आत्मिक प्रगति को सरल बनाती है, संयम साधना

May 1994

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ऋषियों, मुनियों, विरक्तों, की तपश्चर्या कष्ट साध्य होती है। उसमें कितनी ही तितिक्षाएं करनी पड़ती है। एकाँत में रहने, विरक्त बनने, मन मारने, ब्रह्मचर्य साधने, शरीर को अनेक प्रकार के कष्ट देने जैसे कृत्यों में एक निष्ठ भाव से दीर्घ काल तक संलग्न रहना पड़ता है। लंबे व्रत, उपवास करने, इच्छाओं को दमन करने के लिए कष्ट साध्य क्रिया कलाप अपनाना पड़ता है जो किन्हीं बिरलों के लिए ही संभव है। साथ ही एक कठिनाई और भी है कि यदि व्रत खंडित हो चले तो उलटे हानि कारक परिणाम भी हो सकते हैं। लेने के देने पड़ सकते हैं। लंबी छलाँग लगाने वाले कभी चूक जाते हैं, तो टाँग टूटने जैसे कष्टदायक जोखिम भी उठानी पड़ती है।

सरल मार्ग तलाश करना सदा सुविधा जनक रहता है। धीमी चाल से चलने में समय तो अधिक लग जाता है पर साथ ही यह सुविधा भी है कि दौड़ने वालोँ की तरह बेचैनी का, उतावली का, सामना भी नहीं करना पड़ता और पिछड़ जाने पर उपहास का पात्र भी नहीं बनना पड़ता मनोबल भी नहीं टूटता। भविष्य में चलने रहने की हिम्मत भी बनी रहती है साथ ही गतिशीलता छोड़ बैठने के आवश्यकता भी नहीं पड़ती।

तप का सर्व सुलभ रूप है - संयम। छुट्टल मन की निर्बाध रूप से किसी भी दिशा में दौड़ चलने की आदत अधिकतर उच्छृंखलता के रूप में देखी जाती है। मर्यादाओं और वर्जनाओं को तोड़ते रहने की कुटेव जब परिपक्व हो जाती है तो फिर नशेबाजी की तरह उससे पीछा छुड़ाना कठिन पड़ता है, विषबेल को फैलने से पहले ही उसे दबोच लेने में उन कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता जो गहरी जड़ जमा लेने पर निर्मूल करने में कठोर प्रयास करना होता है। असंयम एक प्रकार की अनुशासन हीनता है जिसे आरंभ में ही नियंत्रित किया जाना चाहिए। गीली लकड़ी को झुकाया जा सकता है। पर पक जाने या सूख जाने पर तो वह टूटने ही लगती है। गीली मिट्टी के बरतन बनते हैं। सूख जाने पर तो उसकी कठोरता बेकार ही हो जाती है। तब उसे किसी साँचे में ढालना संभव नहीं रहता।

जिन्हें सरल स्वाभाविक जीवन यापन करते हुए तप साधना के लाभों से लाभान्वित होना है, उन्हें सर्वतोमुखी संयम साधना अपनाने के लिए तत्पर होना चाहिए। उस पर संकल्प-पूर्वक निष्ठ भी जमी चाहिए।

इंद्रिय निग्रह में व्रत और उपवास का दर्जा ऊँचा है। उपवास का अर्थ किसी दिन साधारण भोजन का क्रम बदल देना भर नहीं है वरन् यह भी है कि पेट को अपना उलझा हुआ काम सुलझा लेने के लिए एक दिन की छुट्टी देना। अच्छा हो यह दिन केवल जल लेकर बिताया जाय। न बन पड़े तो दूध, छाछ, रस जैसी प्रवाही वस्तुएं सीमित मात्रा में लेकर 24 घंटे का उपवास पूरा किया जाय। जिव्हा की लोलुपता और जल्दबाजी मिलकर निगलने में जल्दबाजी दिखाती है। उस कार्य को बेगार समझ कर जैसे - तैसे निबटाने की कोशिश करते है। यह नहीं होना चाहिए कि आधा भोजन पेट में पचता है और आधा मुंह के लार व स्रावों से। इसलिए ग्रास को मुँह में देर तक रखा जाना चाहिए दाँतों का काम भोजन को चक्की की तरह पीस कर बारीक करना है। साथ ही आहार के स्वाद का आनंद लेना भी। भोजन सात्विक, हरा, सजीव और शाकाहार वर्ग का होना चाहिए, उसमें मिर्च मसाले, शक्कर, चिकनाई, की भरमार न हो। इस प्रकार भूख से कम मात्रा में नियम समय पर किया गया आहार जीवन दाता कहा जाता ह। इन मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए आहार नियमन का व्रत पाला जाता रहे तो शरीर स्वस्थ और दीर्घ जीवी बना रह सकता है। साथ ही उसकी अधिक मात्रा खर्चने बनाने में ढेरों समय खराब करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। “जैसी खाएँ अन्न वैसा बने मन।” की उक्ति शत प्रतिशत सही है यदि आहार में नशों का मिष्ठान्न, पकवानों का, आचार मुरब्बों का समावेश रहेगा तो उससे न केवल शरीर पर वरन् मन पर भी प्रभाव पड़ेगा। अखाद्य खाने वालों की मानसिक चंचलता बढ़ी-चढ़ी रहती है। वे किसी महत्वपूर्ण कार्य पर मन टिका ही नहीं पाते। वे सिर पैर की रंगीली उड़ाने उड़ते रहने में बहुमूल्य मानसिक शक्तियों का अपव्यय ही होता है, उस चेतन ऊर्जा का सदुपयोग बन पड़ने पर जो प्रयोजन सिद्ध हो सकते है, उन पर सदुपयोग ही नहीं बनता। शरीरगत क्रिया कलापों की नियमित दिन चर्या होनी चाहिए। समय विभाजन करने और फिर उसके निर्वाह पर पूरा ध्यान देना, जीवन संपदा की सुव्यवस्था है। जो उसे स्वभाव की अंग बनाएं रहते हैं वे अधिक उपयोगी कार्य अधिक मात्रा में कर पाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो खाया गया है उसका आधा चौथाई की शरीर में लग पता है। बाकी सब निरर्थक चला जाता है। उल्टे कब्ज उत्पन्न करके अंग-प्रत्यंगों में विषाक्तता बढ़ाता है।

आहार की ही तरह इंद्रिय संयम में ब्रह्मचर्य को प्रधानता दी गयी है। कामुकता को एक प्रकार की विकृति माना गया हे। शारीरिक उत्तेजना तो गर्भधारण की आवश्यकता के लिए ही यदा-कदा उभरती है। खाली दिमाग पर शैतान छाया रहता है। यह कहावत प्रधानतया कामुक विचारों के संबंध में ही लागू होती है। देखा जाता है कि अश्लील चित्रण एवं क्रिया कलाप ठाली बैठने वालों के सिर पर चढ़ रहता है और उसका आकर्षण चिंतन को किन्हीं महत्वपूर्ण प्रयोजनों में लगने से रोके रहता है। वैज्ञानिक, विद्वान, मनीषी, बुद्धिजीवी, कलाकार, साहित्यकार, अपने मन को साधने की कुशलता में निष्णात् होते हैं वे मस्तिष्क में बंदर जैसी उछल - कूद नहीं मचने देते। जिस कार्य को उपयोगी एवं आवश्यक मानते हैं उसी में एकात्म भाव से तन्मयता, स्थापित करते हैं, उथले मन से, सरसरी नजर से जिन भी विकारों को आते देखते हैं, तुरन्त उन पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं।

बिखराव का एकीकरण करना कितना चमत्कारी है इसे सभी जानते हैं। तिनकों से रस्से बटे जाते हैं और धागे मिलकर कपड़ा बनाते हैं। भव्य भवन बिखरी ईंटों की एकत्रित करके ही बनाए जाते हैं। विचारों को संबंध में भी यही बात है। जो विद्यार्थी एकाग्र भाव से रुचि पूर्वक पढ़ते हैं वे अच्छे डिवीजन में उत्तीर्ण होते हैं। प्रतिस्पर्धाओं में इसी प्रकार की मनोभूमि वाले सफल होते हैं। आर्चीटेक्ट, इंजीनियर, साहित्यकार, वैज्ञानिक आदि की सफलताओं का श्रेय उनकी एकाग्रता पर ही निर्भर रहता है। बया पक्षी इसी आधार पर सुँदर घोंसला बनाता है। इंद्रिय संयम, की ही तरह विचार संयम भी एक प्रकार की साधना तपश्चर्या है। जिसे साधारण मनुष्य भी जागरुकता अपनाकर अपने अभ्यास में उतार सकता है और अभीष्ट दिशा में उत्साह वर्धक सफलता प्राप्त कर सकता है। मन की एकाग्रता उन्हीं से सधती हैं जो अपने समय को साध लेते हैं। अर्थात् दिनचर्या बनाकर समय के श्रेष्ठतम विभाजन की योजना बनाते हैं। समय का एक क्षण भी बर्बाद नहीं होने देते। आलस्य - प्रमाद से बचते और साहसिकतापूर्वक समय को, जीवन-संपदा को बहुमूल्य समझकर उसके छोटे से छोटे घटक को भी सुव्यवस्थित रूप से प्रयोग में लगाते रहते हैं।

इन्हीं सतर्कताओं में ईमानदारी का श्रम-सिक्त उपार्जन भी सम्मिलित है और उस के उपयोग में औसत नागरिक के निर्वाह स्तर के साथ तुलना करते रहना भी। जो कमाया जाय, वह असीम हो यह आवश्यक नहीं श्रम-पूर्वक ईमानदारी से थोड़ा की कमाया जा सकता है। उतने से ही संतोष करना हो और प्रसन्न रहना हो तो उसका एक उपाय है कि खर्च करते समय इस बात का ध्यान रखा जाय कि उसमें कहीं अपव्यय को स्थान तो नहीं मिल रहा है। आम तौर से लोगों को अपना बड़प्पन जताने के लिए कपड़ों की, जेवरों की श्रृंगार प्रसाधनों की ठाट बाट के प्रदर्शनों की आवश्यकता पड़ती है व इसके लिए ढेरों पैसा और समय बर्बाद करना पड़ता है। सोचा यह जाता है कि इस आधार पर अमीरी की छाप छोड़ी जा सकेगी। बड़प्पन प्रकट किया जा सकेगा। किन्तु होता ठीक उलटा है। अपनी और दूसरों की आँख में बचकाना, ओछा, मनचला और घटिया समझे जाने का ही उपहार मिलता है। यह न हो व अर्थ संयम भी सभी संयमों की तरह सध सके तो व्यक्तित्व विकास की क्रिया सफलतापूर्वक संपन्न होती रह सकती है।


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