पर पटके और भाग खड़े हुए काना दलाल ठहाके लगा रहा था। होली में पड़ी वस्तु निकाली तो जा नहीं सकती। लोग आए उदास होकर।

बड़ी कठिनता से दूसरे दिन उनकी झोंपड़ी पर ज्वार के डंठलो के पूले रखकर छाया की जाय सकी। अब छप्पर तो तभी बने जब उसके लिए पर्याप्त अर्थ संग्रह हो सके। ज्वार के पूले तो मजदूरों ने एक एक दो दो करके दे दिए थे, जिनके पास थे। किसी प्रकार धूप का बचाव तो ही ही गया। उन्होंने इतने पर भी किसी से कुछ कहा नहीं।

घटना आई गई हो गयी किंतु एक दिन एक पूर्णतः उत्तेजित भीड़ उन्हें घेरे थी। वह बेचारे मूर्छित पड़े थे। सारे शरीर पर लाठियों और जूतों के दाग थे। सिर फट गया था और उससे तथा शरीर के अन्य हिस्सों से रक्त से लथपथ पड़े थे। किसी की सहानुभूति नहीं थी उनसे। कोई नहीं था उन्हें उठाने वाला।

“अब पता चलेगा कि क्या फल होता है विश्वासघात का।” किसी ने व्यंग किया।

“मैनेजर से मोटी रकम मिली होगी।” दूसरा स्वर उठा।” नोटों के बंडल किसे नहीं फोड़ लेते पता नहीं कितनी समालोचनाएँ चल रही थी।

पुलिस आ रही है। एक लारी आती दिखाई दीं। भीड़ पलक झपकते इधर उधर बिखर कर लुप्त हो गई। खंभे पर लगी बिजली के प्रकाश में खून से आदमी को देखकर लारी रुकी। घायल को पुलिस वालो ने उठा लिया और लारी चली गयी। केवल लारी के दो व्यक्ति वहीं उतर गए।

नर्मदा मिल में हड़ताल चल रही थी। मिल का फाटक पंडित जी के झोंपड़े के सामने ही था किसी ने मैनेजर से मिलकर कुछ बाहर के मजदूरों को गुन चुप मिल में पहुँचा दिया था। यद्यपि उन नए मजदूरों की संख्या अत्यल्प थी। परंतु हड़तालियों को भड़काने के लिए यही पर्याप्त था। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वे उस व्यक्ति का पता लगा ही लेंगे जो इन मजदूरों को लाया है। उसे वे क्षमा नहीं कर सकते।

“ उनका झोपड़ा मिल के सामने है। उन्होंने देखा है कि रात्रि के अँधेरे में दो दिन से एक व्यक्ति कुछ आदमियों के साथ आता है। संतरी उसके आते ही द्वार खोल देता है। उसे उन्होंने पहचान लिया। मिल के फाटक पर जो प्रकाश है उसमें उन्होंने उसे भली प्रकार देखा हे कि बाहर से आने वाले मजदूर देहाती किसान है। वे बिना सीखे मिल में कुछ कर नहीं सकते। मिल वालो वे हड़तालियों का साहस तोड़ने को यह जाल मात्र रचा है।”

“आज संध्या को जब मजदूर फाटक पर एकत्र होकर मजदूर लाने वाले के संबंध में विचार कर रहे थे, उन्होंने उनकी समझता चाहा। समझने को कोई प्रस्तुत नहीं था। प्रश्नों की झड़ी लग गयी। जब मजदूर छिपकर पता लगाने को तले ही थे तो आज बात छिप न सकेगी। उनका हृदय कांप उठा काने दलाल के प्रति करुणा जाग पड़ी। एक आदमी और उत्तेजित भीड़ की भीड़। उन्होंने कुछ निश्चित कर लिया।”

“अपराध तो मेरी ही है भीड़ को समझाते हुए उन्होंने कहा। आगे को कौन सुनता है? पूरा वाक्य सुनने का धैर्य किसमें भीड़ उत्तेजित तो थी ही। मारो मारो इस धूर्त को। भली प्रकार पीटो। गालियों के साथ साथ चलने लगे। कहाँ तक कोई सह सकता है। पंडित लड़खड़ा कर गिर पड़े। कौन जाने कितनी चोटें गिरने पर की।

अब तो पुलिस ने उन्हें अस्पताल पहुँचा दिया था। हम रुई के दलाल है। हमें सूत ही बनना चाहिए सुई नहीं। बड़े कष्ट से अस्पताल की खाट पर पड़े वह बोल रहे थे। नर्स उन्हें बोलने से रोक रही थी। सुई छिद्र करती है किंतु सूत दबकर बटा जाकर भी छिद्र ढकता है।”

“आपको मैंने कितना सताया है। झोपड़ी तक ...........” काना दलाल हिचकियाँ ले रहा था और बार बार पैरों पर लुढ़क रहा था। नर्स उसे हट जाने को कह रही थी इसकी उसे कोई चिंता नहीं थी। आपने मुझे बचाने के लिए मेरा दोष छिपाने के लिए अपने सिर पर ले लिया।

उसके परिताप का अंत नहीं था।

“व्यर्थ पश्चाताप कर रहे हो तुम।”कराह उठे थे वह हाथ उठाने पर भी। शरीर का कोई भी भाग चोटों से खाली नहीं था। अंततः तुम मेरे समव्यवसायी हो। मैंने तो कर्तव्य मात्र किया है।

अस्पताल के बाहर मजदूरों की भीड़ चिल्ला रही थी। उसे अपनी भूल का पता लग गया था। काना दलाल भावावेश में बाहर निकला। भीड़ आगे बढ़ी किंतु सीढ़ियों पर से गर्स ने हाथ उठाकर रोक दिया। यदि तुम्हें पंडित जी का ध्यान है तो उन्होंने कहलाया है कि इनको क्षमा कर दो। आज भीड़ ने जयनाद के साथ स्वीकार कर लिया था। कि उनके पंडित सच्चे साधु है रुई के नहीं भगवान के दलाल। इन्हीं पंडित जयरामदास रामायणी ने राम कथा के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में लोक क्राँति का बिगुल बजाया।


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