प्रेम ही परमेश्वर है।

November 1994

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प्रेम की उपलब्धि परमात्मा की उपलब्धि मानी गई है। प्रेम परमात्मा का भावनात्मक स्वरूप है, जिसे अपने अंतर में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। प्रेम प्राप्ति परमात्मा की प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग हैं। परमात्मा को पाने के अन्य साधन कठिन कठोर दुःसाध्य तथा दुरूह है। एकमात्र प्रेम ही ऐसा साधन है, जिसमें कठिनता, कठोरता अथवा दुःसाध्यता के स्थान पर सरसता सरलता और सुख का समावेश होता है प्रेम की आराधना द्वारा परमात्मा स्वरूप ही ही जाता है।

प्रेम जो लौकिक अर्थों में था, उसमें भी भावनाओं के समर्पण के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं था। भावनायें नहीं रह जाती तो अपनी स्त्री पुत्र पुत्री और भाई−बहिनों के लिए भी तो कोई प्रेम नहीं रह जाता पंच भौतिक पदार्थों के प्रति प्रेम भावनाओं का प्रतिरोपण मात्र है। भावनायें आवेश है, विद्युतीय चुम्बक है। उन्हें तो जहाँ भी प्रतिरोपित कर दिया जाता है वहीं प्रेम का सुख मिलने लगता है।

पत्थर भी तो पंच भौतिक पदार्थ ही है। आने वाली ध्वनि को प्रतिध्वनित करने का रगड़कर अग्नि पैदा करने का उनके सूक्ष्म कणों में जल और आकाश का अंश होने का प्रमाण तो आज वैज्ञानिक भी दे रहे है कोई भी जड़ से जड़ वस्तु में भी चेतना का नियम सर्वत्र भावनाओं की उपस्थिति का प्रमाण ही तो है। तब फिर क्या पत्थर की मूर्ति हमें बदले में कुछ नहीं दे सकती। यदि हमारे अंतःकरण का प्रेम अपने स्वार्थ की सीमा को तोड़कर प्रत्येक वस्तु में तू ही तू के दर्शन करने लगे तो इन पत्थर की गढ़ी हुई मूर्तियों में ही भगवान् के दर्शन किये जा सकते हैं।

इस तरह के सभी प्रेम “तस्वैवाह” अर्थात् मैं उसी का हूँ की सीमा के अन्दर आते हैं। उसमें प्रेम का आकर्षण का भाव तो है पर वह पर्दे में है। उसमें अपनापन अपना स्वार्थ जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। दूसरी प्रकार का प्रेम ‘तस्वैवाह’ मैं तेरा ही हूँ परमात्मा की अमुख उपस्थिति का बोध कराता है। हम अनुभव करते हैं कि हम अपने आप में अपूर्ण है। इस अपूर्णता को जब तक भरा नहीं जाता तब तक संतोष नहीं होता शाँति नहीं मिलती प्रसन्नता नहीं होती। संसार में मनुष्य स्वार्थ-ही-स्वार्थ चाहकर भी जिंदा नहीं रह सकता। उसे अपने स्वार्थ को जब कहीं प्रतिरोपित होने का अवसर मिलता है, ऐसा प्रेम अपनी पत्नी के प्रति हो सकता है। पत्नी से हमारा कोई रुधिरगत संबंध नहीं होता। एक व्यक्ति पूर्व से चल कर आता है दूसरा पश्चिम से आकर मिलता है दोनों एक दूसरे को जानते भी बहुत कम है किंतु समर्पण के भाव ने साँसारिक दूरी को इतना कम कर दिया है कि जोड़े में से एक-दूसरे को देखे बिना रह ही नहीं सकता। मिलन के प्रारंभिक दिनों में एक की, दो-एक दिन की बिछुड़न भी दूसरे के लिये कई वर्षों के समान असह्य हो जाती है। समर्पण प्रेम की इस भावना में शक्ति-सुख का स्थान अधिक तो है पर उसमें भी परमात्मा सम्मुख ही था, अपने भीतर मिल नहीं सका। ऐसे कोई नियम नहीं थे कि चाहते हुए भी स्त्री-पुरुष दोनों एकाकार हो जाते-दो न रहकर एक ही शरीर में समा जाते। न रहकर एक ही शरीर में समा जाते। काम-वासना उसी की भटक है, जिसमें मनुष्य पाता तो कुछ है नहीं, अपना आकर्षक और आकर्षण और कम कर लेता है। काम रूपी बीज को यदि प्रेम रूपी वृक्ष व भक्ति रूपी फल में बदल लिया जाय तो फिर आनंद ही आनंद आ जाता है। प्रेम के विकास की तब एक तीसरी और अंतिम भूमिका जो पत्थर को भी भगवान् बना देती है, वह है त्वमेवाह अर्थात् मैं तो तू ही हूँ। यह समर्पण की चरमसीमा है। इसमें मैं व तू दोनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं।

सच कहें तो मानव जीवन का आज तक जो भी विकास हुआ है, वह सब प्रेम का संबल पाकर हुआ है। आज घृणा और ईर्ष्या द्वेष के कारण लोगों के दिल-दिमाग बेचैन उदास और खिन्नमाना बने रहते हैं। निर्माणकर्ता प्रेम है, जिससे विशुद्ध कर्तव्य-भावना का उदय होता है। हम यदि इस भाव अपने जीवन में धारण कर पायें तो अमीरी हो या गरीबी, शहर में रहते हो या गाँव में मकान पक्का हो अथवा कच्चा, एक ऐसा जीवन जी सकते हैं, जिसे सूखी खुशहाली शाँति भरा जीवन कह सकते हैं।

चरित्र का उत्कृष्टतम रूप सच्चा प्रेम है। यह मानवता की सर्वश्रेष्ठ साधना है, जिससे आत्मबल प्राप्त होता है। निर्भीकता, दृढ़ता साहस, पवित्रता त्याग, सत्यनिष्ठा और कर्तव्य-भावना का आधार शुद्ध और पवित्र प्रेम है। इसे अपने जीवन में धारण करने वाला पुरुष मानव न रहकर महामानव और देवता बन जाता है। व्यक्ति का जीवन खिल उठता है। ऐसे कर्तव्य-निष्ठ नागरिकों के बाहुल्य से ही राष्ट्रों के हित फलते-फूलते रहते हैं। प्रेम मानव-जीवन की सार्थकता है। प्रेमविहीन जीवन तो पशुओं का भी नहीं होता।

प्रेम एक निर्मल झरना है। उसके प्रवाह में जो भी आ जाता है, वह निर्मल हो जाता है। पात्र और कुपात्र की घृणा जैसे झरने के स्वच्छ प्रवाह में नहीं होती है वैसे ही प्रेमी के अंतःकरण में किसी प्रकार की ईर्ष्या-विद्वेष या घृणा की भावनायें नहीं होती। महात्मा गाँधी अपने आश्रम में अपने हाथों से एक कोढ़ी की सेवा-सुश्रूषा किया करते थे। इसमें उन्हें कभी भी घृणा पैदा नहीं होती थी। प्रेम की विशालता में ऊपर से जान पड़ने वाली मलिनतायें भी वैसे ही समा जाती हैं जैसे हजारों नदियों कूड़ा कबाड़ समुद्र के गर्भ में विलीन हो जाता है। प्रेम आत्मा के प्रकाश से किया जाता है। आत्मा यदि मलिनताओं से ग्रसित है तो भी उसकी नैसर्गिक निर्मलता में अंतर नहीं आता। यही समझकर उदारमना व्यक्ति अपनी समानुभूति से किसी को भी वंचित नहीं करते।

प्रेम हृदय की उस पवित्र भावना का शब्द रूप है जो अद्वैत का बोध कराती है। मैं और तुम का विलगाव का भाव वहाँ नहीं होता। इसलिए समष्टिगत विशाल भावना का नाम प्रेम माना गया है। यह विशुद्ध बलिदान है। त्याग और आत्मोत्सर्ग की भावना है जिसमें मनुष्य अपने हितों का अपने प्रेमी के लिये हवन करते हुए असीम तृप्ति का अनुभव करता है। बदले की भावना से नहीं जो केवल प्रेम के लिये प्रेम करता है। वही सच्चा प्रेम है।

भले बुरे, सत्य-असत्य कल्याण अकल्याण की तर्क बुद्धि इस संसार में प्रायः हर मनुष्य में समान रूप से पाई जाती है किंतु कोई ऐसी स्थिर वस्तु दिखाई नहीं देती जिसे हम प्रत्येक परिस्थिति में सत्य मानते रहें। आज देखते हैं कि अपना एक परिवार है, माँ है स्त्री है बच्चे है, घर जमीन, जायदाद सभी कुछ है। इन पर आज अपना पूर्ण स्वामित्व है। क्या मजाल कि इन्हें कोई हमारी मर्जी के बिना अपने पूर्ण स्वामित्व है। क्या मजाल कि इन्हें कोई हमारी मर्जी के बिना अपने अधिकार में ले ले। क्योंकि यह हमारी संपत्ति और विभूतियाँ है। इसमें कही असत्य नहीं कोई संदेह नहीं। किंतु कल परिस्थितिवश जमीन बेचनी पड़ी घर गिरवी रख दिया, कौन जाने कब किस प्रियजन की मृत्यु हो जाय। ऐसी दशा में कोई सत्य वस्तु समझ में नहीं आती है यह घर किसी का न रहा अंत में अपना भी न रहेगा। यह संसार परिवर्तनशील है। इसका प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण अपना स्वरूप बदलती रहती है। किंतु एक अंतिम सत्य भी है इस संसार में। वह है प्रेम। अपने परिजनों पर, विचारों और सिद्धाँतों का प्रेम स्वत्व और सम्मान के प्रति देश और राष्ट्र-धर्म और संस्कृति के प्रति व्यक्ति को अगाध प्रेम होता है। इसी के बल पर संसार के सभी क्रिया व्यवसाय चलते हैं। यह सारा संसार व्यवस्थित ढंग से चल रहा है सभी जानते हैं कि यह संसार मिथ्या है, भ्रम है किंतु सभी जी रहे है, मरने से सभी डरते हैं केवल प्रेम के लिये। यह अलग बात है कि उनका प्रेम साँसारिक है, वस्तु या पदार्थ के प्रति है अथवा प्रेम स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिये। दिशायें दो हो सकती हैं किंतु आस्था एक है। इसी पर सारा टिका है। इसी से विधि व्यवस्था भली भाँति चल रहीं है। यह प्रेम बना रहे, और भी अभिव्यक्त हो समष्टि के प्रति विश्व मानव के प्रति समर्पण के रूप में तो सच्चे अर्थों में आस्तिकता का साम्राज्य चहुँ ओर छा जाय। वस्तुतः प्रेम ही परमेश्वर है की उक्ति निताँत सत्य है यदि प्रेम को सही मायनों के समझ कर जीवन में उतार लिया गया हो।


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