अपनों से अपनी बात- - घृत के स्नेह व बाती की प्रखर ऊर्जा से बना है यह विराट् अखण्ड-ज्योति परिवार

November 1994

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माँ का कार्य है प्यार बाँटना दुलार देना इतना कि पुत्र को कोई शिकायत न रहे। बिगड़ने तो न पाये किंतु अंतराल की संवेदना की गंगोत्री कभी सूख न सके। जब मातृसत्ता को गुरुसत्ता की भूमिका भी निभानी पड़े तथा अभिभावक तंत्र में पिता का साया उठ जाने पर पिता का साया उठ जाने पर पिता की भी तो हम कल्पना कर सकते हैं कि यह कार्य कितना दुरूह होगा उस सत्ता के लिए। किंतु जो शक्ति का ही एक अंग हो-स्वयं साक्षात् माँ पार्वती रूपा हो उनके लिए यह कार्य कठिन नहीं।

परमवंदनीया माताजी जिनने विगत भाद्रपद पूर्णिमा महालय श्रद्धारंभ की पावन बेला में स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म में प्रवेश किया सतत् उस अखण्ड दीपक में घृत बनकर परहित के निमित्त अपनी एक एक बूँद होम करनी रही जो उनकी आराध्य सत्ता ने 1926 में प्रज्वलित किया था व अब भी जल रहा है। उसी के प्रकाश में मिशन के सभी महत्वपूर्ण निर्धारण संपन्न हुए। उस अखण्ड दीपक को यदि समष्टि के प्रति समर्पण का प्रतीक माना जाए। ऋषियुग्म की तपः ऊर्जा का घृतरूपी स्नेह में परम वंदनीया माता जी की सत्ता का तथा बाती के प्रखर प्रकाश से परमपूज्य गुरुदेव के ब्रह्मवर्चस् का परिचय मिलता पाया जाए तो इस मिश्रण के सही स्वरूप को समझने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होगी। उसी प्रखण्ड दीपक की उनने न केवल सावधानी से देखभाल की इसकी प्रशंसा लेकर प्रकाशित होने वाली अखण्ड ज्योति जो महाकाल के प्राण प्रवाह के रूप में जन जन में अभिनव उत्साह का संचय खाली को भी संभाला। संचय क्या नहीं करा देती? जब अपना सारा आपा ही गुरुसत्ता को सौंप दिया तो फिर ज्योति बनकर जलने अथवा घी की बूँद बनकर बाती को स्नेहसिक्त बनाये रखने में कोई कमी कैसे हो सकती थी?

अखण्ड ज्योति के पाठकों को हम पूरी तरह आश्वस्त करना चाहते हैं कि गायत्री परिवार रूपी भवन जिन ईंटों पर रखा गया है वे प्रयासपूर्वक गुरुसत्ता द्वारा पकायी गयी है। इसलिये इसके किसी भी हिचकोले से हिलने की तनिक भी गुँजाइश नहीं है। इस भवन की नींव बड़ी मजबूत है। अखण्ड ज्योति का दायित्व अब जिन कंधों पर आया है, वे कमजोर भले ही दिखाई दे पर इनका आश्वासन इतना अवश्य है कि गुरुसत्ता की सजलता व प्रखरता दोनों को ही पाठकों तक उसी रूप में पहुँचाने की महाकाल की व्यवस्था में सहायक की भूमिका में वे कोई कमी नहीं आने देंगे। परम वंदनीया माताजी की ममता करुणा स्नेह से विगलित अंतःकरण को तथा परमपूज्य गुरुदेव की दूरगामी भविष्य की रीति नीति बनाकर नवयुग का स्वप्न रचने वाली प्रखर प्रज्ञा को वे परिजनों को पहुँचाने का प्रयास करेंगे।

अगणित घटनाक्रम गुरुसत्ता से जुड़े ऐसे है, जिन पर दृष्टि डालने मात्र से परिजनों को लगेगा कि किस दृढ़ नींव पर यह भवन रखा गया है ब्राह्मणत्व को जीवन में उतार कर दधीचि स्तर की तपः ऊर्जा से स्वयं को पकाकर तथा उदार परमार्थ परायणता को रोम रोम में पिरोकर जीत हुए यह मिशन खड़ा हुआ है। किसी एक या कुछ धनी संपन्न का अनुदान लगकर यह मिशन बना होता तो कोई असमंजस भी हो सकता था किंतु जहाँ समर्पण की उच्चतम अवस्था हो वहाँ किसी को भी रंचमात्र भी संदेह नहीं रहता।

पूज्यवर के 24 वर्ष के 24-24 लक्ष के महापुरश्चरण 1926 से लेकर 1953 तक की अवधि में गुरुसत्ता की प्रेरणानुसार बीच में अन्य निर्देशों का भी पालन करते हुए 27 वर्ष में संपन्न हुए थे। जब पूर्णाहुति का समय आया तब तक गायत्री तपोभूमि रूपी दुर्वासा ऋषि की तपस्थली देख ली गयी थी। किंतु उसे खरीदने का मन होते हुए भी इतना बड़ा सौदा करने को मन झिझक रहा था। तब मध्यम वर्ग के कुछ भावनाशील ही जुट पाए थे, अखण्ड ज्योति लागत मूल्य पर अब तक निकलती है, तथा कतिपय पुस्तकें (जो श्रद्धाँजलि सेट के रूप में पुनः प्रकाशित हुई हैं) के माध्यम से कुछ व्यवस्था बना पा रहे थे। प्रामाणिकता छपाई की इतनी रखी जाती थी कि एक बार गलत फार्म अलग किताब में चला जाने से पूरा स्टाक ही पूज्यवर ने जला दिया था। ऐसे में धनराशि कहाँ से आए? असमंजस माताजी ने दूर किया। श्री ओमप्रकाश जी व दयावती बहन पूर्व पत्नी से उत्पन्न दो संतानों के विवाह की व्यवस्था परम वंदनीया माताजी के ही माध्यम से बनी थी। अब जो घड़ी सामने आयी उसमें तो सब कुछ दाँव पर लगाने की बात थी क्योंकि इससे कम में गायत्री परिवार की कर्म भूमि प्रचार प्रसार स्थली की आधारशिला रखी नहीं जा सकती थी। उनने अपने ढाई सौ तौले जेवर जो पूरी जमा पूँजी थी लाकर पूज्यवर के पास रख दिए व कहा कि इससे जमीन खरीदने की व्यवस्था पर ले भवन के लिए भी किसी खाली व्यवस्था होगी ही। उदारता (खाली ). जेवर पति के कार्यों के निमित्त अनुदान देने के रूप में निकली बीज बन गई उस गायत्री परिवार का जो गलकर एक विराट् वृक्ष के रूप में पुष्पित पल्लवित होता चला गया। अपने घर से आरंभ की गयी इस प्रक्रिया में अन्यान्य व्यक्तियों के उपहार के बावजूद उनने पूरी अंतरात्मा के साथ अपने इष्ट का साथ दिया बच्चों को भी वैसा ही जीवन जीने को प्रेरित किया यह एक उदाहरण बना व देखते देखते विस्तार के लिए अनुदान बरसने लगा।

बड़े पुरुषार्थ इससे कम समर्पण में पूरे नहीं होते। स्नेह सलिला माताजी वास्तविक अर्थों में जगन्माता थी व उसी रूप में पूज्यवर ने भी उन्हें ठीक ठाकुर रामकृष्ण की तरह रखा उनके जिम्मे एक विराट परिवार के पालन पोषण का भार सौंपा जिसे वे निभाती चली गयी।

परम वंदनीया माताजी के लिए ही सप्तसरोवर में शांतिकुंज आश्रम का निर्माण करने के लिए 1967 में भूमि क्रय के बाद वे बारंबार हरिद्वार आते रहते थे? यहाँ आकर वे सप्तऋषि आश्रम में रुकते विश्वमित्र कुटीर में तथा जब तक अस्थायी निर्माण नहीं हो गया वही बने रहते। अज्ञातवास के दौरान भी एक माह के लिए वर्ष में वे यही आकर रुके भी थे। बिना किसी पूर्व सूचना के परम वंदनीया माताजी मथुरा से चल दी अपने आराध्य से मिलने। किंतु न पहले आयी थीं न पता था कि कहाँ है? बरसते पानी में पहले दिल्ली व फिर बस पकड़कर प्रायः बीस घंटे में भूखी प्यासी सप्तऋषि आश्रम पहुँची उन दिनों हरिद्वार की 1-2 बसे ही चला करती थी। जब वे कुटिया पहुँची तो कुटिया खुली थी, आचार्य श्री गंगातट पर गए थे। देखा कि भगोने में खिचड़ी बनी रखी है। गंगा तट पर जाकर अपने आराध्य के साथ आयी व भोजन प्रसाद लेने बैठी। खाया तो नमक का या कंकर पर आचार्य श्री पूरे स्वाद के साथ निष्ठा भाव से खा रहे थे। देखते ही आँसू आ गए कि वहाँ रहते तो मैं बिठाकर जैसा वे चाहते हैं खिलाती किंतु यहाँ कैसे निर्वाह कर रहे है। बिना चेहरे पर किसी शिकन के पूज्यवर ने कहा कि अनगढ़ हाथों से बनी है, खालो फिर कल तुम बना देना। बीस घंटों से भूखी आराधिका ने इष्ट का प्रसाद प्रेम से ,खाया व तृप्ति अनुभव की। सोचा जिसके हृदय में सारी दुनिया का दर्द भरा है वह अपने सुख की क्या चिंता करेगा। एक दो दिन बाद तीनों वापस लौट गए पर यह घटना माताजी के लिए चिर स्मृति बन गयी। स्वाद पर नियंत्रण किस स्तर का होना चाहिए तभी तप सधता है, यह मूलमंत्र उनने 24 वर्ष के अनुष्ठान के उत्तरार्ध में जान लिया था पर इसे कैसे अंत तक निभाया जाता है, यह भली भाँति समझ में आ गया।

परिजनों की आँखें जो आज वृहत अट्टालिकाएं गायत्री तपोभूमि ब्रह्मवर्चस् शांतिकुंज गायत्री तीर्थ तथा विश्वभर में फैली अरबों की लागत की शक्तिपीठों को देखती है, उन्हें पहले ऋषियुग्म के गलने के इतिहास को उनके समर्पण को समाज निर्माण के संकल्प को पूरा करने के निमित्त किये गए तप का समझना पड़ेगा , तभी वे जान पाएँगे कि कैसे यह सब कुछ बन कर खड़ा हो गया।

पूज्यवर सतत् कहते थे मेरी शक्ति का स्त्रोत माताजी है व माताजी कहती थी-मेरे इष्ट मेरे गुरुदेव-आप सबके गुरुदेव है। दाम्पत्य जीवन में कैसे परस्पर दूध पानी मिलकर एक होते हैं एकाकार हो एक सत्ता एक रूप बन जाते हैं, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम ऋषियुग्म की जीवन यात्रा में देखते हैं वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं को जब भी कुछ भूलचूक होने व्यावहारिक मार्गदर्शन में नासमझी से कुछ समझ न पाने के कारण गलतियाँ होने पर कड़ी रुखाई भरी डाँट पूज्यवर की पड़ती थी, जिसके हम सभी परिजन साक्षी है, तो प्यार का मलहम परम वंदनीया माताजी ही लगती थी। अभी वरिष्ठ गिने जाने वाले कार्यकर्त्ताओं का स्वरूप निखारने में गुरुदेव की डाँट ने जहाँ अहंकार गलाने का कार्य किया वहाँ उस रुक्षता में स्नेह संरक्षण का नवनीत माता ने चखाया व ऐसा चखाया कि फिर कोई स्वाद नहीं भाया। कितना कुछ गुरुसत्ता किसी को सुधारने उसके प्रारब्ध को बदलने के लिए करती है यह गुरुदेव व माताजी के जीवन प्रसंगों को देखकर जाना समझा सकता है।

महाप्रयाण से कुछ दिन पूर्व की बात है। निज की ओढ़ी हुई अशक्तता व कष्ट को उनने कभी किसी के समक्ष जाहिर नहीं होने दिया। इन पंक्तियों के लेखक ने कई बार पूछा कि कही कोई तकलीफ तो नहीं है? बदले में माताजी ने उसके हाथ में लगी चोट पर हाथ सहलाकर कहा कि यह कैसे लग गयी? ध्यान रखना कही लिखने में दिक्कत न आए। कैसे भुलाएँ वे क्षण जिनमें उनकी ममता दुलार सदा बाद आता रहता है जिसने हमें हम सबको व एक विराट् परिवार को सदा के लिए एक सूत्र में पिरोकर रख दिया। अपना कष्ट तनिक भी मन में न विचार कर जो सीढ़ियां छलाँगती अश्वमेधी यज्ञों में मंचों पर चढ़ जाती थी रात्रि को लौट कर कितनी सूजल घुटनों व पैरों पर होती थी यह संभवतः किसी की जानकारी में न होगा पर उनका ध्यान रहता था उनका हाथ पकड़ कर लेकर ऊपर चढ़ने वालो पर जिनके दर्द के लिए वे चिंतित बनी रहती थी। कोई कल्पना कर सकता है, कि कितनी करुणा अपार स्नेह, ममत्व एवं सुधारने एवं सुधारने वाला दुलार उनके रोम रोम में बसा था? जब भी यह सब याद करते हैं तो उनका एक ही संदेश याद करते हैं यही प्यार सबको बाँटना यही मिशन की धुरी है एक मात्र निधि है इसे जिन्दा रखना सबके बढ़ाते रहना संगठन इसी आधार पर चलेगा। क्या हम सभी मातृसत्ता को आश्वस्त कर सकते हैं कि जबकी यह निधि हम सुरक्षित रखेंगे?


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