महत्वाकाँक्षा की सनक से खड़े ये अजूबे

May 1994

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महत्वाकाँक्षाएं प्रायः उसे पालने वालों को तो हैरान-परेशान करती ही हैं, अन्य अनेकों को भी अछूता नहीं छोड़ती। शाँतिपूर्वक रहने और दूसरों को रहने देने का एक ही तरीका है कि औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाया जाय, और विचारों में उच्चस्तरीय आदर्शों को समाविष्ट किया जाय।

एक समय था, जब विश्व के अधिकाँश भाग में सामंतवाद का बोल बाला था। सामंतवादी साम्राज्य का एक ही लक्ष्य होता था- विस्तारवाद। जिसे इसकी आकाँक्षा होती, वही डाकुओं का , बलिष्ठ लोगों का समर्थन प्राप्त कर ऐसे ही दस्युओं का ऐसा बलिष्ठ गिरोह बनाता, जिससे पास-पड़ोस के इलाकों में आतंक के सहारे अपना वर्चस्व कायम किया जा सके। मारकाट मचती, तो निर्दोषों की खून की नदियाँ बह जाती, पर उन साम्राज्यवादियों को इसकी क्या परवा थी। उन्हें तो धन , दौलत और राज्य चाहिए, सो इन आकस्मिक आक्रमणों से मिल जाते। बस फिर क्या था। अंधे को आँखें चाहिए। वह किस प्रकार मिलती हैं, कठोर अंतःकरण वालों को इसकी क्या चिंता। पर जो दूसरों का चैन छीनते हैं, उन्हें भी तीसरे शाँति से नहीं जीने देते। सेर की सवा सेर मिलते रहते हैं और अगले की पदच्युत कर पिछले उस पर अधिकार करते रहते हैं।

कभी चीन में भी ऐसे घटनाक्रम तेजी से घट रहे थे। यह ईसा पूर्व 300 की बात है। उन दिनों चीनी शासक अपने-अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विशाल दीवारें विनिर्मित कर रहे थे। तब भारत में मजबूत महल बनाने और पहाड़ियों पर किले खड़े करने एवं चारों ओर खाई खोदने का प्रचलन था, पर चीनी सामंतों ने एक कदम आगे बढ़कर समुद्र की सीमाओं को पृथक करने की विभाजन रेखाएँ खड़ी की थीं। सामान्य सा देश अनेक छोटी रियासतों में विभाजित था। इतने पर भी उन्हें चैन नहीं। घात-प्रतिघात के आक्रमण-प्रत्याक्रमण बराबर चलते रहते और निर्बल, सबलों का शिकार बनते।

यह क्रम अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि ईसा से 24 वर्ष पूर्व वहाँ ‘ चेन’ नामक एक शक्तिशाली सम्राट का उदय हुआ। वह समूचे राष्ट्र पर अपना अधिकार कर लेने के मनसूबे बनाने लगा। इच्छा उपजी, तो तद्नुरूप योजनाएँ बनने और क्रियान्वित होने लगीं। इस क्रम में उसने सैकड़ों लड़ाइयाँ लड़ीं और रक्तपात इस कदर मचाया कि छोटे राजा उससे मिल जाने में ही अपनी भलाई समझने लगे। इस प्रकार कुछ ही वर्षों में पूरे चीन पर उसका एकछत्र राज्य हो गया। वह वहाँ का चक्रवर्ती बन बैठा, पर इतने से ही बाहरी आक्राँताओं को रोका तो नहीं जा सकता था। आखिर उन्हें भी तो साम्राज्य, धन और यश की कामना थी। चेन ने समझा था कि अब चैन से दिन गुजारने से उसे कोई रोक नहीं सकता, पर शायद उसने उस ‘ ‘ चेन प्रतिक्रिया’ ‘ (शृंखला प्रतिक्रिया) को भुला दिया था, जिसकी शुरुआत कभी उसने नृशंस लूट-पाट मचा कर की थी। भीड़-भाड़ में जब हलकी सी भी धक्का मुक्की हो जाती है, तो उसका रेला-सा चल पड़ता है और तब तक जारी रहता है, जब तक वह आखिरी सिरे को छू न ले। अब विपुल संपदा के अधिपति चेन की बारी थी। मध्य एशिया के कबाइली छापामार उसको नींद हराम किये हुए थे। बीच-बीच में वे आक्रमण करते, संपत्ति लूटते और भारी बर्बादी मचाते। जब यह सिलसिला आये दिन चलने लगा। तो रक्षा का उपाय सोचा गया। योजना बनी कि उत्तर-पश्चिम सीमा पर एक विशाल दीवार खड़ी की जाय, जिससे आक्रमणकारियों से राज्य की सुरक्षा हो सके और इस विशालकाय आकाँक्षा पूरी करने का श्रेय-सौभाग्य भी मिले। अब एक ही प्रश्न था कि इतना विपुल धन कहाँ से कैसे प्राप्त हो ?

पर सनक अपनी महत्वाकाँक्षा किसी-न-किसी प्रकार पूरी कर ही लेती है। हठवादी चेन की बढ़ी-चढ़ी महत्वाकाँक्षा ने उसे असंभव जन्य कार्य को पूरा करने की ठानी। कार्य आरंभ कर दिया गया। दीवार बनने लगी। प्रबंध ऐसा किया गया कि रास्ते में जो नदी-नाले निकलें, वे भी उसके नीचे होकर गुजरें। इस निमित्त अनेक पुल बनने लगे। कार्य इतना बड़ा था कि उसके लिए आस-पास के क्षेत्र में उपलब्ध ईंट-पत्थर पर्याप्त न थे। परिणाम यह हुआ कि मोटी दीवार की पोल को भरने के लिए समीपवर्ती क्षेत्र के पेड़-पौधे, बालू-रेत जो भी मिले काट कर भर दिये गये। आधुनिक अनुसंधान बताते हैं कि यह भी जब अपर्याप्त साबित हुए, तो भूखे, कंगालों को उसमें जिंदा दफन किया जाने लगा। इसके प्रमाण आज भी जहाँ-तहाँ दीवार से बाहर झाँकते उनके कंकाल के रूप में मौजूद है।

इस अभूतपूर्व संरचना के लिए कुशल कारीगर और प्रशिक्षित मजदूर चाहिए, सो भी इतने, जितने से चेन की महत्वाकाँक्षा जल्दी-से-जल्दी पूरी हो सके। इतने कुशल शिल्पी और श्रमशील श्रमिक एक साथ कैसे उपलब्ध हों। हल इसका भी निकाल लिया गया। दूर-दूर के क्षेत्रों से बलिष्ठ जवानों को पकड़ कर दास बना लिया गया। उन्हें बड़ी संख्या में पकड़ तो लिया गया। उन्हें बड़ी संख्या में पकड़ तो लिया गया, पर इससे पूर्व उनके भोजन, आवास, विश्राम जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के बारे में सोचा तक न गया। अकुशल प्रबंध और दिन-रात के कठिन श्रम से हृष्ट-पुष्ट जवान भी जल्द ही जब क्षय रोग के रोगी जैसे लगने लगे। इतने पर भी जब उन पर समुचित ध्यान न दिया गया, तो बड़ी संख्या में उनकी मौतें होने लगी। सड़ते-गलते शरीर को ठिकाने लगाने के लिए योजनाकारों को मोटी दीवार के रूप में अच्छी कब्र मिल गई। सभी सामूहिक रूप से दीवारों में जहाँ-तहाँ दफनाया जाने लगा। इससे ईंट गारे की भी कभी-पूर्ति कुछ हद तक हो जाती थी। उपाय अच्छा लगा, तो यह सिलसिला चल पड़ा। जब भी कारीगरों और मजदूरों की मृत्यु से उनकी कमी पड़ती, तो दूसरे राज्यों पर आक्रमण कर ऐसे लोग पकड़ लिये जाते। मरने पर फिर उनका दफन उसी में कर देते। इस प्रकार उस हत्यारी दीवार ने लगभग एक लाख लोगों को निगल लिया। यह दीवार संबंधी तत्कालीन दस्तावेजों से ज्ञात होता है।

चेन सोचा था कि विशालकाय निर्माण के उपराँत उसे आक्राँताओं का त्रास नहीं झेलना पड़ेगा , पर अनुमान गलत निकला। अब दस्युओं ने दीवार में जहाँ-तहाँ सेंध लगाना शुरू किया। इस प्रकार वे चेन-साम्राज्य में लूट-पाट करने और भागने में सफल होते रहे। दीवार पर बने रक्षक बुर्ज के चौकीदार और सेना भी उनका दमन न कर सके। जो हुआ, वह मात्र इतना कि दीवार टूटती और मरम्मत होती रही, पर यह क्रम भी अधिक दिनों तक जारी न रह सका। चेन के उत्तराधिकारियों के लिए इसकी देख-रेख कठिन पड़ गयी, फलतः वह जहाँ-तहाँ गिरने और टूटने लगी। राज्य भी स्थिर न रह सका। तलवार के बल पर जिन सामंतों को कभी काबू किया गया। अब वे भी अपनी तलवारें चमकाने लगे। चेन-वंशज उन्हें वश में न रख सके। परिणाम यह हुआ कि फिर चीन के खंड-खंड हो गये।

कारण साफ था कि विजय किन्हीं उच्चादर्शों के नाम पर राष्ट्रीय एकीकरण के लिए उसे सुसंगठित और सबल बनाने के लिए नहीं प्राप्त की गयी थी और न अधीनस्थ सामंतों को विजय से पूर्व अथवा बाद में ऐसा कुछ समझाया गया था कि यह सब राष्ट्र के हित के लिए किया जा रहा है। प्रचार से निजी स्वार्थ तो कोई छिपता नहीं। यदि ऐसा प्रचारित किया भी गया होता, तो तद्नुरूप आचरण के अभाव में वह झूठा ही साबित होता। नहीं कारण है कि उद्देश्य उच्च न होने से देश उस रूप में संगठित न रह सका और चेन के बाद पुनः सत्ता संघर्ष के लोभ में परस्पर आक्रमण प्रत्याक्रमण शुरू हो गये।

आज चीन की दीवार संसार के महानतम आश्चर्यों में गिनी जाती है। वह 2150 मील लंबी है और ऊँचाई 15 फुट से लेकर 31 फुट तक है। चौड़ाई औसतन 32 फुट है। समग्र पाते कि चेन यह क्यों न सोच पाया कि मनोबल संपन्न अंतराल और देशभक्ति से भरे-पूरे सैनिक, आक्रमणों को निरस्त करने में सफल हो सकते हैं। विशालकाय किले और संरचनाएं उस कार्य को पूरा नहीं कर सकते।

वर्तमान में चीन की दीवार खंडहर बन कर रह गई है। दिन-दिन वह और गिरती बिखरती जा रही है। साथ ही अपनी मूक भाषा में सर्वसाधारण को बताती रहती है कि किस प्रकार महत्वाकाँक्षा की बढ़ी-चढ़ी सनक जिन पर उभरती है, वे कैसे-कैसे अजूबे खड़े करते व धनबल, जनबल, बुद्धिबल को अपार क्षति पहुँचाते हुए यशस्विता प्राप्त करने का एक असफल व हास्यास्पद प्रयास करते हैं।


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