प्रस्तुत समय की सबसे बड़ी समझदारी

November 1994

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कोई समय था जब हनुमान का पता लगाते-लगाते भगवान राम ऋष्यमूक पर्वत पर गये थे और उनके द्वारा सहयोग की प्रार्थना स्वीकार कर लिये जाने पर बड़े प्रसन्न भी हुए थे। हनुमान मात्र सुग्रीव के सेवक थे और किसी प्रकार अपनी और अपने मलिक की सुरक्षा व्यवस्था भर कर पाते थे। पर जब उन्होंने उच्च प्रयोजन के लिए अपने को समर्पित किया तो वे राम के प्राण प्यारे बन गये और इतनी समर्थताएं उपलब्ध करने में सफल हुए जिनकी चर्चा सुनने भर से हृदय हुलसित और पुलकित होने लगता है। समुद्र लाँघने, लंका को ध्वस्त करके रख देना, दुर्दांत दैत्यों से लोहा लेना, संजीवनी बूटी वाला पर्वत उखाड़कर लाना, लक्ष्मण को पुनर्जीवित कर सकने में प्रमुख भागीदार होना जैसी उपाधियाँ उन्हें इसी आधार पर मिली कि भगवान की उच्चस्तरीय आवश्यकता के महत्व का अनुमान लगाते हुए वे उस प्रयोजन में तत्काल जुट पड़ते। यदि पशुवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई संकीर्ण स्वार्थपरता ही उनके गले बँधी रहती तो हनुमान भी अन्य पशु पक्षियों की तरह अपनी जीवन लीला समाप्त करके कभी के विस्मृति के गर्त में चले गये होते। जबकि आज वे राम पंचायत में छठे सदस्य के रूप में चित्रित भी किये जाते हैं और राम से अधिक संख्या में हनुमान के मंदिर बने दीख पड़ते हैं।

अर्जुन का प्रसंग भी कुछ ऐसा ही है। कृष्ण, विखंडित भारत को सुगठित विशाल भारत को सुगठित विशाल भारत बनाना चाहते थे। इसके लिए महाभारत योजना बनी भी। कृष्ण अपने मित्र अर्जुन को उस महान प्रयोजन का प्रमुख भागीदार बनाने के लिए कह रहे थे। अर्जुन अपनी व्यक्तिगत सुविधा क्षुद्रता और मानसिकता को छोड़ना नहीं चाहते थे। कृष्ण ने उसे समझाया ही नहीं दुत्कारा भी और अंततः इसके लिए सहमत कर लिया कि दैवी निर्धारणों में सहयोगी बनना ही श्रेयस्कर है। भले ही वह कष्टकर ही क्यों न हो। समर्पित होने पर अर्जुन महानता की पक्षधर ईश्वरेच्छा के साथ जुड़ गया और आज गीता के जनक कृष्ण की तरह ही अर्जुन की भूमिका को सराहा जाता है।

समय की माँग को ध्यान में रखते हुए रामकृष्ण परमहंस ने दबाव देकर विवेकानंद को उच्च प्रयोजनों की पूर्ति में लगाया। उनके माध्यम से जो कार्य बन पड़े, उससे वह लाभ हुए जो आगे पढ़ते उससे वह लाभ हुए जो आगे पढ़ते रहने पर कोई छोटी बड़ी नौकरी पा लेने पर नहीं मिल सकता था। विनोबा कोई छोटी बड़ी नौकरी पा लेने पर नहीं मिल सकता था। विनोबा कोई दुकानदारी करते हुए मरते तो उनकी गरिमा को आकाश तक पहुँचाने वाले वे क्रियाकलाप कैसे बन पड़ते जिनके कारण उनका जीवन ही नहीं दर्शन भी भूर-भूर सराहा जाता है।

मनुष्य की सीमित क्षमता छोटे बड़े निर्माणों तक ही सीमित है। वह छोटे बड़े सीमाबद्ध सुधार परिवर्तन भी कर सकता हे। पर समस्त संसार में बसने वाले 600 करोड़ मनुष्यों का चिंतन स्तर रुझान एवं क्रियाकलाप आमूलचूल परिवर्तन प्रस्तुत करना केवल निर्याता के लिए ही संभव है। उसी ने यह निश्चय और संकल्प किया भी है कि इसे बदला जाय बिना मानवजाति का सहयोग प्राप्त किये भी वह अपना प्रयोजन पुरा कर सकने में पूरी तरह समर्थ है। उसके अभी तक हुए अवतारों और धर्म संस्थापन की प्रक्रिया पूरी होती रहीं है। उनका “यदा यदा हि धर्मस्य” वाला आश्वासन समयानुसार सदा ही पूरा होता रहा है फिर इस बार वैसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाने पर सुधार परिवर्तन का दैवी निर्धारण पूरा न हो, ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता।

इन दिनों परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही विशिष्ट है कि नये सिरे से नये रूप में मानवमात्र का भाग्य बदला जाय व सतयुग को अवतरित कर सृष्टि का और भी सुन्दर व समुन्नत करेंगे ही परन्तु समाज में चहुँ और विद्यमान प्रतिभा यदि यों ही प्रसुप्त पड़ी रही, इस बारह वर्ष की 2005 तक की संधिवेला को आलस्य प्रमाद में नष्ट करती रहीं तो इस श्रेय से तो वंचित होगी ही जो उन्हें समय रहते समझदारी अपनाने से मिलता, वे अपयश-धिक्कार के भी भागी बनेंगे तथा दैवी प्रकोप भी उन्हें सहना पड़ेगा। अच्छा हो समय रहते हम समझदारी अपनालें।


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