दूसरों को स्नेह एवं सेवा से अनुग्रहीत करने पर औरों की अपेक्षा को लाभ अधिक रहता हैं क्योंकि सन्मार्ग पर चलने एवं उदार व्यवहार करने पर जो प्रफुल्लता उपलब्ध होती हैं वह चित्त को प्रसन्न एवं अंतराल को मजबूत बनाये रहती है। इसके विपरित जिन्हें संकीर्ण स्वार्थपरता - जन्य अपहरण और उपभोग ही रुचिकर लगता है वे लिप्सा , लालसा की , वासना , तृष्णा , और अहंता की आँशिक पूर्ति करने पर भी आदर्श विहीन जीवन क्रम अपनाते और अंततः खिन्न और उदास बने रहते हैं।
अंतराल में संघर्ष चलते रहने का प्रधान कारण हैं- आदर्शहीन जीवन - यापन। इससे मनुष्य न केवल अपनी गरिमा गँवाकर भीतर से खोखला होता जाता हैं वरन् उसका व्यक्ति त्व भी ऐसा हो जाता हैं जिसे दिग्भ्राँत ही कह सकते हैं। ऐसों का कोई साथी भी नहीं रह जाता। उदासी और अकेलापन न केवल जीवनी - शक्ति का क्षरण करते हैं , वरन् आत्मिक प्रफुल्लता का भी हनन करते हैं। फलतः अंतर्द्वन्द्व - ग्रस्त मनुष्य अपनी गतिविधियों को देर तक चलाते नहीं रह सकता। उदासी और खीज स्थायी रोग बन जाते हैं। इस नयी व्यथा को दूर करने के लिए सस्ता उपाय नशा प्रतीत होता हैं, सो ऐसे लोग प्रायः नशा पीने लगते हैं। आरम्भ में थोड़ी मात्रा से भी काम चल जाता हैं पर बाद में उनकी मात्रा बढ़ानी पड़ती है। यह बढ़ोत्तरी स्वास्थ्य और संतुलन दोनों की ही जड़े काटती हैं। ऐसी दशा में मनुष्य जाल में फँसे पक्षी की तरह अपने को संकट के जाल में फँसा हुआ देखता है। उदासी उसकी एक आदत बन जाती हैं।
सामान्य जनों से लेकर बड़े - बड़ों को मानसिक उदासी का शिकार बनते देखा गया हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के सबसे बड़े राजनेता विंस्टन चर्चिल इसके शिकार हो गये थे। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को भी यह जीवनपर्यंत पीड़ा देती रही। मनः चिकित्सकों के अनुसार उदासी का प्रमुख कारण व्यक्ति का निषेधात्मक चिंतक है। उदासी का एक स्वरूप तो अल्पकालीन होता है। जिसे ‘ब्ल्यू फीलिंग के रूप में जाना है। प्रायः यह अप्रिय समाचार सुनने पर उत्पन्न होती है। कुछ ही घंटे अथवा दिनों में यह शाँत भी हो जाती है।
दूसरे प्रकार की उदासी में व्यक्ति की भावनायें कुंठित होने लगती है। जिसका एक मात्र कारण आत्म सम्मान के अभाव को समझा गया है। इससे व्यक्ति की शक्ति एवं उल्लास में कमी आती है, साथ ही जीवनपर्यंत निराशा जन्य स्थिति भी बनी रहती है। अल्पकालीन उदासी का संबंध मस्तिष्क से, तो दीर्घकालीन उदासी का भावनाओं से होता है। मनोविज्ञानियों ने अपने एक सर्वेक्षण में बताया है कि वर्तमान समय में विश्व में प्रायः 90 प्रतिशत व्यक्ति विभिन्न मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं जिनमें से 20 प्रतिशत मानसिक उदासी से त्रस्त हैं। सुप्रसिद्ध मनः चिकित्सक अंथोनी स्टोर के अनुसार इस प्रकार के व्यक्तियों को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। (1) स्थिर उदासी या मेलेन्कोलिया (2) परिस्थिति विशेष से उत्पन्न उदासी जिसे ‘ पीरियाडिक डिप्रेशन’ भी कहते हैं जो स्थिति में परिवर्तन के साथ समाप्त हो जाती है। (3) ट्राँजिएण्ट डिप्रेशन या अस्थिर उदासी, जो उत्पन्न होती और समाप्त होती रहती है जिसका आवर्तन क्रम अनिश्चित रहता हैँ।
डॉ0 अंथोनी का कहना है कि अस्थायी अवसाद के अवसर प्रायः हर किसी के जीवन में आते-जाते रहते हैं। शारीरिक अस्वस्थता से उत्पन्न पीड़ा मन के सहज उत्साह को कभी-कभी भंग कर देती है। इसी तरह अप्रिय घटनाएँ पर जाने पर भी मन अस्थिर हो जाता है। उद्देश्य में असफलता, प्रिय वस्तुओं का अभाव, अपनों द्वारा की उपेक्षा, अवमानना या अपमान, किसी कार्य या प्रयास में निराशा का हाथ लगना, शोक प्रद घटनाओं का घट जाना आदि अस्थिर उदासी का कारण बनती है। सुखद प्रसंगों के आ उपस्थित होने, ध्यान के बट जाने पर अथवा रुग्णता का उपचार हो जाने पर कुहासा छाया हुआ छट जाता है और नवीन उत्साह संचारित होने लगता है। उनके अनुसार इसी तरह पीरियाडिक डिप्रेशन विषम परिस्थितियों से उत्पन्न भय का परिणाम होता है। अप्रिय या हानिकर परिस्थितियाँ मासिक तनाव उत्पन्न करी हैं और देर तक बने रहने पर अथवा संकट टलने की दूर तक संभावना न दिखने पर इस प्रकार का मनोविकार पर दबोचता है। इसे मन की विजड़ित अवस्था भी कह सकते हैं। जिसमें यथार्थता तो होती नहीं मात्र काल्पनिक भय का भूत ही सिर पर सवार रहता है। उदाहरण के लिए अमुक स्थान , अमुक वस्तु, जलवायु या वातावरण हमें नुकसान पहुंचाएंगे, अनुकूल नहीं पड़ेंगे, यदि यह आशंका किसी के मन में घर कर जाय और सचमुच उसे ऐसे वातावरण में रहना पड़े तो वह भयभीत एवं उद्विग्न रहने लगता है। किंतु उक्त परिवेश को छोड़ते ही उस विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है।
संसार को माया मिथ्या, जीवन को क्षणभंगुर आदि कहते, सुनते रहने पर लोग अपने अस्तित्व और कर्तव्य तक की उपेक्षा करने लगते हैं और वैराग्य की आड़ में अपनी उदासी को आध्यात्मिक रंग देते हैं। कई व्यक्ति अकारण ही अपने दुर्भाग्य को अटल मान बैठते हैं। वे विकृति जीवन दृष्टि को ही सत्य मान लेते हैं और अपनी कायरता एवं आत्महीनता को दार्शनिक आवरण में लपेटने का उपक्रम रचते रहते हैं और गहरे उदासी के गर्त में जा गिरते हैं। ऐसे लोगों को एक प्रकार का आत्महंता ही कहा जा सकता है। इस मनः स्थिति में उनका जीवन-रस सुख जाता है, जीवन भार-भूत प्रतीत होता और दुर्भाग्य अटल विधान जैसा होने लगता है। निष्क्रियता और निराशा की अनुभूतियाँ उनकी स्थायी संपदा बन जाती हैं। ऐसे लोगों को एकाँत बहुत भाता है पर यह एकाँत सच्चे अर्थों में एकाँत नहीं होता। उनकी घुटन और कायरता ही कहीं मुँह छिपाने का अवसर ढूँढ़ती रहती है।
इलीनाँय विश्वविद्यालय शिकागो के विख्यात मनः चिकित्सा विज्ञानी डॉ0 ई॰ जी0 कैप्लर का कहना है कि कार्य का अभाव एवं विकृत चिंतन ही इस महाव्याधि का मूल है। सेवा निवृत्ति के पश्चात् अधिकाँश लोगों को इस मनोव्यथा का शिकार बनते देखा जाता है। कार्य के अभाव में शरीर में जंग लगने लगती है। उत्साह विहीन मन में नीरसता छा जाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति जीर्ण, शीर्ण, निष्क्रिय एवं वृद्ध दिखाई देने लगता है। मृत्यु भी जल्दी ही आ धमकती है। इसके विपरीत व्यस्त रहने एवं मन में उमंग और प्रफुल्लता संजोये रखने वाले स्वस्थ रहते और दीर्घजीवन का आनंद उठाते हैं। उदासी उनके पास फटकती तक नहीं।
जिस प्रकार कार्य का अभाव या निठल्लापन , अकेलापन उत्पन्न करता और अवसादग्रस्त बनाता है, उसी प्रकार पारिवारिक स्नेह का आत्मीयता का अभाव भी इस महा व्याधि का कारण बनता है। ऐसे व्यक्तियों के मित्रों , संबंधियों का कर्त्तव्य है कि उनमें सरसता उत्पन्न करते हेतु सभी संभव प्रयत्न करें। झूठी सहानुभूति दिखाने एवं बात को बतंगड़ बनाने से तो उदासी और व्यथा की जड़े गहरी ही होती जायेंगी। ऐसे लोगों का सच्चा मित्र एवं सहायक वही होता है, जो उत्साह भरे, आशा दिखाये और साहस जगाकर हँसते-हँसाते दिन गुजारने की मनः स्थिति उत्पन्न करें।
महँगी दवाइयाँ भी उदासीनता का स्थायी समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकती। टानिकों से नहीं मनुष्य स्नेह देकर स्नेह पाने और सेवा करने के बदले शुभ कामना पाने से प्रफुल्ल रहता है। डॉ0 कैफ्लर के शब्दों में कार्य की व्यस्तता , खेलों के प्रति रुचि, प्रेम भावना का विकास एवं दैवी चेतना के प्रति आदर्शों के प्रति आस्था उक्त व्यथा से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है।
यही जीवन दर्शन है, जो हमारे सद्ग्रंथों नीति वाक्यों, प्रेरणा प्रद सूत्रों के माध्यम से हमें अपनी संस्कृति में धरोहर के रूप में मिले है। मनुष्य जीवन प्रसन्नता-पूर्वक कुँठाओं से मुक्त रहे तो प्रगति के अन्यान्य आयाम भी हस्तगत होने लगते हैं। उदास-मनहूस व्यक्ति किसे पसंद होगा, कौन उससे मित्रता करेगा? हर व्यक्ति खिले हुए फूल के समान चेहरा पसंद करता है व उसी से मित्रता करने का भाव मन में रहता है। उदासी से दूर रहने वाले, कभी भी मन में हीन भाव न रखने वाले , सदैव समरसता से भरा हँसी खुशी भरा जीवन जीने वाले ही प्रगति के चरम लक्ष्य पर पहुँच पाते है। यही विशुद्ध अध्यात्म है, यही धर्म का व्यावहारिक स्वरूप है।