पिता के श्राद्ध हेतु पंडितों ने यजमान से बहुत सा धन खर्च कराने की योजना बनाई।
पिता को जो प्रिय वस्त्र आभूषण, शस्त्र, वाहन आदि थे, इन्हें दान करके पितृ लोक में पहुंचा देने की बात ठहराई। परिवार के लोगों ने सहमति दे दी और सामान जुटाने की तैयारियां होने लगीं।
ज्येष्ठ पुत्र चतुर था। उसका एक बैल मर गया। उसके सम्मुख चारा, दाना, घास पानी का ढेर लगा दिया और नई झूल लाकर उसे उड़ाई। इन वस्तुओं को स्वीकार करने के लिए वह मृत बैल से प्रार्थना करने लगा। पर वह निर्जीव होने के कारण यथावत् पैर पसारे पड़ा रहा। लोगों ने इस आग्रह को देख ज्येष्ठ पुत्र से कहा “मूर्ख ! हो गये हो, मरे हुये भी कहीं खाया करते हैं। उसने न जोन किस योनि में जन्म लिया होगा। यह साधन उस तक किस प्रकार पहुँचेंगे।”
इस कथन को सुनकर परामर्शदाताओं से पूछा- “तब हमारे मृत पिताजी के पास वह सामान कैसे पहुँचेगा ? जो श्राद्ध के नाम पर उनके पास तक पहुँचाने का प्रयत्न किया जा रहा है।”
परिवार ने अपने विचार बदल दिये और तीनों मूल्य का सामान पंडितों को दिया जाना था, उतने मूल्य की सामग्री दीन-दुखियों को देने का निश्चय किया गया।