सतयुग आएगा तो इसी आधार पर

May 1994

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विशेषतया भारतवर्ष में और साधारणतया संसार भर में अगणित ध्वंसावशेष जो देव संस्कृति के विश्वव्यापी विस्तार के परिचायक है अभी भी उपलब्ध होते हैं। इनमें से बहुत कम ऐसे हैं जिन्हें किले या राज महलों के खंडहर कहा जा सके। इनमें से अधिकाँश ऐसे हैं जिन्हें धर्म स्थानों की आकृति के कहा जा सकता है। मंदिर इनमें से थोड़े हैं। क्योंकि जब उनकी संख्या अधिक न थी। न अनेकों देवी देवता थे और न उनके लिए बनाए गए पूजा गृहों का बाहुल्य। इसलिए उनके प्रतीक चिन्ह भी कम ही पाए जाते हैं। धर्मालयों में ऋषि पुरोहित वर्ग के लोग जन कल्याण की अनेकानेक प्रवृत्तियां चलाते थे। ऋषि काल को लंबा समय बीत गया। फिर उस समय चिरस्थायी वास्तुकला का विकास भी नहीं हुआ था। जो निर्माण होते थे, वे स्वल्प काल में ही ढह जाते थे। उनका प्रमाण परिचय देने वाली साक्षियाँ अब उपलब्ध नहीं होती। पर चैत्यों-विहारों और धर्म संस्थानों के खंडहर अभी भी जहाँ तहाँ उपलब्ध हैं। वे पुरातत्व वेत्ताओं ने बौद्धकाल के बताए हैं। क्योंकि ऋषि परंपरा का भारतीय संस्कृति की अंतरात्मा का पुनर्जीवन उन्हीं दिनों संभव हुआ था। सामंत काल में अपनी भौतिक रक्षा के लिए किले बनाये जाते थे और उचित अनुचित हर काम में संरक्षण देने वाले वरण किए गए देवताओं के भव्य मंदिर -उनके अवशेष जहाँ तहाँ अभी भी पाए जाते हैं। दुर्ग जिस प्रयोजन के लिए बनाए जाते थे, वह समय परिवर्तन के साथ ही बदल गया। देवता मनोकामना पूरी करने भर के लिए थे। कर्मवाद की प्रधानता फिर उभर आने और एकेश्वरवाद की मान्यता पनपने से बहुमुखी देवताओं की भी उपेक्षा-अवज्ञा होने लगी। इन परिस्थितियों का बदलाव उपलब्ध खंडहरों की आकृति और प्रकृति देखने से विदित होता है।

मध्यकाल में पूजा उपासना मनोकामना की पूर्ति अथवा स्वर्ग मुक्ति, ऋषि, सिद्धि के निमित्त होती रही है। उसके पीछे विशुद्ध व्यक्तिगत लाभ था। उसी में से हिस्सा बंटने के लिए भावुक भक्तजन इन पुजारियों की झोली भेंट पूजा से भरा करते थे। किंतु धर्मचक्र प्रवर्तन ने सर्व साधारण का दृष्टिकोण ही बदल दिया। वह विघटनकारी परिवर्तन था, जिसमें लोकोपयोगी धर्म-संस्थानों को मात्र देवताओं को कतिपय विडंबनाओं के सहारे वशवर्ती करने का प्रयत्न किया जाने लगा। जब कि उनका आरंभ लोक शिक्षण में धर्म धारणा का समावेश करने का सफल प्रयोग करते रहने के लिए किया गया था। वस्तुतः इन्हें धर्मप्रचारकों की व्यक्तिगत निर्वाह व्यवस्था तथा सार्वजनिक क्रिया-कलापों को संपन्न करते रहने के लिए क्षेत्रीय व्यवस्था के रूप में किया गया था। हर गाँव में उतने बड़े निर्माण नहीं हो सकते थे जिससे कि उनकी आवश्यक साधन सुविधा जुट सकती थी। “ घर का जोगी जोगड़ा अन्य गाँव का सिद्ध” होने की उक्ति के अनुसार दूर के ढोल सबको सुहावने लगते थे और धर्म प्रयोजन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक आते जाते रहने के निमित्त कारण बनते थे। उस क्षेत्र के लोगों का सत्त अभ्यास से औरों से संपर्क सधता था एवं वह बहुमुखी सहयोग में परिवर्तित होता था।

पुराणों का अवगाहन करने से पता चलता है कि जिस प्रकार पके फल पेड़ से अलग होकर अन्यत्र जहाँ जरूरत होती है वहाँ चले जाते हैं। इसी प्रकार ऋषि-मनीषियों में भी यह परंपरा अपनाई हुई थी कि वे अपने जन्म स्थान में ही सदा नहीं बने रहते थे वरन् वानप्रस्थ, संन्यास, आश्रम की पुरातन परंपरा के अनुसार पिछड़े क्षेत्रों को उभारने और जो उभर चुके हैं उन्हें अन्यान्यों की सेवा सहायता करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु निरंतर परिभ्रमण करते थे। जहाँ भी पिछड़ापन दीखता था वहाँ डेरा डाल कर रम जाते थे। जहाँ थोड़े उपदेश परामर्श से काम चल सकता था वहाँ थोड़ा ठहर कर आगे बढ़ जाते थे। यही थी वह सारगर्भित प्रक्रिया जिसने चिरकाल तक सतयुगी वातावरण बनाए रखा और सभी को भौतिक, आत्मिक प्रगति का समुचित अवसर मिलता रहा।

पुराणों में ऐसे अनेकानेक प्रसंगों का वर्णन है जिसमें भारत भूमि की प्रतिभाएँ अपनी योग्यता के अनुसार जन सेवा करने के निमित्त सुदूर यात्राओं पर निकली और लक्ष्य पूरा होने पर समय लगने की बात ध्यान में रखते हुए वहाँ समय साध्य योजनाएं बनाकर बस गई। इनकी पीढ़ियाँ अपने पूर्वजों की व्रतशीलता का ध्यान रखे रहीं। लोक सेवी की विशेष पहचान बनाए रहीं। ऐसे अनेक यात्रा अभियानों और यत्र तत्र केन्द्र बनाकर रहने के संबंध में सुविस्तृत उल्लेख स्थान-स्थान पर आते हैं।

इन दिनों भारत विशाल भारत था। समूचा एशिया उसकी परिधि में आता था। जम्बू द्वीप में योरोप और एशिया दोनों आते हैं। एशिया की भाषाएँ भी संस्कृत होने के कारण समझने में सरल थी। यूरोप इन दिनों वीरान पड़ा था। उसके निवासी आदिमों की तरह जहाँ तहाँ बन प्रदेशों में छोटे-छोटे समुदायों के रूप में गुजारा करते थे। उनका एकत्रित करना और सहयोग पूर्वक रहना एक ऐसा बड़ा काम था कि उसने जोड़- बटोर करने में ही बहुत सारा समय ले लिया। इसके उपराँत ही सह-निवास की और समाज शासन की कृषि , व्यवसाय, शिक्षा, सभ्यता आदि की स्थापना हो सकी। इस ऐतिहासिक काल का वर्णन खंडहरों, शिलालेखों में तो नहीं मिलता पर स्थान परिवर्तन के कारण पुराने छूटे हुए स्थानों की जो स्थिति होती है, उसका आभास अभी भी मिलता है। सतयुग के भारतीयों को प्रमुख कार्य यही करते रहना पड़ा कि वे बिखराव को एकत्रीकरण में और अनगढ़पन की सुसंस्कारिता में बदलें। निर्वाह के लिए आवश्यक भौतिक संभावनाएँ बनाएँ। साथ ही मानवी गरिमा के सूत्रों को हृदयंगम कराते हुए प्रगतिशील सभ्यता का वातावरण बनाएँ।

यह कार्य सर्व प्रथम समीपवर्ती क्षेत्र में आरंभ करने की प्रथा रही। आर्यावर्त से लगा जुड़ा क्षेत्र कार्य शिक्षण की दृष्टि से सरल पड़ता था। यातायात भी सरल पड़ता था। भाषा संबंधी कठिनाई भी न थी। लोगों में सीमित धर्म चेतना भी थी। इसलिए उनके बीच रहकर काम करना सरल पड़ता था। इसलिए पुरोहित परिव्राजकों की गतिविधियाँ जितनी इस समीपवर्ती क्षेत्र में दीख पड़ी , उसकी तुलना में अन्यत्र उनका अनुपात कम ही रहा। फिर भी उसे नगण्य नहीं कहा जा सकता। वह उदार सेवा, भावना से भरा पूरा विश्वकल्याण के निमित्त अपनाया गया क्रिया कलाप ऐसा था जिसका ऐतिहासिक तारतम्य अभी भी बैठता है।

सतयुग काल की परिस्थितियों की साक्षी देने वाली इमारतों के ध्वंसावशेष मिल सकना अब कठिन है, क्योंकि इतने लंबे समय तक प्रकृति प्रवाह उन्हें असाधारण रूप में बदल देता है। उनका अता पता मनुष्यों द्वारा प्रयुक्त की गई और बाद में छोड़ दी गई भूमियों को देखकर ही लगता है। लोक गाथाओं के वर्णनों में भी इस स्थिति का आभास मिलता है। विभिन्न क्षेत्रों में जो लोक कथाएं जन-श्रुतियों के रूप में चली आती है। उनका मध्यवर्ती तारतम्य बिठाने में भी यह अनुमान लगता है कि एक ही मानसरोवर से यह छोटी मोटी अनेकानेक सरिताएं निकली है। जीवन-यापन की पद्धतियों में उपकरणों के निर्माण और उपयोग में भी समता रही है। इस सब का निष्कर्ष यही निकलता है कि किन्हीं कुशल मालियों ने योजनाबद्ध रूप से विभिन्न भूभागों में उद्यान लगाये हैं। वे विश्व विकास के रूप में मानवी प्रगति के रूप में फलित होते रहे हैं।

भारतीय सभ्यता का विकास बीजारोपण तो हिमालय के उत्तराखंड से लेकर गंगा यमुना के दोआबा के मध्य में अधिक दृष्टिगोचर होता है। पर उसका विस्तार क्रमशः समीपवर्ती क्षेत्रों में प्रभावित करते करते निरंतर आगे बढ़ता चला गया। उसने समूचे भूमंडल को प्रभावित किया। एशिया में तो उस प्रयास की साक्षी देने वाले अगणित खंडहर अभी भी मौजूद है। साथ ही प्रथा-प्रचलनों, मान्यताओं, दिशा-धाराओं का स्वरूप ऐसा बना हुआ है कि उन टहनियों को देखते हुए तने का-जड़ों का परिचय सहज ही प्राप्त कराया जा सकता है।

जहाँ पहुँचने में समुद्र बाधक नहीं होते थे। वहाँ लंबी यात्राएं पैदल ही कर ली जाती थी। जहाँ संभव था वहाँ माल , असबाब ढोने के लिए घोड़े, गधे, ऊंट आदि का प्रयोग किया जाता था। बैलगाड़ियाँ भी विनिर्मित रास्तों पर चल लेती थी। पर दलदलों और हिम शिखरों को पार करने के लिए पैदल चलने, आवश्यक सामग्री साथ ले जाने, का दुस्साहस करना पड़ता था। समुद्री मार्ग से लंबी यात्राएं करने के लिए छोटी नावों ने बड़े जहाजों के रूप में विकास कर लिया था। निकट वर्ती छोटी यात्राएं डोंगियों को चप्पू के सहारे धकेल कर इधर उधर ले जाया जाता था। पर लंबी दूरी तक समुद्र पार करने की प्रक्रिया बड़े जलयानों से ही हो पाती थी। उन्हें मजबूत पतवारें बाँधकर हवा का रुख मोड़ते हुए चलाया जाता था। इस प्रकार इन भूखंडों में भी भारतीय पहुँचे जिनकी दुरुहता से निपटने के लिए इन दिनों विशालकाय यंत्र-चलित जलयानों और वायुयानों से काम लिया जाता है। किंतु प्राचीन काल में यह सुविधा न थी तब उन्हें खतरनाक समुद्री यात्राएँ करनी पड़ती थी। समस्त विश्व को एक परिवार की तरह सुविकसित करने का लक्ष्य जो था।

इन दिनों महाद्वीप में (1) यूरेशिया (2) अफ्रीका (3) अमेरिका (4) आस्ट्रेलिया की गणना होती है। न्यूजीलैंड व फिजी हैं तो छोटे से पर उन्हें भी एक कोने में पड़ा होने के कारण आस्ट्रेलिया महाद्वीप का एक भाग मान लेते हैं। समुद्र के बीच असंख्य छोटे बड़े टापू हैं इन में से कुछ तो अभी तक वीरान पड़े हैं पर कुछ में अच्छी बसावट हो गई है। एशिया में जापान, इंडोनेशिया, मलाया आदि के द्वीप समूह इसी प्रकार के हैं। जो हैं तो छोटे पर उनमें निकटवर्ती द्वीपों को मिलाकर ऐसा जजीरा बन गया है कि उनका संयुक्त रूप किसी बड़े देशों के समतुल्य ही शक्तिशाली हो गया है। इन सब को मिलाकर बहुत बड़ी संख्या में देश हो गए हैं। उन सब में तो संभवतः भारतीय परिव्राजकों का पहुँचना नहीं हुआ है पर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में वह हवा चलती और अपनी लपेट में उन सबको लेती रही है। जैसे चीन पहुँचे हुए प्रचारकों ने उस क्षेत्र में इतने कार्य-कर्ता तैयार किए थे जो जापान, कोरिया, साइबेरिया जैसे क्षेत्रों का उत्तरदायित्व स्वयं अपने कंधों पर उठाने में सफल होते रहे हैं। ऋषि काल के उपराँत पुरोहितकाल आया। वे भी प्रचार प्रक्रिया के लिए दूरगामी यात्राएं तो करते रहे पर उन्होंने देव मंदिर बनाने पर ही अधिक जोर दिया। मात्र बौद्धधर्म ही ऐसा था जिसने परिस्थितियों में तथ्यपूर्ण सुधार, परिष्कार करने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किया। इन दिनों भारत अपनी ही उलझनों में उलझा है। धर्मतंत्र की जनमानस को प्रभावित करने वाली शक्ति चुक गई है। सब कुछ शासन तंत्र की व्यवस्था में केंद्रित हो गया है। शासन का सूत्र संचालन अर्थ व्यवस्था करती है। धर्म तो सम्प्रदायों में बँट गया है। पुरातन काल की गाथाएँ सुनना , अमुक कर्म काँडों की लकीर पीटना, एक दूसरे से बढ़कर सिद्ध होने की प्रतिस्पर्धा में, सम्प्रदायों की शक्ति लग रही है। वे आदर्श दृष्टि-गोचर नहीं होते जिनके आधार पर यह देश कभी विश्व का मुकुट-मणि बना था। उन्हीं को पुनर्जीवित करना आज का इस विशिष्ट अवधि का युगधर्म है। प्रतिभावानों को इसी काम के लिए आगे आना होगा तथा अपने महती दायित्व को निभाना व पूरा करना होगा। यही समय की माँग है।


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