मगध देश के राजा श्रोणिक के राज्य में मुणिकुक्षि नामक उपवन में एक युवा मुनित तप में संलग्न थे। उनका नव यौवन, सौंदर्य से भरा-पूरा था। राजा ने उनके संबंध में सुना तो दर्शन निमित्त पहुंचें। उनकी काँति देख कर वे बहुत प्रभावित हुए। बोले - “आप राजभवन के निकट चलें, वहाँ मैं आपके लिए सारी सुविधाएँ प्रस्तुत कर दूँगा।” साथ ही उनने यह भी पूछा-कि जीवन के आरम्भिक चरणों में ही आपने क्यों वैराग्य ले लिया ?
मुनि ने उत्तर दिया “राजन् ! मैं अनाथ हूँ, इसलिए धर्म को सर्व समर्थ जानकर उसकी शरण में आया हूँ। फिर आप भी तो अनाथ हैं, मेरी क्या सहायता कर सकेंगे ?
इस अनाथ शब्द ने उन्हें असमंजस में डाल दिया। समाधान करते हुए मुनि बोले - “मैं कौशांबी नगरश्रेष्ठी पुत्र हूँ। किशोरावस्था में नेत्रों में भयंकर पीड़ा उठी। परिवार ने सेवा की ओर चिकित्सा पर विपुल खर्च कराया पर किसी से भी लाभ न हुआ और नेत्र ज्योति चली गई।तब मन में विचार आया कि इस संसार में सहानुभूति प्रकट करने वाले कितने ही क्यों न हों। व्यथाओं से बचाने वाला तो एक मात्र धर्म ही हो सकता है। सो मैं उसी शाश्वत की शरण में आया हूँ। मेरी ही तरह आप भी अनाथ ही हैं। राजा ने वस्तुस्थिति को जान लिया और वे भी मुनि होकर उनकी सहायता करने लगें।”