राबिया की हंसी (Kahani)

November 1994

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राबिया हँसती भी और रोती भी। दोनों काम साथ-साथ करतीं। तो लोगों को हैरानी हुई। लोगों ने कहना शुरू कर दिया। राबिया पगला गई है। किंतु चतुर लोगों को विश्वास नहीं हुआ इतनी बड़ी संत आत्मा अचानक कैसे पागल हो सकती है। लोगों ने पूछा-आप हँसती भी हैं और रोती भी है। ऐसा क्यों?”

राबिया बोली हँसती मैं उसे देखकर हूँ जो छाया की तरह चारों ओर हर समय साथ रहता है और रोती तुम्हें देख कर हूँ कि तुम्हें वह फिर भी अनुभव में नहीं आता, विश्वास भी नहीं होता। हँसती हूँ उसे देखकर जो मुझे आज अनुभव में नहीं आता विश्वास भी नहीं होता। हँसती हूँ उसे देखकर जो मुझे आज अनुभव में आ रहा है और रोती हूँ कि कल तक जिसे माना था झुठलाया था, अविश्वास करती रही वह कितना गलत था इसी नादानी पर हँसती रोना आता है।

संतों की लीला ऐसी ही होती है जो विरलों को ही समझ में आती है।


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