हममें से कोई सचमुच बुद्धिमान है क्या?

November 1994

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मनुष्य को अधिक बलिष्ठ और वरिष्ठ माना जाता है। सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में तो वह कितने ही प्रसंगों में पिछड़ा हुआ है। वह हाथी गेंडा, ऊँट ह्वेल जितना विशाल है न बलवान। चीते के साथ वह दौड़ में बाजी नहीं जीत सकता। पक्षियोँ की तरह वह स्वच्छंद आकाश में उड़ भी नहीं सकता। बंदर की तरह इस पेड़ से उस पेड़ पर कूदने की क्षमता भी इसमें नहीं है। फिर भी उसे सृष्टि का मुकुटमणि इसलिए कहा और माना जाता हे कि वह बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में अन्य सभी से आगे है।

यदि वह बुद्धिमत्ता चतुरता, कुटिलता, और संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि में सीमित बना रहता है तो उसे श्रद्धा और सम्मान का भाजन नहीं कहा जा सकता। ऐसे दाव घात लगाने में तो हिंस्र जंतुओं की गतिविधियाँ मनुष्य से किसी प्रकार भी कम स्तर की नहीं ठहराती फिर गर्व किस बात का?गौरव क्या? वरिष्ठता किस आधार पर?

सराहनीय बुद्धिमत्ता वह है जो दूरदर्शी विवेकशील की पक्षधर हो, जिसके साथ मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं का परिपालन और वर्जनाओं के संदर्भ में संयम अनुशासन भी जुड़ा हुआ हो। जो इन कसौटियों पर खरी न उतरे उस दक्षता को धूर्तता का ही नाम दिया जा सकता है। इस दृष्टि में तो सियारों और लोमड़ियों को भी चिरकाल से ख्याति प्राप्त है। यदि वस्तुतः मनुष्य बुद्धिमान है, तो उसे क्रिया की प्रतिक्रिया से परिचित होना चाहिए था नीति और अनीति के बीच अंतर करना चाहिए था और क्रिया की प्रतिक्रिया पर विश्वास करना चाहिए था वस्तुस्थिति समझने और उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकने में भी उसे समर्थ होना चाहिए था।

आश्चर्य इस बात का है कि बुद्धिमत्ता का विपुल वैभव उपलब्ध होने पर भी मनुष्य अपने हित-अनहित का सही मार्ग ढूंढ़ नहीं पाता। सीधी चाल चलने तक में आये दिन चूक करता रहता है। अपनी बहुमूल्य समझदारी को, क्षमता और दक्षता को उन कामों में व्यय करते देखा जाता है, जो भ्रांतिवश लाभ जैसे प्रतीत होते हैं, पर वस्तुतः हानिकारक ही सिद्ध होते हैं

उदाहरण के लिए चटोरेपन का स्वाद चखने के लिए सहज ललक-लिप्सा बनी रहती है पर यह भुला दिया जाता हे कि इस संदर्भ में अतिवाद बरतने पर जिस उपलब्धि की आशा की गई थी, उसके ठीक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। भोजन प्राणी की प्रथम आवश्यकता है और उसका सही चयन करना प्राणियों की प्रकृति प्रदत्त सहज बुद्धि के साथ जुड़ा होता है, किंतु अपवाद में अकेले मनुष्य की ही गणना की जा सकती है जो अभक्ष्य आहार को गले उतारता और अनावश्यक मात्रा में पेट जैसे कोमल अवयव पर निर्दयतापूर्वक भार लादता है। इसका प्रतिफल भी अपच के रूप में हाथोंहाथ सामने आता है कई बार तो दर्द दस्त उल्टी जैसी विपन्नताएं भी उसी कारण उठ खड़ी होती है। बिना पचा आहार सड़ता है और उस सड़न जन्य विष के रक्त के साथ शरीर में प्रभाव पड़ने लगने पर जहाँ भी अवसर पाता है, वही से चित्र-विचित्र बीमारियों के रूप में फूट निकलता है।

तथ्य को समझने पर भी कितने लोग है जो इंद्रिय संयम बरतने के अनुशासन का निर्वाह करते हैं। अधिकाँश व्यक्ति तो इंद्रियजन्य ललक-लिप्साओं को ही सुख और लाभ की दृष्टि से देखते और उसी के साधन जुटाने में अपनी बहुमूल्य क्षमता को गलाते-जलाते रहते हैं। सृष्टि के अन्यान्य प्राणी इंद्रियों का मर्यादा के अनुरूप प्राणी इंद्रियों का मर्यादा के अनुरूप ही उपयोग करते और नीरोग जीवन जीते हैं। किंतु उस समझदारी का दावा करने वाले को क्या कहा जाय जो चटोरेपन के साथ जुड़े हुए अनौचित्य की परवाह नहीं करता और लुकमान के शब्दों में अपनी कब्र चटोरेपन के भोंथरे हथियार से खोदता है। जानकारियों की कम न होने पर भी, संचित आदत है-जो अपनी दुराग्रह से पीछे नहीं हटती और सार्वजनीन स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बनती है। कामुकता के क्षेत्र में अतिवाद बरतने पर कितने लोग अपनी जीवनी शक्ति को फुलझड़ी की तरह जलाते और कौतुक का मजा लेते रहते हैं। यह भूल ही जाते हैं कि उसमें कितना समय और पैसा बरबाद होता है, साथ ही खोखले घाटा भी सहना पड़ता है।

लोग तो लोग जो ठहरे, आँखें मूँदकर संतान वृद्धि के लिए उत्साही बने रहते हैं और जब जननी पर स्वास्थ्य संकट अभिभावकों पर अर्थ संकट बच्चों पर प्रगति अवरोधों का संकट और समस्त समाज पर समस्याओं का संकट गहराने लगता है, जो भी अपना मानस गहराने लगता है तो भी अपना मानस नहीं बदलते जिन कठिनाइयों से स्वयं लदते रहते हैं उनसे अन्यान्य स्वजन साथियों को सावधान करने तक का मन नहीं बनाते। इस प्रकार की विडंबनाओं को मनुष्य की बुद्धिमत्ता के साथ कैसे जोड़ा जाय यह समझते नहीं बन पड़ता।

तुरंत का लाभ देख कर लोग अनाचार अपनाते और अपराधी प्रवृत्तियों को क्रियान्वित करने के लिए चल पड़ते हैं। जो हाथोंहाथ मिला, उसका गर्वोक्तियों के साथ वर्णन भी करते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इस उपक्रम को अपनाकर वे आत्म धिक्कार जन आक्रोश की प्रताड़ना सहते हैं, साथ ही प्रामाणिकता गँवा बैठने पर दूसरों का विश्वास और सहयोग गँवा कर गयी गुजरी परिस्थितियों में फँसे रहने के लिए विवश होते हैं।

भ्राँतियों अपने आप में अनेकानेक विपत्तियों की जन्मदात्री हैं। रस्सी को सांप और झाड़ी को भूत समझ कर कई बार लोग इतने भयाक्राँत हो जाते हैं कि किंकर्तव्यविमूढ़ होकर प्राण तक गँवा बैठते है। मृगतृष्णा की चर्चा आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं। उजली रात में बालू के मैदान के पानी का तालाब समझ कर प्यासा हिरन उस हेतु दौड़ लगाता है और निराशा भरी थकान से चूर होकर दम तोड़ देता है। कस्तूरी वाले हिरन सुगंध की तलाश में जिस तिस दिशा में भटकते रहते हैं, पर अपनी ही नाभि में उसका उद्गम है, इस पर विश्वास नहीं कर पाते। मछलियाँ और चिड़ियां चारा देखती और उस पर उतावली के साथ लपकती हैं, पर यह नहीं समझ लपकती हैं पर यह नहीं समझ पाती कि यह प्रपंच किसी उदार ने नहीं बहेलिये ने बुना है। भ्रांति ही है जो फँसने वाले को विषम वेदनाओं का दंड दिये बिना किसी प्रकार भी बख्श देने के लिए तैयार नहीं होती। जुआरी अक्सर लाभ के लालच में दाँव पर दाँव लगाते चले जाते हैं और जो कुछ पास पल्ले था, उसे गँवा कर घर खाली हाथ वापस लौटते हैं।

मनुष्य भी ऐसी ही कुछ गलतियाँ जीवन भर करता रहता है। शरीर को ही अपना अस्तित्व मान कर काया को सुख-सुविधाओं से सँजोने में अहिर्निशि निरत रहता है। यहाँ तक कि आत्मा की चर्चा करते और सुनते रहते हुए भी उसके लाभ हानि की बात ध्यान तक में नहीं उतरने देता। उस मालिक को क्या कहा जाय जो घोड़े को मखमली झूल कीमती जीन सुनहरी लगाम से सजाता है इत्र फुलेल लगाने और दूध जलेबी खिलाने में तो विपुल खर्च करता रहता है किंतु उस वाहन का मालिक होने पर भी अपनी रुग्णता और दुर्बलता का उपचार कराने में एक पाई भी खर्चने का मन नहीं करता। जनसाधारण को शरीर साधन में ही जीवन भर निरत रहते देखा जाता है और उसमें इतना तन्मय होता है कि आत्म कल्याण के संबंध में कुछ सोचने और करने तक के लिए फुर्सत नहीं निकाल पाता।

पैसे को, साधनों को लोग सँभाल कर रखते हैं, पर यह समझा नहीं जाता कि मनुष्य जीवन का सुर-दुर्लभ सुयोग है और उसे प्रदान करने में स्रष्टा का कोई विशेष अनुबंध भी सन्निहित है। खजाँची की तिजोरी में भारी धनराशि इसलिए नहीं रखी रहती है कि वह उसे अपनी निजी संपदा समझे और मनचाहे जैसे खर्च करे। सरकारी अफसरों को बड़े अधिकार और सशक्त साधन प्रदान किये जाते हैं, पर उनका प्रयोग सौंपे गये उत्तरदायित्वों की पूर्ति में ही हो सकता है। कोई उन्हें अपनी बपौती समझकर स्वार्थ सिद्धि के लिए मनचाहे ढंग से प्रयोग करने लगे, तो पदच्युत होगा और अनाचार के लिए दंड का भाजन भी बनेगा। सेनाध्यक्ष के तत्वावधान में विपुल शक्ति भंडार केन्द्रित रहता है पर वह है मात्र राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ही। निजी लाभ के लिए उस शक्ति का उपयोग कर लेने वालों को कोर्ट मार्शल कर मृत्युदंड देकर उचित नसीहत दी जाती है।

जो सुविधाएँ अन्य प्राणियों की उपलब्ध नहीं है, उन्हें मात्र मनुष्य की ही उपलब्ध कराने में स्रष्टा का पक्षपात एवं अन्याय प्रतीत होता है पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। यह सर्वोपरि कलाकृति जिन हाथों में सौंपी गई है, उनसे यह भी अपेक्षा रखी गई है कि वे उसे मात्र विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने के लिए ही प्रयुक्त करे। अन्य प्राणियों के लिए ही प्रयुक्त करे। अन्य प्राणियों के लिए निर्वाह ही इतना भारी पड़ता है कि उसे जुटाने में ही उन्हें अपनी समूची क्षमता खपानी पड़ती है, किंतु मनुष्य के लिए मुट्ठी भर आटे की इतनी स्वल्प आवश्यकता है, जो कुछ ही समय के श्रम से भलीभाँति पूरी हो सकती है। इसके बाद जो कुछ समय, श्रम कौशल एवं साधन बचता है वह मात्र इस प्रयोजन के लिए है कि उसका सदुपयोग करके आत्म परिष्कार का स्वार्थ और लोक मंगल का परमार्थ दुहरे लाभ के रूप में अर्जित कर लिया जाय।

संचित कुसंस्कार और वर्तमान के हेय प्रचलन ऐसे है जो पतन-पराभव की ओर चल पड़ने के लिए ही प्रेरित करते हैं। धरती की आकर्षण शक्ति ऊपर वाले को नीचे खींचने और गिराने के लिए प्रसिद्ध हैं। ऊपर चढ़ने के लिए ऊँचा उठने के लिए अतिरिक्त क्षमता की जरूरत पड़ती है। मानवी संसाधन इसी विशेष उपलब्ध कराये गये है पर यदि उन दायित्वों की उपेक्षा करके विलासिता, तृष्णा और अहंता की गर्वोक्तियों के अधिष्ठाता और लाभकारी कृतार्थता अर्जित करने में सफल होते हैं। यह तथ्य समझते-समझाते रहने पर भी अपनी दुराग्रही हेय गतिविधियों को ही अपनाये रहना ऐसा है, जिसे अत्यंत कष्टकर प्रताड़ना के साथ वहन करना पड़ता है।

आप्तजनों ने सच ही कहा है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। उसकी एक मुट्ठी में स्वर्ग और दूसरी में नरक सँजोया हुआ है। उत्थान और दूसरी में नरक सँजोया हुआ है। उत्थान और पतन में से किसी का भी चयन कर लेना उसकी अपनी मर्जी की बात हैं। खेद इस बात का है कि हित को अनहित और अनहित को हित समझ कर किया जाने लगता है। उसे उलटी दिशा में उलटे पैरों चलने का बौढमपन भी कहा जा सकता है। बच्चों की बात दूसरी है एवं साँप, बिच्छू, काँतर, कनखजूरा, छिपकली जैसे भयंकर प्राणियों को भी खिलौना समझ कर पकड़ने के लिए हाथ बढ़ा सकते हैं। पर उन विचारशीलों को क्या कहा जाय, जो परमार्थ के स्थान पर उस स्वार्थ को ही अपनाते हैं, जो अनर्थ बनकर सामने आता रहता है।

वस्तुतः मनुष्य की समझदारी इस आधार पर आँकी जानी चाहिए कि किसने बरबादी भर्त्सना शान−शौकत सद्गति में से किसका कितने मनोयोगपूर्वक चयन किया। कौन दुर्गति के गर्त में धँसता चला गया और किसने अपने को नर रूप में नारायण समझे जाने वालो की पंक्ति में जा बैठने का साहस किया। यों तो के लिए मेहनत हर किसी को करनी पड़ती है। भले बुरे अवसर सभी के सामने आते हैं, पर सराहनीय वह दृष्टिकोण रहता है जिसके आधार पर ऋषि-मनीषियों देवमानवों और युग निर्माताओं जैसी श्रेय साधना करने का सुयोग मिलता और उसके आधार पर हर दृष्टि से धन्य बनने का अवसर मिलता है।

निंदा, प्रशंसा हर भले बुरे की होती रहती है। अपनी विकारी वालों को सभी सराहते और भिन्न मत वालों के प्रति निंदा करते देखे जाते हैं। यदि इसी को कसौटी मानकर चला जाय तो किसी को किसी दिशा में चल सकने का अवसर ही न ही न मिल सकेगा। कुमार्गगामी तक जब समीक्षाकारों की परवाह नहीं करते और अपने दुस्साहस को अपनाये रहते हैं तो सन्मार्गगामियों को ही इतना दुर्बल मन क्यों बनाये रहना चाहिए कि बहुमत वाले लोग उनकी हँसी उड़ायेंगे बेवकूफ कहेंगे और अनुपयुक्त लाँछन लगायेंगे। यदि साहस का अवलंबन अपनाये रहा जाय तो अनेक विरोधों और अवरोधों के आड़े आने पर भी उर्ध्वगमन का प्रयास निश्चितता और निर्भीकतापूर्वक अपनाये रहा जा सकता है और उस लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है जिसके लिए कि मनुष्य जन्म का सुरदुर्लभ सुयोग हस्तगत हुआ है।

सही चुनाव कर सकना ही बुद्धिमत्ता की सबसे बड़ी कसौटी है। जीवन जैसी महान संपदा को किस प्रयोजन के लिए नियोजित किया जाय, इसका चुनाव जो कर सके उन्हीं को बुद्धिमान कहा जायगा। युग परिवर्तन की इस विषम बेला में इस प्रकार के चुनाव में उत्तीर्ण होना प्रशंसनीय माना जा सकता है।


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