चित्रकला का मनोविज्ञान भी निराला है

November 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कहते हैं कि मनुष्य ने लिखना बाद में सीखा चित्र बनाने की कला उसने पहले ही आविष्कृत कर ली थी मनुष्य ने अपनी आदिम प्रकृति से आगे कदम बढ़ाया और परिवार बसाना सीखा तो जाय कभी उसे अपने स्वजनों के लिये कोई संकेत छोड़ने की आवश्यकता पड़ती तो वह चित्रों द्वारा ही अपने संदेश को अंकित करता था। स्वाभाविक है कि मनुष्य में बोलचाल और लिखने पड़ने के लिये चित्र बनाना सीख लिया हो क्योंकि देखी गयी घटनाओं और आकृतियों को चित्रों के रूप में अंकित करने की प्रेरणा ही सहज लगती है बच्चे भी वर्ण माला सीखने समझने से पहले चित्र बनाना और उन्हें समझना आरंभ कर देते हैं यहाँ तक कि उन्हें वर्णमाला सीखने के लिये चित्रों का ही प्रयोग करना पड़ता है और चित्र बना कर ही अक्षर समझाना पड़ता है।

चित्र भाषा की अपेक्षा मनुष्य के अधिक निकट है। पढ़ना लिखना सीखने के लिये भाषा को समझने का अभ्यास कठिन तथा समय और श्रम साध्य है। पर गँवार से गँवार व्यक्ति भी चित्रों को आसानी से समझ जाता है भाषा के माध्यम से भाव अभिव्यक्त करना और उन्हें समझना चित्रों द्वारा भाव को समझने की अपेक्षा कठिन है क्योंकि भाषा के द्वारा भावों को व्यक्त करने में बड़ी कुशलता और साहित्यिक सूझ बूझ को अपेक्षा रहती है यो चित्रकारिता में भी कला कौशल और सूझ बूझ रहती पर वह अधिक जीवंत है तथा लोगों पर उसका अधिक प्रभाव पड़ता है।

चित्रों का उपयोग भी ज्यादा होता है किसी घर में आपको किताबें भले न दिखाई दे पर चित्र मानव मन के अधिक निकट है इसलिये वह उसे प्रिय भी है और प्रभावित भी अधिक करते हैं चित्रों के माध्यम से हम जो कुछ भी देखते हैं उसका सीधा प्रभाव हमारे मन और मस्तिष्क पर पड़ता है। किसी चित्र या दृश्य को बार बार देखने पर अंकित होने लगता है और जितनी बार उसे देखा जाता है उतना ही वह स्थायी तथा परिपक्व बनता है। मनुष्य मन की तुलना कैमरे की उस फोटो प्लेट से की जा सकती है जिसके लेन्स पर से जो भी छवि गुजरती है। हम अच्छा या बुरा जो कुछ भी देखते हैं उसका सीधा प्रभाव हमारी अंतश्चेतना पर पड़ता है,क्योंकि प्रत्येक चित्र का अस्तित्व केवल उसमें चित्रित की गयी आकृति और प्रयुक्त किये गये रंगों तक ही सीमित नहीं रहता वरन् उसके पीछे विचार नहीं रहता वरन् उसके पीछे विचार होते हैं भावनायें होते हैं चित्र की भाषा होती है जिसके द्वारा वह चित्र हमारी चेतना से संवाद करता है। यही कारण है कि कोई भी चित्र देखते समय हमारे मन में कुछ संकेत उठने लगते हैं और उससे संबंधित धारणायें तथा विचार हमारे मन पर अंकित हो जाते हैं।

इष्ट देवता की आराधना करते समय ध्यान के लिये हम जो चित्र प्रयुक्त करते हैं और उपासना के समय उस पर हमारी दृष्टि गड़ी रहती है तो हमारी चित्र स्पंदित होने लगता है शाँत और गंभीर मुद्रा में महान तत्व के चिंतन में लीग बुद्ध के चित्र को हम एकाग्रतापूर्वक देखें तो हमारे चित्त में गंभीर शाँति की प्रेरणा उठने लगती है। किसी वीर योद्धा का चित्र देखने पर वैसे ही साहस और वैसे ही शौर्य के भाव उदित होने लगते हैं। गाँधी की प्रतिमा देखे तो उनके चेहरे से छलकने वाली करुणा दया और अहिंसा के भाव हमारे अंतःकरण में रिस रिस कर आने लगते हैं किसी लोकसेवी परमार्थपरायण शहीद की चित्राकृति देखकर देश और समाज के लिए हममें भी मिटने का भाव उदित होने लगता है। किसी देवी देव या अवतारी पुरुष की छवि देखकर किसी मंदिर मस्जिद या गिरजाघर में जाने पर ईश्वर तथा उसके दिव्य गुणों का अनायास ही स्मरण आने लगता है। कहने का अर्थ यह है कि देखे गये चित्रों का भाव और उनकी भाषा हमारी चेतना को अनायास ही आँदोलित कर उठती है।

प्रत्येक परिवार में जिसके सदस्य शिक्षित हो या अशिक्षित थोड़े बहुत चित्र जरूर लगे रहते हैं। इन चित्रों को लगाने का उद्देश्य निस्संदेह रूप से घर के वातावरण को सुन्दर बनाना होता है अधिकाँश लोगों का ध्यान इस ओर नहीं जाता चित्रों का हमारे चित्त पर क्या प्रभाव पड़ता है और वे हर तरह के चित्र पर क्या प्रभाव पड़ता है और वे हर तरह के चित्र जैसे उन्हें बाजार में मिलते हैं या जैसे पसंद आते हैं लगा जो मनुष्य में कई एक पाशविक वृत्तियों को जमा कर बुराइयों की ओर धकेलते हैं। जिस प्रकार अच्छे चित्र अच्छे भाव और अच्छे विचारों को प्रेरित करते हैं उसी प्रकार गंदा या अश्लील चित्र देखने वाले के मन में गंदगी और अश्लीलता की भावनाएँ भड़कती हैं। चूँकि मन की बनावट ही ऐसी विचित्र है, बार बार उन्हें देखने को मन करता है व क्रमशः पतन के गर्त में गिरने की प्रक्रिया को बलवती बना देता है।

यह एक निश्चित तथ्य है कि चित्रों को देख लेने से ही बात खत्म नहीं हो जाती। बात वहाँ से तो शुरू होती है जो प्रभाव के रूप में आगे बढ़ती है। उस दशा में भी जब कोई चित्र विशेष सामने न हो तो भी मान पटल पर अंकित वह दति उभर आती है और समय में भी मनुष्य को वैसी ही प्रेरणायें देती है। जब भी विश्राम की स्थिति होती है वह खाली समय रहता है तो पूर्व स्मृति के आधार पर वैसे ही विचार तथा वे भाव उदित होने लगते हैं। दिन में देखी गयी बाते और कई दिनों बाद भी रात में सोते समय स्वप्न में दिखाई देती है। यह इस बात का प्रतीक है कि दृश्य दिखाई पड़ने के बाद भी हमारे मानस में अमिट चिन्ह छोड़ जाता है जो समय पड़ने पर उभर कर सामने आता है और इस प्रकार हम जो भी देखते हैं वह धीरे-धीरे हमारी प्रकृति हमारे स्वभाव, हमारे आचरण और हमारे व्यवहार में उतरता रहता है। इस दृष्टि से उनको देखना हमारे जीवन में अच्छाइयाँ उत्पन्न करता है, तो बुरे चित्र लगाने और उन्हें देखने से हमार जीवन में बुरी प्रवृत्तियाँ बल पकड़ती है। अतः आवश्यक यह है कि बुरे चित्र और बुरे दृश्य देखने की बजाय उस ओर से आँख ही मूँद ले, अपने घर में वैसे चित्र लगे है तो उन्हें हटा हो दे और लगाना ही है तो अच्छे चित्र ही लगाये।

लेकिन खेद है कि आज कल अच्छे चित्रों का अभाव है। कला के नाम पर चल-चित्रों के माध्यम से बाजार में अश्लील और भद्दे चित्रों की बाढ़ सी आ गयी है। चित्रकारों का उद्देश्य कला की सेवा करना न रह कर धन कमाना ही रह गया है और वे ऐसे चित्र बनाने में ही अपनी शान तथा सफलता समझते हैं जो कि अधिक मात्रा में बिके। लोग उन चित्रों के भड़कीलेपन से प्रभावित इसलिये होते हैं कि वे उनकी पाशविक भावनाओं की तृप्त करते हैं। यत्र तत्र बाजारों में चित्र कैलेण्डर पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण इसी स्तर की तस्वीरों से पेट है। तिलमिला देने वाली बात तो यह है कि बहुत धार्मिक कहे जाने वाले चित्र भी इस श्रेणी में आते हैं। सीताराम राधाकृष्ण शिव पार्वती लक्ष्मी विष्णु आदि देवी देवताओं के चित्र भी बहुधा इसी स्तर के देखने को मिलते हैं। परिणाम यह होता है कि मानवी मन के अधिक निकटवर्ती होने के कारण यह पवित्र कलारूपी विद्या अपने ओछे स्तर के कारण आज मनुष्य का अहिर्निशि जतन करने में लगी हुई है।

लेकिन खेद है कि आज कल अच्छे चित्रों का अभाव सा है। कला के नाम पर चल चित्रों के माध्यम से बाजार में अश्लील और भद्दे चित्रों की बाढ़ सी आ गयी है। चित्रकारों का उद्देश्य कला की सेवा करना न रह कर धन कमाना ही रह गया है और वे ऐसे चित्र बनाने में ही अपनी शान तथा सफलता समझते हैं जो कि अधिक मात्रा में बिके। लोग उन चित्रों के भड़कीलेपन से प्रभावित इसलिए होते हैं। कि वे उनकी पाशविक भावनाओं की तृप्त करते हैं। यत्र तत्र बाजारों में चित्र कैलेण्डर पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण इसी स्तर की तस्वीरों से पटे पड़े है। तिलमिला देने वाली बात तो यह है कि बहुत धार्मिक कहे जाने वाले चित्र भी इस श्रेणी में आते हैं। सीताराम राधाकृष्ण शिव पार्वती लक्ष्मी विष्णु आदि देवी देवताओं के चित्र भी बहुधा इसी स्तर के देखने को मिलते हैं। परिणाम यह होता है कि मानवी मन के अधिक निकटवर्ती होने के कारण यह पवित्र कलारूपी विद्या अपने ओछे स्तर के कारण आज मनुष्य का अहिर्निशि पतन करने में लगी हुई है।

विचारशील व्यक्तियों को चाहिए कि वे इस तरह के चित्रों की बाढ़ को रोके और लोगों को समझा बुझाकर इस बात के लिये तैयार करे कि वे अपने घरों में अच्छे प्रेरणादायक चित्र ही लगायें अच्छे चित्र ऐसे स्थान पर लगायें जाने चाहिए जहाँ से कि उन पर हर समय नजर पड़ती रहे। उठते बैठते चलते फिरते हुए हर घड़ी अच्छे चित्रों पर नजर पड़ते रहने से हमें हर घड़ी उत्कृष्ट प्रेरणायें मिलती रहेंगी। पुस्तकों का प्रभाव तो उन्हें पड़ने और उनका मनन चिंतन अध्ययन करने पर ही पड़ता है पर चित्र तो देखने मात्र से प्रभावित करते हैं। अपने घर में समझ बूझ के साथ चित्र लगायें, ऐसी प्रेरणा सबको मिले इसी में समय को समझदारी है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles