एक राजा ने बकरी पाली और प्रजाजनों की परीक्षा लेने का निर्णय किया कि जो इसे तृप्त कर देगा उसे सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी। परीक्षा की अवधि 15 दिन रखी और बकरी घर ले जाने की छूट दे दी। जो ले जाते उसे भरपेट खिलाता और पंद्रह दिन उसका पेट भली प्रकार भर देता। इतने पर भी जब वह दरबार में पहुँचती, तो अपनी आदत के अनुरूप, रखे हुए हरे चारे में मुँह मारती। प्रयत्न असफल चला जाता। इस प्रकार कितनों ने ही प्रयत्न किया, पर वे सभी निराश होकर लौटे।
एक बुद्धिमान उस बकरी को ले गया। वह पीछे तो पेट भर देता। जब सामने आता तो छड़ी से बकरी की खबर लेता। वह उसे देखते ही खाना भूल जाती और मुँह फेर लेती। यह नया अभ्यास जब पक्का हो गया, तो वह बकरी को लेकर दरबार में पहुँचा। छड़ी हाथ में थी। उसके सामने हरा चारा रखा गया, तो छड़ी को ऊँचा उठाते ही उसने मुँह फेर लिया और समझ गया कि वह पूर्ण तृप्त हो गयी। उसे इनाम मिल गया।
रहस्य का उद्घाटन करते हुए राजपुरोहित द्वारा बताया गया कि तृष्णाएँ बकरी के सदृश हैं। वे कभी तृप्त नहीं होती। उन्हें व्रत, संकल्प और प्रतिरोध की छड़ी से ही काबू में लाया जा सकता है।