नाड़ी गुच्छकों व उपत्यिकाओं का विलक्षण सूक्ष्म संसार

November 1994

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शारीरिक स्वस्थता और अस्वस्थता हाड़-माँस की देह में प्रकट और प्रत्यक्ष होती दीखती है। इतने पर भी तथ्य यह है कि इसका मूल कारण न तो काया में निहित है न किसी अन्य स्थूल अवयव में। अध्यात्म विद्या के विशेषज्ञ जानते हैं कि जिस स्थूल शरीर को हम सजाने सँवारने और सुधारने का प्रयत्न कराते रहते हैं वास्तव में वह पर्याप्त नहीं है। उसे आवश्यक तो कहा जा सकता है, पर संपूर्ण नहीं। उसकी परिपूर्णता स्थूल के मूल में निहित सूक्ष्म के सुधार परिष्कार में है। समग्र स्वास्थ्य का यही मूलाधार है।

अध्यात्म विज्ञानियों के अनुसार हमारे समस्त शरीर में नाडियों का एक प्रकार का जाल बिछा हुआ है। यह केंद्र के स्थान से निकल कर पूरी काया में फैली हुई है। इसकी संख्या 72 हजार बतायी जाती है। योगियों का कहना है कि स्वास्थ्य की वास्तविक कुँजी यही है। उपचार इन्हीं का होना चाहिए। जो रोग की जड़ में जीवाणुओं और विषाणुओं को कारण भूत मानते हैं विशेषज्ञों के अनुसार वे भूल करते हैं। इसका आधारभूत कारण नाडी संबंधी विकृति में अंतर्हित है। इस विकृति में अंतर्हित है। इस विकृति के फलस्वरूप शरीर में व्याप्त प्राण जर्जर हो जाता है, जिसके कारण काया में रोगाणु यव तव अपना अड्डा बना लेते और पलते बढ़ते रहते हैं। इनका उपचार तो होना चाहिए पर वास्तविक निमित्त की यदि उपेक्षा की गई तो उक्त उपाय बहुत कारगर सिद्ध हो सकेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे अस्थायी लाभ तो मिल सकता है, पर संपूर्ण नहीं और इलाज के रुकते ही लक्षण पुनः प्रकट होने लगते हैं। इसीलिए वे इन सूक्ष्म मर्मस्थलों के संशोधन की बात बार बार कहते पाये जाते हैं।

साधना विज्ञानियों का कहना है कि नाडी जाल देह में नाडी गुच्छक के रूप में फैला होता है इन्हें अध्यात्म की भाषा में उपत्यिका कहते हैं। इनकी कई जातियाँ है। कई स्थानों पर ज्ञान तंतुओं जैसी बहुत पतली नाड़ियां परस्पर चिपकी रहती है। कई बार यह रस्सी की तरह आपस में लिपटी और बटी होती है। कई स्थानों पर गुच्छक गाँठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते हैं। कितनी ही बार यह साँप की तरह समानाँतर लहराते हुए चलते हैं। अनेक जगहों में इनसे बरगद की भाँति शाखा प्रशाखाएँ निकलती दिखाई पड़ती है। कितने ही अवसरों पर अनेक प्रकार के गुच्छक परस्पर मिलकर एक घेरे का निर्माण कर लेते हैं। इनके रंग और आकार में जाति के हिसाब से अंतर पाया जाता है। षड्मव महारत्न में ग्रंथकार ने लिखा है कि यदि सूक्ष्म स्तर का गहन अनुसंधान किया जाय तो इन सूक्ष्म नाडी गुच्छकों के तापमान अणु परिभ्रमण एवं प्रतिभा पुँज में स्फुट अंतर दिखाई पड़ने लगेगा।

शरीर शास्त्री इन गुच्छकों के कार्य और स्वभाव का कोई विशेष परिचय अब तक प्राप्त नहीं कर सके है, पर अध्यात्मवेत्ताओं का मत है कि यह उपत्यिकाएँ कामत है कि यह उपत्यिकाएँ शरीर में अन्नमयकोश को बंधन ग्रंथियां है। यह अन्नमय कोश वस्तुतः है क्या? इसे भलीभाँति समझ लेना आवश्यक है। इस रहस्य को स्पष्ट करते हुए मृगेन्द्र आगम में शास्त्रकार लिखते हैं कि वास्तव में इस रक्त माँस के कलेवर को अन्नमय कोश समझने की जो आम धारणा है, वह सही नहीं है। यह माँस पिण्ड अन्नमय कोश होता तो मृत्यु के उपराँत जीवात्मा को स्वर्ग नरक भूख प्यास सर्दी गर्मी जैसी सुखद और दुःखद स्थितियों की अनुभूति नहीं होनी चाहिए पर मरणोत्तर जीवन में ऐसा होता देखा जाता है। स्पष्ट है कि अन्नमय कोश शरीर का संचालक कारण उत्पादक उपभोक्ता आदि तो है, पर उससे पृथक् भी है। इस पृथक आपे में जब गड़बड़ी आती है तो उसकी स्थूल सत्ता भी लड़खड़ाने लगती और रुग्ण बन जाती है। ऐसे शरीर की उपत्यिकाएँ भी रोगग्रस्त हो जाती है। उपत्यिकाएँ अन्नमयकोश से संबद्ध है। इसलिए इनकी विकृति को जानकर अन्नमयकोश से संबद्ध है। इसलिए इनकी विकृति को जानकर अन्नमयकोश के विकार को समझा जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि पशु-पक्षी उतने बीमार नहीं पड़ते जितने कि मनुष्य पड़ते देखे जाते हैं। इसकी गहराई में जान से एक ही प्रधान कारण दिखाई पड़ता है वह है मानव का प्रकृति के विरुद्ध आचरण। जीव जंतु प्रकृति प्रेरणा से कार्य करते प्रकृति के अनुरूप व्यवहार करते इसलिए यदा कदा ही बीमार पड़ते देखे जाते हैं, जबकि मनुष्यों के अधिकाँश कार्य प्रकृति के विपरीत होते हैं। इस विपरीतता से भीतर और बाहर का तारतम्य बिगड़ता है और असंबद्धता पैदा होती है। दोनों स्तरों पर संबद्धता नहीं रह पाने के कारण तरह तरह के रोग उपजते और व्यक्ति को अपने गिरफ्तार में लेते रहते हैं। अन्नमय कोश में असंबद्धता पैदा होने का सबसे प्रमुख कारण आहार दोष है। अन्न यदि विकारग्रस्त प्रकृति के विरुद्ध अनीति उपार्जित हो तो इन सबसे नाड़ियां और अन्नमय कोश विकृत बनते हैं। विकृति-विज्ञान का उल्लेख करते हुए साधना विज्ञान के मूर्धन्य आचार्य सघोजात लिखते हैं कि जिसे अन्न से हम अपना पेट भरते हैं और शरीर रक्त माँस का निर्माण करता है वास्तव में वही अन्न हमारे अन्नमय कोश और उपत्यिकाओं को बनाता-बिगाड़ता रहता है। उनके अनुसार अन्न के स्थूल सूक्ष्म कारण तीन भाग है। स्थूल से रस रक्त का सृजन होता है। सूक्ष्म वाला हिस्सा मानवी प्रवृत्तियों को जन्म देता है, जबकि उसका कारण भाग संकल्प और संस्कार के लिए जिम्मेदार है। भोजन का यह अंश अच्छा बुरा जैसा होता है, वैसे ही संस्कार हमारे अन्न से संबंधित इस कोश में जमने लगते हैं। अच्छे सात्विक खाद्य से संस्कार अच्छे बनते हैं जबकि कुधान्य से अखाद्य से उसकी प्रकृति असात्विक हो जाती है। यही कारण है कि अंडा माँस जैसे अभक्ष्य को खाने से शरीर तो माँसल हो जाता है पर उसकी कारण प्रकृति इतनी अवाँछनीय और अप्रिय स्तर की होती है कि अन्नमय कोश को बीमार बना देती है। यह अस्वस्थता समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करती और व्यक्ति को व्यवहार की दृष्टि से अत्यंत फूहड़ असभ्य और असंस्कृत बना देती है। यह स्पष्ट है कि रुग्ण उपत्यिकाओं वाला व्यक्ति अपने रुग्ण स्वभाव से निर्मित अस्वाभाविक और असुखकर परिस्थितियों में सर्वदा क्षुब्ध और अशाँत बना रहता है। इतना ही नहीं कोश की अपरिष्कृति में सर्वदा क्षुब्ध और अशांत बना रहता है। इतना ही नहीं कोश की अपरिष्कृति का परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप में तथा जन्म जन्मान्तर तक कुरूपता एवं शारीरिक अपूर्णता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इसलिए इस तथ्य से परिचित लोग सदा सात्विक और संस्कारी अन्न पर जोर देते हैं ताकि स्थूल शरीर में किसी प्रकार की अपंगता अस्वस्थता आलस्य और कुरूपता की वृद्धि न हो।

जिस प्रकार देह के तापमान को देख कर शारीरिक स्वस्थता अस्वस्थता का पता चल जाता है उसी प्रकार नाडी गुच्छकों के गुण दोषों के आधार पर सूक्ष्म शरीर की स्थिति ज्ञात हो जाती है। किसी एक जाति की नाडी के दोषों की अधिकता इस बात की प्रतीक है कि सूक्ष्म शरीर असंतुलन की ओर बढ़ रहा है तब उसे संतुलित- नियंत्रित करने की आवश्यकता पड़ती है। इंधिका जाति के नाडी गुच्छकों की अधिकता व्यक्ति में चंचलता अस्थिरता उद्विग्नता पैदा करती है। इंध्का प्रधान व्यक्ति स्थिर वैउकर काम करने में अयोग्य होता हे जिनमें वैउकर काम करने में अयोग्य होता है। जिनमें दीपीकि जाति की उपत्यिकाएं अधिक होती है उनमें वर्भ रोग फोड़ा फुन्सी पीला पेशाब आँखों में जलन जैसी शिकायतें पैदा होने लगती है। जब मोविकाओं की वृद्धि होती है तो दस्त जुकाम कफ संबंधी समस्याएँ बढ़ने लगती है। आप्यायिनी अधिक निद्रा अतुत्साह आलस्य भारीपन के लिए जिम्मेदार होती है। पूषा की बढ़ोत्तरी व्यक्ति को अति कामुक बनाती है। कपिला डर दिल की धड़कन में वृद्धि आशंका अस्थिर चिंतता नपुँसकता जैसे रोग पैदा करती है। धूसार्वि गुच्छक क्रोध और श्वास की तीव्रता को बढ़ाता है ऊष्मा की अधिकता के कारण जाड़े में भी व्यक्ति को गर्मी महसूस होती है। आमाया मनुष्य को जिद्दी और दुराग्रही बनाती है। ऐसे शरीरों में दवा कदाचित् ही कभी असर करती है। ऐसे मानव अपनी इच्छा से ही होगी और नीरोग बनते देखे जाते हैं। उद्गीथ की अभिवृद्धि व्यक्ति को संतानहीन बना देती है। जिनसे इस जाति के गुच्छक ज्यादा होंगे वे हर प्रकार से स्वस्थ होते हुए भी संतानोत्पादन के अयोग्य होंगे। असिता की जिस शरीर में संख्या ज्यादा होती है वह काया अपने ही लिंग की संतानें पैदा करने की विशेष क्षमता रखती है। स्त्री शरीर में यह कन्या पैदा करने लगती है और पुरुष शरीर में इनकी बहुलता बालक उत्पन्न करती है। युक्त हिंसा दुष्टता क्रूरता अनाचार अत्याचार जैसे कृत्यों की प्रेरणा देती है। इनसे संपन्न व्यक्ति जुआरी व्यभिचारी लंपट ठग बेईमान होते देखे जाते हैं।

इन ग्रंथियों की न्यूनाधिकता शारीरिक स्थिति को मनोनुकूल रखने में बाधक होती है। मनुष्य चाहता है कि वह अपनी स्थिति और अवस्था को अमुक प्रकार की बना कर रखें। इसके लिए वह प्रयत्न भी करता है पर अनेक बार वह उपाय असफल होते देखे जाते हैं, कारण कि ये उपत्यिकाएं अन्दर ही अंदर ऐसी क्रियाएँ उत्पन्न करती है जो बाहरी प्रयास को सफल नहीं होने देती और मनुष्य अपने को बार बार असफल एवं असहाय अनुभव करता है।

उपत्यिकाओं का यह जाल शरीर एवं मन द्वारा किये गये दुरितों दुष्कर्मों दुराचरणों से विकारग्रस्त बता तथा सत्कर्मों से संतुलित और सुव्यवस्थित होता है। इन्हें ठीक बनाये रखने के लिए आहार बिहार का संयमित एवं सात्विक होना, दिनचर्या सही बनाये रखना, प्रकृति के निर्देशों को पालना आवश्यक माना गया है। इनके अतिरिक्त कुछ योग साधनात्मक उपाय उपाय उपचार भी है जिन्हें यदि नियमित रूप से करता रहा जाय , तो इन नाडी गुच्छकों का शोधन एवं संभव हो जाता है। बाह्योपचार जहाँ इन्हें परिमार्जित करने में एक प्रकार से निष्फल बने रहने हैं, वही आध्यात्मिक अवलंबन रामबाण सिद्ध होता है।

उपवास इन्हीं में से एक सशक्त उपाय है, जो नाड़ियां को संशोधित करने में बहुत कारगर सिद्ध होता है। इसी होता है। इसका एक सुविस्तृत विज्ञान हैं। इसी विज्ञान के आधार पर प्रावीन ऋषियों ने मास, मुहूर्त फल को ध्यान में रखते हुए त्यौहारों से इसकी ऐसी संगति बिठायी थी कि उक्त ऋतु , मास और तिथि में जिस ग्रह की कल्याणकारी किरणें बरसती है, उन्हें उपवास के माध्यम से आकर्षित-अवशोषित कर अंतः को सुविकसित बनाया जा सकता था। शास्त्रों में जो जगह-जगह अमुक उपवास के अमुक और अमुक के अनुकूल फल गिनाये गये है, वस्तुतः वह इसी विज्ञान पर आधारित है। उन्हें यदि आवश्यक नियमों और निर्देशों के साथ संपन्न किया जा सके , तो आज भी इनके सहारे काफी लाभ हस्तगत किये जा सकते हैं। उपवासों के कई प्रकार है। सभी की अलग-अलग विशेषताएँ है। किस व्यक्ति को कौन-सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके नियमोपनियम क्या होने चाहिए, इसके निर्धारण के लिए सूक्ष्म विवेचन की आवश्यकता है। इस विद्या का कोई विशेषज्ञ ही इसका निर्णय भलीभाँति कर सकता है। वस्तुतः इसके निर्धारण के समग्र जिन बातों को ध्यान में रखना पड़ता है, वे है- साधक का अन्नमय कोश किस स्थिति में है? कौन से नाडी-गुच्छक विकार युक्त हो रहे है? किस उत्तेजित संस्थान को शाँत करने एवं किस मर्म स्थल को सतेज करने की जरूरत है? इतना सब जानने के पश्चात् ही इस बात का निश्चय हो सकता है कि कौन-सा व्यक्ति किस प्रकार का उपवास करे।

उपवासों के उपराँत आंतरिक के उपराँत आँतरिक संस्थानों को सही करने के लिए के लिए आसनों की बारी आती है। आसन इतने उपयोगी व्यायाम हैं, जो स्वास्थ्य की दृष्टि में भी आवश्यक हैं, और मर्मस्थलों को क्रियाशील बनाने में भी महत्वपूर्ण साबित होते हैं, इनके द्वारा आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार शरीर के भीतर की हव्यवहा कव्यवहा नामक विद्युत शक्ति संतुलित और सक्रिय बनी रहती है एवं उपत्यिकाएँ भी नियंत्रण में रहती है।

इन सब पर ध्यान दिया और दिनचर्या आहार विहार आदि को संयमित रखा जा सके, नियमित तप, उपवास आसनों द्वारा भीतरी सूक्ष्म तंत्रों पर जमा होने वाले कषाय-कल्मषों को बराबर परिमार्जित करते रहने का कोई सुनिश्चित क्रम बन सके तो कोई कारण नहीं कि हम स्वस्थ नीरोग न रह सकें। बाह्य स्वास्थ्य का आधार अंतर की नीरोगता और सुव्यवस्था का आधार अंतर की नीरोगता और सुव्यवस्था में निहित है इसे यदि समझा जा सके तो हर कोई व्याधि रहित जीवन जी सकता और स्वस्थ प्रसन्न बना रह सकता है।


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